योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 116
From जैनकोष
मिथ्यात्व ही आस्रव का प्रमुख कारण -
चेतने s चेतने द्रव्ये यावदन्यत्र वर्तते ।
स्वकीयबुद्धितस्तावत्कर्मागच्छन् न वार्यते ।।११६।।
अन्वय :- यावत् (अज्ञानी जीव:) चेतने अचेतने द्रव्ये स्वकीयबुद्धित: वर्तते तावत् कर्म- आगच्छन् न वार्यते ।
सरलार्थ :- जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है तबतक अष्ट कर्मो के आस्रव को रोका नहीं जा सकता ।
भावार्थ :- पर में अपनत्व रखते हुए अज्ञानी जीव २८ मूलगुणों का पालन करे, कठिन से कठिन तपश्चरण करे, अन्य कोई महादुर्लभ पुण्य-परिणाम करे, परोपकार करता रहे; तथापि पर में अपनत्वरूप/विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व से अनंत संसार के कारण ऐसे कर्म का आस्रव रोकना असम्भव ही है । मिथ्यात्व के अभावपूर्वक यथार्थ श्रद्धारूप सम्यक्त्व की प्राप्ति से धर्म का प्रारंभ होता है ।