योगसार - जीव-अधिकार गाथा 43
From जैनकोष
आत्मा, स्वयं दर्शन-ज्ञान-चारित्र है -
यश्चरत्यात्मनात्मानमात्मा जानाति पश्यति ।
निश्चयेन स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमुच्यते ।।४३।।
अन्वय :- य: आत्मा निश्चयेन आत्मानं आत्मना पश्यति, जानाति चरति स: दर्शनं ज्ञानं चारित्रं उच्यते ।
सरलार्थ :- जो आत्मा, आत्मा को निश्चयनय से देखता, जानता और आचरता अर्थात् स्वरूप में प्रवृत्ति करता है, वह आत्मा ही स्वयं दर्शन, ज्ञान और चारित्र कहा जाता है ।