आचार्य
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
साधुओंको दीक्षा शिक्षा दायक, उनके दोष निवारक, तथा अन्य अनेक गुण विशिष्ट, संघ नायक साधुको आचार्य कहते हैं। वीतराग होनेके कारण पंचपरमेष्ठीमें उनका स्थान है। इनके अतिरिक्त गृहस्थियोंको धर्म-कर्मका विधि-विधान कराने वाला गृहस्थाचार्य है। पूजा-प्रतिष्ठा आदि करानेवाला निर्यापकाचार्य है। इनमें से साधु रूपधारी आचार्य ही पूज्य हैं अन्य नहीं।
1. साधु आचार्य निर्देश
1. आचार्य सामान्यका लक्षण
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 419 आयारं पञ्चविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं। उवदिसदि य आयारं एसो आयारं णाम।
= जो मुनि पाँच प्रकार के आचार निरतिचार स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारोमें दूसरोंको भी प्रवृत्त करता है, तथा आचारका शिष्योंको भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते हैं।
( चारित्रसार पृष्ठ 150/4)।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 509,510 सदा आचारविद्दण्हू सदा आयरियं चरे। आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥509॥ जम्हा पञ्चविहाचारं आचरंतो पभासदि। आयरिपाणि देसंतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥510॥
= जो सर्वकाल सम्बन्धी आचारको जाने, आचारण योग्यको आचरण करता हो और अन्य साधुओंको आचरण कराता हो इसलिए वह आचार्य कहा जाता है ॥509॥ जिस कारण पाँच प्रकारके आचरणोंको पालता हुआ शोभता है, और आप कर किये आचरण दूसरोंको भी दिखाता है, उपदेश करता है, इसलिए वह आचार्य कहा जाता है।
नियमसार / मूल या टीका गाथा .73 पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा। धीरा गुणगंभीराआयरिया एरिसा होंति ॥73॥
= पंचाचारोंसे परिपूर्ण, पंचेन्द्रिय रूपी हाथीके मदका दलन करनेवाले, धीर और गुणगम्भीर, ऐसे आचार्य होते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/24/442 आचरन्ति तस्माद् व्रतानित्याचार्याः।
= जिसके निमित्तसे व्रत्तोंका आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/24/3/623/11)।
धवला पुस्तक 111,1/29-31/49 पवयण-जलहि-जलोयर-ण्हायामल-बुद्धिसुद्धछावासो। मेरु व्व णिप्पकंपो सुरो पंचाणणो वण्णो ॥29॥ देसकुलजाइ सुद्धो सोमङ्गो संग-संग उम्मुक्को। गयण व्व णिरुवलेवो आयरिओ एरिसो होई ॥30॥ संगह-णिग्गह-कुसलो सुत्तत्थ विसारओ पहियकित्ती। सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आयरिओ ॥31॥
धवला पुस्तक 1/1,1,1/48/8 पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयतीत्याचार्याः। चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः। आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसमयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिर्क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः।
= प्रवचन रूपी समुद्रके जलके मध्यमें स्नान करनेसे अर्थात् परमात्माके परिपूर्ण अभ्यास और अनुभवसे जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोंका पालन करते हैं, जो मेरुके समान निष्कम्प हैं, जो शूरवीर हैं, जो सिंहके समान निर्भीक हैं, जो वर्य अर्थात् श्रेष्ठ हैं, देश कुल और जातिसे शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहसे रहित हैं, आकाशके समान निर्लेप हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। (29-30) जो संघके संग्रह अर्थात् दीक्षा ओर निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित् देनेमें कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागमके अर्थमें विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और साधन अर्थात् व्रतोंकी रक्षा करनेवाली क्रियाओंमें निरन्तर उद्यक्त हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 158) जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोंका स्वयं पालन करते है, और दूसरे साधुओंसे पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानोंके पारङ्गत हों. ग्यारह अङ्गोंके धारी हों, अथवा आचारांगमात्रके धारी हों, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमें पारङ्ग हों, मेरुके समान निश्चल हों, पृथ्वीके समान सहनशील हों, जिन्होंने समुद्रके समान मल अर्थात् दोषोंको बाहिर फेंक दिया हो, जो सात प्रकारके भयसे रहित हों, उन्हें आचार्य कहते हैं।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 46/154/12 पञ्चस्वाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च वर्तयन्ति ते आचार्याः।
