क्षयोपशम
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
कर्मों के एकदेश क्षय तथा एकदेश उपशम होने को क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि यहाँ कुछ कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण व जीव के गुण को घात में समर्थ नहीं होता। पूर्ण शक्ति के साथ उदय में ना आकर, शक्ति क्षीण होकर उदय में आना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय कहलाता है, और सत्तावाले सर्वघाती कर्मों का अकस्मात् उदय में न आना ही उनका सदवस्थारूप उपशम है। यद्यपि क्षीण शक्ति या देशघाती कर्मों का उदय प्राप्त होने की अपेक्षा यहाँ औदयिक भाव भी कहा जा सकता है, परन्तु गुण के प्रगट होने वाले अंश की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव ही कहते हैं, औदयिक नहीं, क्योंकि कर्मों का उदय गुण का घातक है साधक नहीं।
- भेद व लक्षण निर्देश
- क्षयोपशम का लक्षण
- उदयाभाव क्षय आदि
स.सि./2/5/157/3 सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति।=वर्तमान काल में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयभावी क्षय होने से और आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से देशघाती स्पर्द्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है। (स.सि./1/22/127/1), (रा.वा./1/22/1/81); (रा.वा./2/5/3/107/1); (द्र.सं./टी./30/99/2)।
पं.का./त.प्र./56 कर्मणां फलदानसमर्थतयो...उद्भूत्यनुदभूती क्षयोपशम:।=फलदानसमर्थ रूप से कर्मों का...उद्भव तथा अनुद्भव सो क्षयोपशम है।
- क्षय उपशम आदि
रा.वा./2/1/3/100/16 यथा प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकस्य कोद्रवस्य द्विधा वृत्ति:, तथा यथोक्तक्षयहेतुसंनिधाने सति कर्मण एकदेशस्य क्षयादेकदेशस्य च वीर्योपशमादात्मनो भाव उभयात्मको मिश्र इति व्यपदिश्यते।=जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण, उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना मिश्रभाव है। इस क्षयोपशम के लिए जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक कहते हैं। (स.सि./2/1/149/7)।
ध.1/1,1,8/161/2 तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुण: क्षायोपशमिक:।=कर्मों के क्षय और उपशम से उत्पन्न हुआ गुण क्षयोपशमिक कहलाता है।
ध.7/2,1,49/92/7 सव्वघादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि होदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयामागच्छंति, तेसिंमणंतगुणहीणत्तं खओ णाम। देसघादिफद्दयसरूवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहि खओवसमेहिं संजुत्तोदओ खओवसमो णाम।=सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाति स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकों का अनन्तगुण हीनत्व ही क्षय कहलाता है, और उनका देशघाती स्पर्धकों के रूप से अवस्थान होना उपशम है। उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। (ध.14/5,6,15/10/2)।
- आवृत भाव में शेष अंश प्रगट
ध.5/1,7,1/185/2 कम्मोदए संते वि जं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो खओवसमिओ भावो णाम।=कर्मों के उदय होते हुए भी जो जीवगुण का खंड (अंग) उपलब्ध रहता है वह क्षयोपशम भाव है। (ध.7/2,1,45/87/1); (गो.जी./जी.प्र./8/29/14); (द्र.सं./टी./34/99/9)।
- देशघाती के उदय से उपजा परिणाम
ध.5/1,7,5/200/3 सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण सह वट्टमाणो सम्मत्तपरिणामो खओवसमिओ।=सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय के साथ रहने वाला सम्यक्त्व परिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है। (द्र.सं./टी./34/99/9)।
- गुण का एकदेश क्षय
