योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 258
From जैनकोष
संवर के बिना निर्जरा नहीं -
संवरेण बिना साधोर्नास्ति पातकनिर्जरा ।
नूतनाम्भ:प्रवेशोsस्ति सरसो रिक्तता कुत: ।।२५८।।
अन्वय :- (यथा) नूतन-अम्भ:प्रवेश: अस्ति (तर्हि) सरस: रिक्तता कुत: (जायते) ? (तथा) संवरेण बिना साधो: (कर्मणां) पातक-निर्जरा न अस्ति ।
सरलार्थ :- जैसे सरोवर में नये जल के प्रवेश को रोके बिना सरोवर को जल से रहित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मिथ्यात्वादि के संवर के बिना साधु के पाप कर्मो की अपाकजा/ अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती; (अत: पहले मिथ्यात्व का संवर करना चाहिए ।)