योगसार - जीव-अधिकार गाथा 10
From जैनकोष
केवलज्ञान व केवलदर्शन के उत्पत्ति में कारण -
उदेति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम्।
कर्मण: क्षयत: सर्वं क्षयोपशमत: परम् ।।१०।।
अन्वय :- केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनं कर्मण: क्षयत: उदेति । परं सर्वं (दर्शनं ज्ञानं च) कर्मण: क्षयोपशमत: (उदेति) ।
सरलार्थ :- केवलदर्शन तथा केवलज्ञान मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्मो के क्षय से अर्थात् नाश से उदित होते हैं/प्रगट होते हैं । शेष अचक्षुदर्शनादि तीन दर्शन एवं मतिज्ञानादि सात ज्ञान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अंतराय कर्मो के क्षयोपशम से प्रगट होते हैं । भावार्थ:- केवलदर्शन दर्शनावरण कर्म के क्षय से और केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है । जब केवलदर्शन और केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब अविनाभावी अंतरायकर्म के अभावपूर्वक ही होता है । मोहनीय का नाश तो पूर्व में ही हो चुका होता है । वास्तव में कर्मो के क्षय से या क्षयोपशम से आत्मा के किसी भी गुण की पूर्णता अथवा विकास नहीं होता; क्योंकि एक द्रव्य की पर्याय का अन्य द्रव्य की पर्याय में नियम से अभाव रहता है, तब कर्म के क्षय-क्षयोपशम; जीव के ज्ञानादि गुणों की पर्याय का कार्य कैसे कर सकते हैं ? प्रश्न :- शास्त्र में कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से जीव के परिणाम होते हैं - ऐसा कथन बहुत आता है, उसका अर्थ क्या समझें ? स्पष्ट खुलासा करें । उत्तर :- यह सब कथन निमित्त-नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराता है, क र्त्ता-कर्म संबंध को नहीं बताता । निमित्त-नैमित्तिक संबंध का अर्थ मात्र दो द्रव्यों की पर्यायें एक ही काल में होती हैं - इसका ज्ञान कराना है; इसे ही कालप्रत्यासत्ति भी कहते हैं । निमित्त-नैमित्तिक का कथन जानकर भी हमें भेदज्ञान ही पुष्ट करना चाहिए; एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता है - इस मिथ्या मान्यता का पोषण नहीं करना चाहिए ।