ध.7/2,1,45/87/3 णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एकदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा।=ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है, उस क्षय का उपशम (अर्थात् प्रसन्नता) हुआ एकदेशक्षय। इस प्रकार ज्ञान के एकदेशीय क्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है।
- उदयाभाव क्षय आदि
- पाँचों लक्षणों के उदाहरण
- उदयाभावी क्षय आदि की अपेक्षा
देखें मिश्र - 2.6.1 मिथ्यात्व का उदयाभावी क्षय तथा उसी का सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्व के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय, इनसे होने के कारण मिश्र गुणस्थान क्षायोपशमिक है।
देखें मिश्र - 2.6.2 सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदयरूप क्षय से उसी के सदवस्थारूप उपशम से तथा उसके सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से होने के कारण मिश्र गुणस्थान क्षायोपशमिक है।
देखें संयत - 2.3.1 प्रत्याख्यानावरणीय के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से, उसी के सदवस्थारूप उपशम से और संज्वलनरूप देशघाती के उदय से होने के कारण प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं।
देखें संयतासंयत - 7.1. अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यानावरण के उदयाभावी क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा प्रत्याख्यानावरणीय, संज्वलन और नोकषायरूप देशघाती कर्मों के उदय से होने के कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है। 2 अथवा अप्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से तथा उसी के सदवस्थारूप उपशम से और प्रत्याख्यानावरणरूप देशघाती कर्म के उदय से होने के कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है।
देखें योग - 3.4 वीर्यान्तराय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से, उसी के सदवस्थारूप उपशम से तथा उसी के देशघाती स्पर्धकों के उदय से होने के कारण योग क्षायोपशमिक है।
- 2. क–क्षय व उपशम युक्त उदय की अपेक्षा
देखें संयत - 2.3.2 नोकषाय के सर्वघाती स्पर्धकों की शक्ति का अनन्तगुणा क्षीण हो जाना सो उनका क्षय, उन्हीं के देशघाती स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम, इन दोनों से युक्त उसी के देशघाती स्पर्धकों के उदय से होने के कारण प्रमत्त व अप्रमत्त संयत गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं।
देखें संयत - 2.3.3 प्रत्याख्यानावरण की देशचारित्र विनाशक शक्ति का तथा संज्वलन व नोकषायों की सकलचारित्र विनाशक शक्ति का अभाव सो ही उनका क्षय तथा उन्हीं के उदय से उत्पन्न हुआ देश व सकल चारित्र सो ही उनका उपशम (प्रसन्नता)। दोनों के योग से होने के कारण संयतासंयत आदि तीनों गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं।
देखें क्षयोपशम - 2.1 मिथ्यात्वकर्म की शक्ति का सम्यक्त्वप्रकृति में क्षीण हो जाना सो उसका क्षय तथा उसी की प्रसन्नता अर्थात् उसके उदय से उत्पन्न हुआ कुछ मलिन सम्यक्त्व, सो ही उसका उपशम। दोनों के योग से होने के कारण वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है।
2. ख–उदय व उपशम के योग की अपेक्षा
देखें क्षयोपशम - 2.2 सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने से वेदक सम्यक्त्व औदयिक है और सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभाव होने से औपशमिक है। दोनों के योग से वह उदयोपशमिक है।
देखें मिश्र - 2.6.4 सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धकों का उदय और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी उपशम। इन दोनों के योग से मिश्रगुणस्थान उदयोपशमिक है।
देखें मतिज्ञान - 2.4 अपने-अपने कर्मों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावीरूप उपशम से तथा उन्हीं के देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण मति आदि ज्ञान व चक्षु आदि दर्शन क्षायोपशमिक हैं।