= पाँच आचारोंमें जो मुनि स्वयं उद्युक्त होते हैं तथा दूसरे साधुओंका उद्युक्त करते हैं, वे साधु आचार्य कहलाते हैं।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52) ( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13/), (द.पा/टी.पं.जयचन्द 2/पृ.13), ( क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या 1/1)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 645-646 आचार्योंऽनादितो रूढेर्योगादपि निरुच्यते। पञ्चाचारं परेभ्यः स आचारयति संयमी ॥645॥ अपि छिन्ने व्रते साधोः पुनः सन्धानमिच्छतः। तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥646॥
= अनादि रूढिसे और योगसे भी निरुक्त्यर्थसे भी आचार्य शब्दकी व्युत्पत्तिकी जाती है कि जो संयमी अन्य संयमियोंसे पाँच प्रकारके आचारोंका आचरण कराता है वह आचार्य कहलाता है ॥645॥ अथवा जो व्रतके खण्डित होनेपर फिरसे प्रायश्चित्त लेकर उस व्रतमें स्थिर होनेकी इच्छा करनेवाले साधुको अखण्डित व्रतके समान व्रतोंके आदेश दानके द्वार प्रायश्चित्तको देता है वह आचार्य कहलाता है।
2. आचार्य के 36 गुणोंका निर्देश
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 417-418 आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुव्वीय। आयावायवीदंसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥417॥ अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिदकित्ति। णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥418॥
= आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत, और उत्पीलक होता है ॥417॥ आचार्य अपरिस्रावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान् और निर्यापकके गुणोंसे परिपूर्ण होते हैं। इतने गुण आचार्यमें होते हैं।
बो.पा/टी.में उद्धृत 1/72 आचारवान् श्रुताधारः प्रायश्चित्तासनादिदः आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकोऽपि च ॥1॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च। दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टमभोजी शय्याशनीति च ॥2॥ आरोगभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुणः। प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी च तद्द्विनिषद्यकः ॥3॥ द्विः षट्तपास्तथा षट्चावश्यकानि गुणा गुरोः॥
= आचारवान्, श्रुताधार, प्रायश्चित्त, आसनादिदः आयापायकथो, दोषभाषक, अश्रावक, सन्तोषकारी निर्यापक, ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्ट भोजी, शय्याशन और आरोगभूक् क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठ सद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, दो निषद्यक, 12 तप तथा 6 आवश्यक यह 36 गुण आचार्योंके हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 9/76 अष्टावाचारवत्त्वाद्यास्तपांसि द्वादशस्थितेः। कल्पादशाऽवश्यकानि षट् षट्त्रिंशद्गुणा गणेः ॥76॥
= आचार्य गणीगुरुके छत्तीस विशेषगुण हैं यथा - आचारवत्व, आधारवत्व आदि आठ गुण और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकारका तप तथा संयमके अन्दर निष्ठाके सौष्ठव उत्तमताकी विशिष्टताको प्रगट करनेवाले आचेलक्य आदि दश प्रकारके गुण-जिनको कि स्थितिकल्प कहते हैं और सामायिकादि पूर्वोक्त प्रकारके आवश्यक।
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 5 पं. सदासुख कृत षोडशकारण भावनामें आचार्य भक्ति-
= “12 तप, 6 आवश्यक, 5 आचार, 10 धर्म, 3 गुप्ति। इस प्रकार ये 36 गुण आचार्यके हैं।”
3. आचार्योंके भेद
(गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य, एलाचार्य, इतने प्रकारके आचार्योंका कथन आगममें पाया जाता है।)
4. अन्य सम्बन्धित विषय
• आचार्यके 36 गुणोंके लक्षण - देखें वह वह नाम ।
• आचार्योंका सामान्य आचरणादि - देखें साधु ।
• आचार्य आगममें कोई बात अपनी तरफसे नहीं कहते - देखें आगम - 5.9।
• आचार्यमें कथंचित् देवत्व - देखें देव - I.1।
