योगसार - जीव-अधिकार गाथा 8
From जैनकोष
ज्ञान के भेद एवं उसका लक्षण -
मति: श्रुतावधी ज्ञाने मन:पर्यय-केवले।
सज्ज्ञानं पंचधावाचि विशेषाकारवेदनम् ।।८।।
मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान-भेदत: ।
मिथ्याज्ञानं त्रिधेत्येवमष्टधा ज्ञानमुच्यते ।।९।।
अन्वय :- ज्ञाने सत्-ज्ञानं मति: श्रुतावधी मन:पर्यय-केवले पञ्चधा अवाचि । (तत् ज्ञानं) विशेषाकारवेदनं (अस्ति) । मिथ्याज्ञानं मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान-भेदत: त्रिधा (भवति )। इति एवं ज्ञानं अष्टधा उच्यते ।
सरलार्थ :- ज्ञानोपयोग में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह पांच प्रकार का ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा गया है और यह ज्ञान विशेषाकार वेदनरूप है । मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभङ्गज्ञान के भेद से मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का है । इसतरह ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का कहा जाता है । भावार्थ:- वस्तुत: ज्ञान सम्यक् अथवा मिथ्या नहीं होता । ज्ञान तो ज्ञान होता है, वह जानने का काम करता है । श्रद्धा की विपरीतता-अविपरीतता से ज्ञान को मिथ्या अथवा सम्यक् कहा जाता है । जीव के अनंत गुणों में एक ज्ञान गुण ही ऐसा है, जो धर्म प्रगट करने में पुरुषार्थ के लिये उपयोगी होता है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी स्वयं अपने में पवित्र/निर्मल होता है । इसके आधार से ही अनादि मिथ्यादृष्टि धर्म-मार्ग का पुरुषार्थ कर सकता है । मिथ्यात्व अवस्था में व्यक्त क्षायोपशमिक ज्ञान के आधार से जिनवाणी का मर्म समझकर मिथ्यात्व को सूक्ष्म (मन्द) वा शिथिल करना तथा नष्ट करना संभव है । धवला शास्त्र में मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को भी मंगल कहा है । (धवला पु. १ पृ. ३६) इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर अर्थात् मतिज्ञानपूर्वक जो अन्य पदार्थो का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । द्रव्य- क्षेत्र-काल और भाव की मर्यादा लिये हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जो रूपी पदार्थ का ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के मन की अवस्थाओं का ज्ञान (रूपी पदार्थ संबंधी) होता है, वह मन:पर्ययज्ञान है तथा जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थो को युगपत् जानता है, वह केवलज्ञान है ।