योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 182
From जैनकोष
पुण्य-पाप के कारण का परिचय -
प्रशस्तो भण्यते तत्र पुण्यं पापं पुन: पर: ।
द्वयं पौद्गलिकं मूर्तं सुख-दु:ख-वितारकम् ।।१८२।।
अन्वय :- तत्र प्रशस्त: पुण्यं, पुन: पर: पापं भण्यते । द्वयं पौद्गलिकं, मूर्तं, सुख-दु:ख- वितारकं (च भवति) ।
सरलार्थ :- उन दो प्रकार के परिणामों में प्रशस्त परिणाम को पुण्य और अप्रशस्त परिणाम को पाप कहते हैं । ये दोनों पुण्य-पापरूप परिणाम पौद्गलिक हैं, मूर्तिक हैं और क्रमश: सांसारिक सुख दु:ख के दाता हैं ।