योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 394
From जैनकोष
परिग्रह से मन की अस्थिरता अनिवार्य -
स्थापनं चालनं रक्षां क्षालनं शोषणं यते: ।
कुर्वतो वस्त्रपात्रादेर्व्याक्षेपो न निवर्तते ।।३९४।।
अन्वय :- वस्त्र-पात्रादे: स्थापनं चालनं रक्षां क्षालनं शोषणं कुर्वत: यते: व्याक्षेप: न निवर्तते ।
सरलार्थ :- जो योगी/साधु वस्त्र-पात्रादि का रखना-धरना, चलाना, रक्षा करना, धोना, सुखाना आदि करता है, उसके चित्त का विक्षेप अर्थात् अस्थिरता नहीं मिटतीं ।