योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 259
From जैनकोष
एकाग्र चित्त साधु ही कर्मो के नाशक -
रत्नत्रयमयं ध्यानमात्मरूपप्ररूपकम् ।
अनन्यगतचित्तस्य विधत्ते कर्मसंक्षयम् ।।२५९।।
अन्वय :- अनन्यगतचित्तस्य (योगिन:) आत्मरूप-प्ररूपकं रत्नत्रयमयं ध्यानं कर्म-सक्षयं विधत्ते ।
सरलार्थ :- अनन्य चित्तवृत्ति के धारक अर्थात् एकाग्रचित्तवृत्तिवाले मुनिराज का आत्मस्वरूप का प्रतिपादक रत्नत्रयमयी ध्यान कर्मो का विनाश करता है ।