योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 148
From जैनकोष
कर्मबंध में बाह्य वस्तु अकिंचित्कर -
जायन्ते मोह-लोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुत: ।
तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुत: ।।१४८।।
अन्वय :- यद्यपि वस्तुत: मोह-लोभाद्या: दोषा: जायन्ते, तथापि दोषत: दुरितस्य बन्ध: (जायते), न वस्तुत: ।
सरलार्थ :- यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है ।
भावार्थ :- यदि जीव के मोह-लोभादि परिणामों को छोड़कर अन्य निमित्तरूप परद्रव्य को कर्मबन्ध का सच्चा कारण मान लिया जाय तो फिर किसी जीव का आस्रव-बंध से छूटना नहीं बन सकता; क्योंकि जगत में निमित्तरूप परद्रव्य का कभी अभाव होगा ही नहीं । कर्मबन्ध के सम्बन्ध में समयसार गाथा २६५ में जो स्पष्ट कथन आया है; उसे देखिए - वत्थुं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होई जीवाणं । ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्ति ।। गाथार्थ :- जीवों के जो अध्यवसान होता है, वह वस्तु को अवलम्बकर होता है, तथापि वस्तु से बन्ध नहीं होता अध्यवसान से ही बन्ध होता है । मिथ्या अभिप्राय को अध्यवसान कहते हैं । इस गाथा की टीका एवं भावार्थ में विषय विशेष स्पष्ट हुआ है, उसे मूल से देखें ।