योगसार - जीव-अधिकार गाथा 37
From जैनकोष
आत्मरमणता से पापों का पलायन -
हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रह: ।
आत्मरूपगते ज्ञाने नि:शेषं प्रपलायते ।।३७ ।।
अन्वय :- ज्ञाने आत्मरूपगते हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रह: नि:शेषं प्रपलायते ।
सरलार्थ :- ज्ञान के आत्मरूप में परिणत होने पर अर्थात् आत्मा के आत्मस्वरूप में लीन होने पर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह - ये पाँचों पाप भाग जाते हैं अर्थात् कोई भी पाप नहीं रहता ।