योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 376
From जैनकोष
लोकपंक्ति का स्वरूप -
आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना ।
क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपङ्क्तिरसौ मता ।।३७६।।
अन्वय :- बालै: (अज्ञ-साधुभि:) मलिनेन-अन्तरात्मना लोकानां आराधनाय या क्रिया क्रियते असौ लोकपङि्क्त: मता ।
सरलार्थ :- मलिन अंतरंगवाले होने से अर्थात् बहिरात्मपर्याय से सहित होकर विषय-कषाय में अनुरक्त तत्त्वज्ञान से रहित अज्ञ साधुओं द्वारा जनसामान्य का अनुरंजन अर्थात् सामान्यजन को प्रसन्न करने एवं उनको अपनी ओर आकर्षित करने के लिये मिथ्या व्रतादिरूप क्रिया की जाती है, उसे लोकपंक्ति कहते हैं ।