- आवृतभाव में गुणांश की उपलब्धि
देखें मिश्र - 2.8 सम्यग्मिथ्यात्व कर्म में सम्यक्त्व का निरन्वय घात करने की शक्ति नहीं है। उसका उदय होने पर जो शबलित श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसमें जितना श्रद्धा का अंश है वह सम्यक्त्व का अवयव है। इसलिए मिश्रगुणस्थान क्षायोपशमिक है।
- देशघाती के उदय मात्र की अपेक्षा
देखें क्षयोपशम - 2.1 सम्यक् श्रद्धान को घातने में असमर्थ सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से होने के कारण वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है।
देखें मिश्र - 2.6.3 केवल सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से मिश्रगुणस्थान होता है, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी और सम्यक्त्वप्रकृति, इनमें से किसी का भी उदयाभावी क्षय नहीं है।
देखें संयतासंयत - 7 संज्वलन व नोकषाय के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघाती स्पर्धकों के उदय से होने के कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है।
देखें मतिज्ञान - 2.4 मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से तथा अपने-अपने ज्ञानावरणीय के देशघाती स्पर्धकों के उदय से होने के कारण मति अज्ञान आदि तीनों अज्ञान क्षायोपशमिक हैं।
- गुण के एक देशक्षय की अपेक्षा
(देखें उपशीर्षक नं - 0 2 क व 2 ख)
- क्षायोपशमिक को औदयिक आदि नहीं कह सकते
देखें क्षयोपशम - 2.3 देश संयत आदि तीन गुणस्थानों को उदयोपशमिक कहने वाला कोई उपदेश प्राप्त नहीं है।
देखें क्षयोपशम - 2.4 मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी और सम्यक्त्वप्रकृति इन तीनों का सदवस्थारूप उपशम रहने पर भी मिश्र गुणस्थान को औपशमिक नहीं कह सकते।
देखें मिश्र - 2.10 सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से होने से मिश्रगुणस्थान औदयिक नहीं हो जाता।
देखें संयत - 2.4 संज्वलन के उदय से होने पर भी संयत गुणस्थान को औदयिक नहीं कह सकते।
- उदयाभावी क्षय आदि की अपेक्षा
- क्षयोपशमिक भाव के भेद
ष.खं./14/5,6/19/18 जो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो—खओवसामयं एइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं वीइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं तीइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं चउरिंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं पंचिंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं मदिअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं सुदअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं विहंगणाणि त्ति वा खओवसमियं आभिणिबोहियणाणि त्ति वा खओवसमियं सुदणाणि त्ति वा खओवसमियं ओहिणाणि त्ति वा खओवसमियं मणपज्जवणाणि त्ति वा खओवसमियं चक्खुदंसणि त्ति वा खओवसमियं अच्चक्खुदंसणि त्ति वा खओवसमियं ओहिदंसणि त्ति वा खओवसमियं सम्ममिच्छत्तलद्धि त्ति वा खओवसमियं सम्मत्तलद्धि त्ति वा खओवसमियं दाणलद्धि त्ति वा खओवसमियं लाहलद्धि त्ति वा खओवसमियं भोगलद्धि त्ति वा खओवसमियं परिभोगलद्धि त्ति वा खओवसमियं वीरियलद्धि त्ति वा खओवसमियं से आयारधरे त्ति वा खओवसमियं सूदयडधरे त्ति वा खओवसमियं ठाणधरेत्ति वा खओवसमियं समवायधरे त्ति वा खओवसमियं वियाहपण्णधरे त्ति वा खओवसमियं णाहधम्मधरे त्ति वा खओवसमियं उवासयज्झेणधरे त्ति वा खओवसमियं अंतयडधरे त्ति वा खओवसमियं अणुत्तरोववादियदसधरे त्ति वा खओवसमियं पण्णवागरणधरे त्ति वा खओवसमियं विवागसुत्तधरे त्ति वा खओवसमियं दिट्टिवादधरे त्ति वा खओवसमियं गणि त्ति वा खओवसमियं वाचगे त्ति वा खओवसमियं दसपुव्वहरे त्ति वा खओवसमियं चोद्दसपुव्वहरे त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया खओवसमियभावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधो णाम।