योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 459
From जैनकोष
चैतन्य को आत्मा का निरर्थक स्वभाव मानने पर दोषापत्ति -
निरर्थक-स्वभावत्वे ज्ञानभावानुषङ्गत: ।
न ज्ञानं प्रकृतेर्र्धश्चेतनत्वानुषङ्गत: ।।४५९।।
प्रकृतेश्चेतनत्वे स्यादात्मत्वं दुर्निवारणम् ।
ज्ञानात्मकत्वे चैतन्ये नैरर्थक्यं न युज्यते ।।४६०।।
अन्वय :- (आत्मन: चैतन्ये) निरर्थक-स्वभावत्वे प्रकृते: ज्ञानभाव-अनुषङ्गत:, ज्ञानं (च प्रकृते:) धर्म: न, चेतनत्वानुषङ्गत: । प्रकृते: चेतनत्वे आत्मत्वं दुर्निवारणं स्यात् (अत:) चैतन्ये ज्ञानात्मकत्वे (सति तस्य चैतन्यस्य) नैरर्थक्यं न युज्यते ।
सरलार्थ :- यदि चैतन्य को आत्मा का निरर्थक स्वभाव माना जाय - सार्थक स्वभाव न मानकर प्रकृतिजनित विभाव स्वीकार किया जाय - तो प्रकृति के ज्ञानत्व का प्रसंग उपस्थित होता है और ज्ञान प्रकृति का धर्म है नहीं; क्योंकि ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानने पर प्रकृति के चेतनत्व का प्रसंग उपस्थित होता है । यदि प्रकृति के चेतनत्व माना जाये तो आत्मत्व मानना भी अवश्यंभावी होगा । अत: चैतन्य के ज्ञानात्मक होने पर उसके निरर्थकपना नहीं बनता ।