योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 118
From जैनकोष
जीव-परिणाम व कर्मोदय में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध -
श्रित्वा जीव-परीणामं कर्मास्रवति दा रु ण म् ।
श्रित्वोदेति परीणामो दारुण: कर्म दारुणम् ।।११८।।
अन्वय :- जीव-परीणामं श्रित्वा दारुणं कर्म आस्रवति, (च) दारुणं कर्म श्रित्वा दारुण: परीणाम: उदेति ।
सरलार्थ :- जीव के परिणामों का आश्रय करके अत्यंत भयंकर अर्थात् अतिदु:खद कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं और अत्यंत भयंकर दु:खद कर्मो के उदय का आश्रय करके जीव के भी अत्यंत दु:खद परिणाम उदित होते हैं ।
भावार्थ :- यहाँ आश्रय शब्द का अर्थ निमित्त है । जीव के परिणाम व कर्मो का परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को ही इस श्लोक में स्पष्ट किया है । जीव के मोह-राग-द्वेषादि विभाव परिणामों का निमित्त पाकर दु:खद कर्मो का आस्रव होता है और दु:खद कर्मो के उदय के निमित्त से जीव के दु:खद परिणामों का उदय होता है । जो पदार्थ स्वयं कार्यरूप तो न परिणमे, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके, उस पदार्थ को निमित्त कारण कहते हैं । जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्भकार, दण्ड, चक्र आदि । जब उपादान स्वत: कार्यरूप परिणमता है, तब भावरूप या अभावरूप किस उचित (योग्य) निमित्त कारण का उसके साथ सम्बन्ध है - यह बताने के लिये उस कार्य को नैमित्तिक कहते हैं । इस तरह से भिन्न पदार्थो के इस स्वतंत्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं । निमित्त-नैमित्तिक संबंध परतन्त्रता का सूचक नहीं है, किन्तु नैमित्तिक के साथ कौन निमित्तरूप पदार्थ है; उसका ज्ञान कराता है । जिस कार्य को निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक कहा है, उसी को उपादान की अपेक्षा उपादेय भी कहते हैं । वास्तव में सोचा जाय तो ब्रह्मद्वैतवाद नाम का एक मत अर्थात् दुनिया में एक मात्र ब्रह्म ही है, अन्य जो कुछ देखने-जानने में आनेवाले पदार्थ हैं, वे हैं ही नहीं; भ्र से अज्ञान से ब्रह्म (आत्मा) को छोड़कर कुछ है - ऐसा लगता है । इस मत के निराकरण के लिए पुद्गलादि पदार्थो के साथ जीव का निमित्त-नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कृपाशील आचार्यो ने कराया है । मूल अभिप्राय गायब हो गया और निमित्तभूत वस्तु को कर्ता समझने की विपरीतता बुद्धि में स्वीकृत हो गयी ।