19।=जो तदुभय (क्षायोपशमिक) जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है।—एकेन्द्रियलब्धि, द्वीन्द्रिय लब्धि, त्रीन्द्रियलब्धि, पंचेन्द्रियलब्धि, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि, सम्यक्त्वलब्धि, संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, परिभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, आचारधर, सूत्रकृद्धर, स्थानधर, समवायधर, व्याख्याप्रज्ञप्तिधर, नाथधर्मधर, उपासकाध्ययनधर, अन्तकृद्धर, अनुत्तरौपपादिकदशधर, प्रश्नव्याकरणधर, विपाकसूत्रधर, दृष्टिवादधर, गणी, वाचक, दशपूर्वधर तथा क्षायोपशमिक चतुर्दश पूर्वधर; ये तथा इसी प्रकार के और भी दूसरे जो क्षायोपशमिक भाव हैं वह सब तदुभय प्रत्ययिक जीव भावबन्ध हैं।
त.सू./2/5 ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा: सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च।5।=क्षायोपशमिक भाव के 18 भेद हैं—चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम। (ध.5/1,7,1/8/195); (ध.5/191/1,7,1/191/3); (न.च./371); (त.सा./2/4-5); (गो.जी./मू./300); (गो.क./मू./817)।
- क्षयोपशम सर्वात्मप्रदेशों में होता है
ध.1/1,1,23/233/2 सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् ।=जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- गुणस्थानों व मार्गणा स्थानों में क्षायोपशमिक भावों का सत्त्व।–देखें भाव - 2
- गुणस्थानों व मार्गणा स्थानों में क्षायोपशमिक भावों विषयक शंका-समाधान।–देखें वह वह नाम
- क्षायोपशमिक भाव का कथंचित् मूर्तत्व।–देखें मूर्त - 8।
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- गुणस्थानों व मार्गणा स्थानों में क्षायोपशमिक भावों का सत्त्व।–देखें भाव - 2
- क्षयोपशम का लक्षण
- क्षयोपशम के लक्षणों का समन्वय
- वेदक सम्यग्दर्शन–देखें सम्यग्दर्शन - IV.4।
- वेदक सम्यग्दर्शन को क्षयोपशम कैसे कहते हो, औदयिक क्यों नहीं
ध.5/1,7,5/200/7 कधं पुण घडदे। जहट्ठियट्ठसद्दहणघायणसत्ती सम्मत्तफद्दएसु खीणा त्ति तेसिं खइयसण्णा। खयाणमुवसमो पसण्णदा खओवसमो। तत्थुप्पण्णत्तादो खओवसमियं वेदगसम्मत्तमिदि घडदे।=प्रश्न–(क्षयोपशम के प्रथम लक्षण के अनुसार) वेदक सम्यक्त्व में क्षयोपशम भाव कैसे? उत्तर—यथास्थित अर्थ के श्रद्धान को घात करने वाली शक्ति जब सम्यक्त्व प्रकृति के स्पर्धकों में क्षीण हो जाती है, तब उनकी क्षायिक संज्ञा है। क्षीण हुए स्पर्धकों के उपशम को अर्थात् प्रसन्नता को क्षयोपशम कहते हैं। उसमें उत्पन्न होने से वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है।
ध.7/2,1,73/108/7 सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमणंतगुणहाणीए उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं जेण खओवसमसण्णा अत्थि तेण तत्थुप्पणजीवपरिणामो खओवसमलद्धी सण्णिदो। तीए खओवसमलद्धीए वेदगसम्मत्तं होदि।=अनन्तगुण हानि के द्वारा उदय में आये हुए तथा अत्यन्त अल्प देशघातित्व के रूप से उपशान्त हुए सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के देशघातिस्पर्धकों का चूँकि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसलिए उस क्षयोपशम से उत्पन्न जीव परिणाम को क्षयोपशमलब्धि कहते हैं। उसी क्षयोपशम लब्धि से वेदक सम्यक्त्व होता है।
- क्षयोपशम सम्यग्दर्शन को कथंचित् उदयोपशमिक भी कहा जा सकता है
ध./14/5,6,19/21/11 सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण सम्मत्तुप्पत्तीदो ओदइयं। ओवसमियं पि तं, सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावादो।=सम्यक्त्व के देशघाति स्पर्धकों के उदय से सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए तो वह औदयिक है। और वह औपशमिक भी है, क्योंकि वहाँ सर्वघाति स्पर्धकों का उदय नहीं पाया जाता। (देखें मिश्र - 2.6.4)।
