योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 165
From जैनकोष
चारित्रादि गुणों का पर्यायगत स्वभाव -
चारित्रादि-त्रयं दोषं स्वीकरोति मलीमसम् ।
न पुनर्र्निलीभूतं सुवर्णमिव तत्त्वत: ।।१६५।।
अन्वय :- वस्तुत: मलीमसं चारित्रादि-त्रयं दोषं स्वीकरोति पुन: सुवर्णं इव निर्मलीभूतं (चारित्रादि-त्रयं) न (दोषं स्वीकरोति)
सरलार्थ :- मिथ्यात्व अवस्था में विद्यमान चारित्र, दर्शन एवं ज्ञान मिथ्या दोष को स्वीकार कर मिथ्यारूप/परिणमते हैं; परंतु मिथ्यात्व रहित साधक तथा सिद्ध अवस्था में अत्यन्त परिशुद्ध/ निर्मल पर्यायरूप परिणत सम्यक् चारित्र, दर्शन एवं ज्ञान मिथ्यारूप दोष को ग्रहण नहीं करते; वे चारित्र आदि भविष्य में अनंतकाल तक सम्यक्रूप ही रहते हैं । जैसे कि किट्ट-कालिमा से रहित शुद्ध निर्मल/सुवर्ण फिर से उस किट्ट-कालिमा को ग्रहण नहीं करता ।