अशुच्यनुप्रेक्षा
From जैनकोष
शरीर में अशुचिता की भावना । शरीर मलस्रावी नव द्वारों से युक्त अशुचि है । रज वीर्य से उत्पन्न मल-मूत्र, रक्त-मांस का घर है । राग-द्वेष, काम, कषाय आदि से प्रभावित है । चन्दन आदि भी इसके संसर्ग से अपवित्र हो जाते हैं । शरीर की ऐसी अशुचिता का चिन्तन करना तीसरी अशुच्यनुप्रेक्षा है । महापुराण 11.107, पद्मपुराण 14.237, पांडवपुराण 24.96-98, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.54-63