- क्षायोपशमिक भाव को उदयोपशमिकपने सम्बन्धी
ध.5/1,7,7/203/6 उदयस्स विज्जमाणस्स खयव्ववएसविरोहादो। तदो एदे तिण्णि भावा उदओवसमियत्तं पत्ता। ण च एवं, एदेसिमुदओवसमियत्तपदुप्पायणसुत्ताभावा।=प्रश्न—जिस प्रकृति का उदय विद्यमान है, उसके क्षय संज्ञा होने का विरोध है। इसलिए ये तीनों ही भाव (देशसंयतादि) उदयोपशमिकपने को प्राप्त होते हैं। उत्तर—नहीं, क्योंकि इन गुणस्थानों को उदयोपशमिकपना प्रतिपादन करने वाले सूत्र का अभाव है।
- क्षायोपशमिक भाव को औदयिक नहीं कह सकते–देखें मिश्र - 2
- परन्तु सदवस्थारूप उपशम के कारण उसे औपशमिक नहीं कह सकते
ध.1/1/1,11/169/7 [उपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्नं तत्र सम्यग्मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुदयेक्षयाभावात् ।] तत्रोदयाभावलक्षण उपशमोऽस्तीति चेन्न्, तस्यौपशमिकत्वप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, तथाप्रतिपादकस्यार्षस्याभावात् ।=[उपशम सम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर उस सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, क्योंकि, उपशम सम्यक्त्व से तृतीय गुणस्थान में आये हुए जीव के ऐसी अवस्था में सम्यक्-प्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता है।] प्रश्न—उपशम सम्यक्त्व से आये हुए जीव के तृतीय गुणस्थान में सम्यक्प्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभाव रूप उपशम तो पाया जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि इस तरह तो तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव मानना पड़ेगा। प्रश्न—तो तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव भी मान लिया जावे? उत्तर—नहीं, क्योंकि, तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव का प्रतिपादन करने वाला कोई आर्ष वाक्य नहीं है।
- फिर वेदक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में क्या अन्तर
ध.1/1,1,11/172/6...उप्पज्जइ जदो तदो वेदयसम्मत्तं खओवसमियमिदि केसिंचि आइरियाणं वक्खाणं तं किमिदि णेच्छिज्जदि, इदि चेत्तण्ण, पुव्वं उत्तुत्तरादो।
ध.1/1,1,11/169/5 वस्तुतस्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मणो निरन्वयेनाप्तागम पर्यायविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थस्योदयात्सदसद्धिषयश्रद्धोत्पद्यत इति।=1.प्रश्न—जब क्षयोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है तब उसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा कितने ही आचार्यों का मत है, उसे यहाँ पर क्यों नहीं स्वीकार किया गया है? उत्तर—यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इसका उत्तर पहले दे चुके हैं। 2. यथा—वास्तव में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वय रूप से आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धा के नाश करने के प्रति असमर्थ है, किन्तु उसके उदय से सत्-समीचीन और असत्-असमीचीन पदार्थ को युगपत् विषय करने वाली श्रद्धा उत्पन्न होती है।
ध.1/1,1,146/398/1 कथमस्य वेदकसम्यग्दर्शनव्यपदेश इति चेदुच्यते। दर्शनमोहवेदको वेदक:, तस्य सम्यग्दर्शनं वेदकसम्यग्दर्शनम् । कथं दर्शनमोहोदयवतां सम्यग्दर्शनस्य सम्भव इति चेन्न, दर्शनमोहनीयस्य देशघातिन उदये सत्यपि जीवस्वभावश्रद्धानस्यैकदेशे सत्यविरोधात् ।=प्रश्न—क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को वेदक सम्यग्दर्शन यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है? उत्तर—दर्शनमोहनीय कर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव को वेदक कहते हैं, उसके जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रश्न—जिनके दर्शनमोहनीय कर्म का उदय विद्यमान है, उनके सम्यग्दर्शन कैसे पाया जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीय की देशघाति प्रकृति के उदय रहने पर भी जीव के स्वभावरूप श्रद्धान के एकदेश रहने में कोई विरोध नहीं आता है।
