योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 393
From जैनकोष
वस्त्र-पात्रग्राही साधु की स्थिति -
अलाबु-भाजनं वस्त्रं गृह्णतोsन्यदपि ध्रुवम् ।
प्राणारम्भो यतेश्चेतोव्याक्षेपो वार्यते कथम् ।।३९३।।
अन्वय :- अलाबु-भाजनं वस्त्रं (तथा) अन्यत् अपि ध्रुवं गृह्णत: यते: प्राणारम्भ:, (च) चेतोव्याक्षेप: कथं वार्यते ? (नैव वार्यते)?
सरलार्थ :- तुम्बी पात्र, वस्त्र तथा और भी कम्बलादि परिग्रह को निश्चितरूप से ग्रहण करनेवाले साधु के प्राणवध और चित्त का विक्षेप अर्थात् चंचलता का कैसे निवारण किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता । इसका अर्थ उस साधु के प्राणवध और चित्तविक्षेप सदा बने रहते हैं ।