योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 342
From जैनकोष
आत्मचिंतन ही साधन -
नाध्यात्म-चिन्तनादन्य: सदुपायस्तु विद्यते ।
दुराप: स परं जीर्वैोहव्यालकदर्थितै: ।।३४२।।
अन्वय :- अध्यात्म-चिन्तनात् अन्य: सदुपाय: तु न विद्यते (तथा) मोहव्यालकदर्थितै: जीवै: स: (सदुपाय:) परं दुराप: (विद्यते) ।
सरलार्थ :- अध्यात्म-चिंतन अर्थात् निज शुद्धात्म ध्यान से भिन्न दूसरा कोई परमात्मरूप साध्य का साधन नहीं है । विशेष बात यह है कि जो जीव मोहरूपी सर्प से डसे हुए हैं अथवा मोहरूपी हाथी से पीड़ित हैं, उनके लिये शुद्धात्मा का ध्यानरूपी सदुपाय अर्थात् उत्तम उपाय अत्यंत दुर्लभ है ।