गो.जी./जी.प्र./25/50/18 सम्यक्त्वप्रकृत्युदयस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य मलजननमात्र एव व्यापारात् तत: कारणात् तस्य देशघातित्वं भवति। एवं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमनुभवतो जीवस्य जायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं वेदकसम्यक्त्वमित्युच्यते। इदमेव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं नाम, दर्शनमोहसर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणक्षये देशघातिस्पर्धकरूपसम्यक्त्वप्रकृत्युदये तस्यैवोपरितनानुदयप्राप्तस्पर्धकानां सदवस्थालक्षणोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात् ।=सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का तत्त्वार्थ श्रद्धान कौं मल उपजावने मात्र ही विषैं व्यापार है तीहिं कारणतैं तिस सम्यक्त्वप्रकृतिकैं देशघातिपना हैं ऐसैं सम्यक्त्वप्रकृतिकैं उदयकौं अनुभवता जीव के उत्पन्न भया जो तत्त्वार्थ श्रद्धान सो वेदक सम्यक्त्व है ऐसा कहिए है। यह ही वेदक सम्यक्त्व है सो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ऐसा नाम धारक है जातैं दर्शनमोह के सर्वघाति स्पर्धकनि का उदय का अभावरूप है लक्षण जाका ऐसा क्षय होतैं बहुरि देशघातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होतैं बहुरि तिसही का वर्तमान समय सम्बन्धीतैं ऊपरि के निषेक उदयकौं न प्राप्त भये तिनिसम्बन्धी स्पर्धकनि का सत्ता अवस्था रूप उपशम होतैं वेदक सम्यक्त्व ही है तातैं याही का दूसरा नाम क्षायोपशमिक है भिन्न नाहीं है।
- वेदक सम्यग्दर्शन–देखें सम्यग्दर्शन - IV.4।
- कर्म क्षयोपशम व आत्माभिमुख परिणाम में केवल भाषा का भेद है–देखें पद्धति ।
- क्षयोपशम सम्यक्त्व व संयमादि आरोहण विधि
- क्षयोपशम सम्यक्त्व आरोहण में दो करण हो हैं
ल.सा./जी.प्र./172/224/6 कर्मणां क्षयोपशमनविधाने निर्मूलक्षयविधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशमविधाने इति प्रवचने प्रतिपादितत्वात् । कर्मों के उपशम वा क्षय विधान ही विषैं अनिवृत्तिकरण हो है। क्षयोपशम विषैं होता नाहीं। ऐसा प्रवचन में कहा है।
- संयमासंयम आरोहण में कथंचित् 3 व 2 करण
ध./6/1,9-8,14/270/10 पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च अक्कमेण पडिवज्जमाणो वि तिण्णि वि करणाणि कुणदि।...असंजदसम्मादिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मियवेदगसम्मत्तपाओग्गमिच्छादिट्ठी वा जदि संजमासंजमं पडिवज्जदि तो दो चेव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो।=प्रथमोपशम सम्यक्त्व को और संयमासंयम को एक साथ प्राप्त होने वाला जीव भी तीनों ही करणों को करता है।...असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयमासंयम को प्राप्त होता है, तो उसके दो ही करण होते हैं, क्योंकि उसके अनिवृत्तिकरण नहीं होता है। (ध.6/1,9-8,14/268/9); (ल.सा./मू./171)।
ध.6/1,9-8,14/273/6 जदि संजमासंजमादो परिणामपच्चएण णिग्गदो संतो पुणरवि अंतोमुहुत्तेण परिणामपच्चएण आणीदो संजमासंजमं पडिवज्जदि, दोण्हं करणाणमभावादो तत्थ णत्थि ट्ठिदिधादो अणुभागघादो वा। कुदो। पुव्वं दोहि करणेहिघादिदट्ठिदि-अणुभागाणं वड्ढीहि विणा संजमासंजमस्स पुणरागत्तादो।=यदि परिणामों के योग से संयमासंयम से निकला हुआ, अर्थात् गिरा हुआ, फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा परिणामों के योग से लाया हुआ संयमासंयम को प्राप्त होता है तो अध:करण और अपूर्वकरण, इन दोनों करणों का अभाव होने से वहाँ पर स्थितिघात व अनुभाग घात नहीं होता है क्योंकि पहले उक्त दोनों करणों के द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागों की वृद्धि के बिना वह संयमासंयम को पुन: प्राप्त हुआ है।
