अशुत्वानुप्रेक्षा
From जैनकोष
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/109
सप्तधातुमयत्वेन तथा नास्रिकादिनवरंध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। ...निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः। ...`ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। ...विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम्। ...इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता।
= अपवित्र होने से, सात धातुमय होने से, नाकादि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है, किंतु यह शरीर स्वरूप से भी अशुचि है और अशुचि मल आदि का उत्पादक होने से अशुचि है.....निश्चय से अपने आप पवित्र होने से यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है।....`ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करने वाले मुनि) के ही पवित्रता है। जो काम क्रोधादि में लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है।....आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।....इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का कथन हुआ।
अन्य परिभाषाओं के लिए देखें अनुप्रेक्षा#1.6