योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 377
From जैनकोष
लोकपंक्ति अर्थात् लोकानुरंजन भी कल्याणकारी -
धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाङ्गं मनीषिणाम् ।
तन्निमित्त: पुनर्र्ध: पापाय हतचेतसाम् ।।३७७।।
अन्वय :- मनीषिणां धर्माय क्रियमाणा सा (लोकपङि्क्त:) कल्याणाङ्गं (भवति) । पुन: हतचेतसां तन्निमित्त: (लोकपङ्क्तिेनमित्त:) धर्म: पापाय (भवति) ।
सरलार्थ :- जो सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञानी विद्वान् साधु हैं, उनकी धर्मप्रभावना अथवा जीवदया करने के अभिप्राय से की गयी उक्त लोकाराधना/लोकानुरंजनरूप क्रिया भी कल्याणकारिणी होती है और मिथ्यादृष्टि/अविवेकी साधु हैं, उनकी विषय-कषाय अथवा अज्ञान के कारण से की गई वही की वही - लोकानुरंजनरूप क्रिया पापबंध का कारण बन जाती है ।