ल.सा./मू./170-171 मिच्छो देसचरित्तं वेदगसम्मेण गेण्हमाणो हु। दुकरणचरिमे गेण्हादि गुणसेढी णत्थि तक्करणे। सम्मत्तुप्पत्तिं वा थोवबदुत्तं च होदि करणाणं। ठिदिखंडसहस्सगदे अपुव्वकरणं समप्पदि हु।171।=अनादि वा सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व सहित देश चारित्र को गृहै है सो दर्शनमोह का उपशम विधान जैसे पूर्वे वर्णन किया तैसे ही विधान करि तीन करणनि की अन्त समय विषैं देश चारित्र को गृहे है।170। सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्व सहित देश चारित्र कौ ग्रहण करै ताकै अध:करण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होंइ, तिनि विषैं गुणश्रेणी निर्जरा न होइ।171।
- संयमासयंम आरोहण विधान
ल.सा./जी.प्र./170-176 सारार्थ-सादि अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व सहित जब ग्रहण करता है तब दर्शनमोह विधानवत् तैसे विधान करके तीन करणनि का अन्त समयविषै देशचारित्र ग्रहै है।170। सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्व सहित देश चारित्र को ग्रहै है ताकै अध:करण अपूर्वकरण ए दोय ही करण होंय तिनविषैं गुणश्रेणी निर्जरा न हो है। अन्य स्थितिखण्डादि सर्व कार्यों को करता हुआ अपूर्वकरण के अन्त समय में युगपत् वेदक सम्यक्त्व अर देशचारित्र को ग्रहण करै है। वहाँ अनिवृत्तिकरण कै बिना भी इनकी प्राप्ति संभवै है। बहुरि अपूर्वकरण का कालविषैं संख्यात हजार स्थिति खण्ड भयें अपूर्वकरण का काल समाप्त हो है। असंयत वेदक सम्यग्दृष्टि भी दोय करण का अंतसमय विषैं देशचारित्र को प्राप्त हो है। मिथ्यादृष्टि का व्याख्यान तैं सिद्धान्त के अनुसारि असंयत का भी ग्रहण करना।171-172। अपूर्वकरण का अन्त समय के अनन्तरवर्ती समय विषैं जीव देशव्रती होइ करि अपने देशव्रत का काल विषै आयु के बिना अन्य कर्मनि का सर्व तत्त्व द्रव्य अपकर्षणकरि उपरितन स्थिति विषै अर बहुभाग गुणश्रेणी आयाम विषै देना।173। देशसंयत प्रथम समयतैं लगाय अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समय-समय अनन्तगुणा विशुद्धता करि बंधे है सो याकौ एकान्तवृद्धि देशसंयत कहिये। इसके अन्तर्मुहूर्त काल पश्चात विशुद्धता की वृद्धि रहित हो स्वस्थान देशसंयत होइ याकौं अथाप्रवृत्त देशसंयत भी कहिये।174। अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव सो कदाचित् विशुद्ध होइ कदाचित् संक्लेशी होइ तहाँ विवक्षित कर्म का पूर्व समयविषै जो द्रव्य अपकर्षण किया तातैं अनन्तर समय विषैं विशुद्धता की वृद्धि के अनुसारि चतु:स्थान पतित वृद्धि लिये गुणश्रेणि विषैं निक्षेपण करै है।
- क्षायोपशमिक संयम में कथंचित् 3 व 2 करण
ध.6/1,9-8,14/281/1 तत्थ खओवसमचारित्तपडिवज्जणविहाणं उच्चदे। तं जहा—पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जमाणो तिण्णि वि करणाणि काऊण पडिवज्जदि।...जदि पुण अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदो वा संजमं पडिवज्जदि तो दो चेव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो।...संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतूण जदि ट्ठिदिसंतकम्मेण अवट्ठिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणस्स अपुव्वकरणाभावादो णत्थि ट्ठिदिघादो अणुभागघादो वा। असंजमं गंतूण वड्ढाविदठिदि-अणुभागसंतकम्मस्स दो वि घादा अत्थि, दोहि करणेहि विणा तस्स संजमग्गहणाभावा।