योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 134
From जैनकोष
जीव तथा कर्म के कर्तासंबंधी ही नयसापेक्ष कथन -
स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं तत्त्वतो जीव-कर्मणो: ।
क्रियते हि गुणस्ताभ्यां व्यवहारेण गद्यते ।।१३४।।
अन्वय :- तत्त्वत: जीव-कर्मणो: स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं (विद्यते); ताभ्यां गुण: क्रियते (इति) हि व्यवहारेण गद्यते ।
सरलार्थ :- निश्चयनय से जीव और कर्म में अपने-अपने गुणों का कर्तापना विद्यमान है अर्थात् जीव अपने ज्ञानादि गुणों/पर्यायों का और कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणों/पर्यायों का कर्ता है । एक के द्वारा दूसरे के गुणों/पर्यायों का किया जाना जो कहा जाता है, वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है ।
भावार्थ :- श्लोक में जो गुणों का कर्ता कहा गया है; वहाँ गुण का अर्थ पर्याय ही करना चाहिए; क्योंकि गुण तो अनादि-अनंत और स्वयम्भू ही होते हैं । व्यवहारनय से एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य की पर्यायों का कर्ता कहा गया है, वह कथनमात्र ही है, वास्तविक नहीं; ऐसा समझना चाहिए । अज्ञानी जन जैसी मान्यता रखते हैं, उसे ही ज्ञानीजन व्यवहारनय का कथन कहकर स्वीकार करते हैं; परंतु वस्तुस्थिति वैसी नहीं होती ।