योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 166
From जैनकोष
भोगता हुआ सम्यग्दृष्टि अबन्धक -
नीरागोsप्रासुकं द्रव्यं भुञ्जानोsपि न बध्यते ।
शङ्ख: किं जायते कृष्ण: कर्दादौ चरन्नपि ।।१६६।।
अन्वय :- कर्दादौ चरन् अपि शङ्ख: किं कृष्ण: जायते ? (न जायते; तथा एव) नीराग: (जीव:) अप्रासुकं द्रव्यं भुञ्जान: अपि न बध्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार कीचड आदि में विचरता/पडा हुआ भी शंख क्या काला हो जाता है? कदापि काला नहीं हो जाता, वह सफेद ही बना रहता है । उसीप्रकार जो कथंचित् वीतरागी हुआ श्रावक है, वह अप्रासुक पदार्थो का भोजन/सेवन करता हुआ भी मिथ्यात्वादि अनेक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को प्राप्त नहीं होता ।