=क्षायोपशमिक चारित्र को प्राप्त करने का विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त करने वाला जीव तीनों ही करणों को करके (संयम को) प्राप्त होता है। पुन: मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत जीव संयम को प्राप्त करता है, तो दो ही करण होते हैं, क्योंकि, उसके अनिवृत्तिकरण का अभाव होता है...। संयम से निकलकर और असंयम को प्राप्त होकर यदि अवस्थित स्थिति सत्त्व के साथ पुन: संयम को प्राप्त होने वाले उस जीव के अपूर्वकरण का अभाव होने से न तो स्थिति घात होता है और न अनुभाग घात होता है। (इसलिए वह जीव संयमासंयमवत् पहले ही दोनों करणों द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभाग की वृद्धि के बिना ही करणों के संयम को प्राप्त होता है) किन्तु असंयम को जाकर स्थिति सत्त्व और अनुभाग सत्त्व को बढ़ाने वाला जीव के दोनों ही घात होते हैं, क्योंकि दोनों करणों के बिना उसके संयम का ग्रहण नहीं हो सकता।
- क्षायोपशमिक संयम आरोहण विधान
ल.सा./मू./189-190 सयलचरित्तं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च। सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिण्हदो पढमं।189। वेदकजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोण्णि करणेण। देसवदं वा गिण्हदि गुणसेढी णत्थि तक्करणे।190।
ल.सा./जी.प्र./191/245/5 इत: परमल्पबहुत्वपर्यन्तं देशसंयते यादृशी प्रक्रिया तादृश्येवात्रापि सकलसंयते भवतीति ग्राह्यम् । अयं तु विशेष:–यत्र यत्र देशसंयत इत्युच्यते तत्र तत्र स्थाने विरत इति वक्तव्यं भवति।=1. सकल चारित्र तीन प्रकार हैं–क्षायोपशमिक, औपशमिक व क्षायिक। तहाँ पहला क्षायोपशमिक चारित्त सातवें वा छठे गुणस्थान विषै पाइये है ताकौं जो जीव उपशम सम्यक्त्व सहित ग्रहण करै है सो मिथ्यात्व तैं ग्रहण करैं हैं ताका तो सर्व विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्ववत् जानना। क्षयोपशम सम्यक्त्व को ग्रहता जीव पहले अप्रमत्त गुणस्थान कौ प्राप्त हो है।189। वेदक सम्यक्त्व सहित क्षयोपशम चारित्र कौ मिथ्यादृष्टि, वा अविरत, व देशसंयत जीव देशव्रत ग्रहणवत् अध:प्रवृत्त वा अपूर्वकरण इन दोय करण करि ग्रहे है। तहाँ करण विषैं गुणश्रेणी नाहीं है। सकल संयम का ग्रहण समय तैं लगाय गुणश्रेणी हो है।190। 2. इहाँ तें ऊपर अल्प–बहुत्व पर्यन्त जैसें पूर्वे देशविरतविषैं व्याख्यान किया है तैसे सर्व व्याख्यान यहाँ जानना। विशेषता इतनी—वहाँ-जहाँ देशविरत कह्या है इहाँ-तहाँ सकल विरत कहना।
- क्षयोपशम भाव में दो ही करणों का नियम क्यों
ल.सा./जी.प्र./172/224/6 अनिवृत्तिकरणपरिणामं बिना कथं देशचारित्रप्राप्तिरित्यपि नाशङ्कनीयं कर्मणां सर्वोपशमनविधाने निर्मूलक्षयविधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशमविधाने इति प्रवचने प्रतिपादित्वात् ।=प्रश्न—अनिवृत्तिकरण परिणाम के बिना देशचारित्र की प्राप्ति कैसे हो सकती है? उत्तर—ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्मों के उपशम व क्षय विधान में ही अनिवृत्तिकरण परिणाम का व्यापार होता है, क्षयोपशम विधान में नहीं, ऐसा प्रवचन में प्रतिपादित किया गया है।
- उत्कृष्ट स्थिति व अनुभाग के बन्ध वा सत्त्व में संयमासंयम व संयम की प्राप्ति संभव नहीं
ध.12/4,2,102/303/10 उक्कस्सट्ठिदिसंते उक्कस्साणुभागे च संते वज्झमाणे च सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो।=उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व के होने पर तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग के बँधने पर सम्यक्त्व, संयम एवं संयमासंयम का ग्रहण सम्भव नहीं है।
- क्षयोपशम सम्यक्त्व आरोहण में दो करण हो हैं
पुराणकोष से
कर्म की चार (उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम) अवस्थाओं में एक अवस्था । वर्तमान काल में उदय में आने वाले सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और उन्ही के आगामी काल में उदय में आने वाले निषेकों का सदवस्था रूप उपशम तथा देशघाती प्रकृति का उदय रहना । महापुराण 36.145, हरिवंशपुराण 3.79