• आचार्य भक्ति - देखें भक्ति - 1।
• आचार्य उपाध्याय, साधुमें परस्पर भेदाभेद - देखें साधु 6।
• श्रेणी आरोहणके समय स्वतः आचार्य पदका त्याग हो जाता है। - देखें साधु 6।
• सल्लेखनाके समय आचार्य पदका त्याग कर दिया जाता है।- देखें सल्लेखना - 4
• गुरु शिष्य सम्बन्ध। - देखें गुरु - 2
• आचार्य परम्परा। - देखें इतिहास - 4
2. गृहस्थाचार्य निर्देश
1. गृहस्थाचार्यका निर्देश
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 648 न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम्...।
= व्रती गृहस्थोंको भी आचार्योंके समान आदेश करना निषिद्ध नहीं है।
2. गृहस्थाचार्य को आचार्यकी भाँति दीक्षा दी जाती है
पं.ध/उ.648..। दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीपमानास्ति तत्क्रिया।
= दीक्षाचार्यके द्वारा दी हुई दीक्षाके समान ही गृहस्थाचार्योंकी क्रिया होती है।
3. अव्रती गृहस्थाचार्य नहीं हो सकता
पं.ध/उ.649,652 न निषिद्धो यथाम्नायादव्रतिनां मनागपि। हिंसकश्चोपदेशोऽपि नोपयोज्योऽपि कारणात् ॥649॥ नूनं प्रोक्तापदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम्। रागिणामेव रागाय ततोऽवश्यं निषेधितः ॥652॥
= आदेश और उपदेशके विषयमें अव्रती गृहस्थोंको जिस प्रकार दूसरेके लिए आम्नायके अनुसार थोड़-सा भी उपदेश करना निषिद्ध नहीं है, उसी प्रकार किसी भी कारणसे दूसरेके लिए हिंसा का उपदेश देना उचित नहीं है ॥649॥ निश्चय करके वीतरागियों का पूर्वोक्त उपदेश देना भी रागके लिए नहीं होता है किन्तु सरागियोंका ही पूर्वोक्त उपदेश रागके लिए होता है। इसलिए रागियोंको उपदेश देनेके लिए अवश्य निषेद किया है ॥652॥
3. अन्य आचार्य निर्देश
1. एलाचार्यका लक्षण
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 188/395 अनुगुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरणक्रममित्यनुदिक् एलाचार्यस्तमै विधिना
= गुरुके पश्चात् जो मुनि चारित्रका क्रम मुनि और आर्यिकादिकों को कहता है उसको अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं।
2. प्रतिष्ठाचार्यका लक्षण
वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 388,389 देश-कुल-जाइ सुद्धो णिरुवम-अंगो विशुद्धसम्मत्तो। पढमाणिओयकुसलो पइट्ठालक्खणविहिविदण्णू ॥388॥ सावयगुणोववेदी उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धी। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसा सणे भणिओ ॥389॥
= जो देश कुल और जातिसे शुद्ध हो, निरुपम अंगका धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोगमें कुशल हो, प्रतिष्ठाकी लक्षण-विधिका जानकार हो, श्रावकके गुणोंसे युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्रमें स्थिर बुद्धि हो, इस प्रकारके गुणवाला जिन शासनमें प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है।
3. बालाचार्यका लक्षण
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 273-274 कालं संभाविता सव्वगणमणुदिसं च बाहरियं। सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे मंगलागासे ॥273॥ गच्छाणुपालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू। तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धीरो ॥274॥
= अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदायको अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्यको बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्नके समय शुभ प्रदेशमें, अपने गुणके समान जिसके गुण हैं, ऐसे वे बालाचार्य अपने गच्छका पालन करनेके योगेय हैं ऐसा विचार कर उसपर अपने गणको विसर्जित करते हैं अर्थात् अपना पद छोड़कर सम्पूर्ण गणको बालाचार्यके लिए छोड देते हैं। अर्थात् बालाचार्य ही यहाँ से उस गणका आचार्य समझा जाता है, उस समय पूर्व आचार्य उस बालाचार्यको थोड़ा-सा उपदेश भी देते हैं।
• निर्यापकाचार्यका लक्षण - देखें निर्यापक ।
• निर्यापकाचार्य कर्तव्य विशेष - देखें सल्लेखना - 5।
पुराणकोष से
मुनियों के दीक्षागुरु और उपदेश दाता स्वय आचरणशील होते हुए अन्य मुनियों को आचार पालन कराने वाले मुनि । ये कमल के समान निर्लिप्त, तेजस्वी, शान्तिप्रदाता, निश्चल, गम्भीर और नि:संगत होते हैं । पद्मपुराण 6.264-265, 89.28, 109.89