योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 462
From जैनकोष
जीव के स्वभाव-विभाव का दृष्टान्त सहित निरूपण -
यथा चन्द्रे स्थिता कान्तिर्र्निले निर्मला सदा ।
प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य मेघादिजनितावृति: ।।४६२।।
तथात्मनि स्थिता ज्ञप्तिर्विशदे विशदा सदा ।
प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य कर्माष्टककृतावृति: ।।४६३।।
अन्वय :- यथा निर्मले चन्द्रे सदा स्थिता निर्मला कान्ति: तस्य प्रकृति:, मेघादिजनितावृति: (तस्य) विकृति: । तथा विशदे आत्मनि सदा स्थिता विशदा ज्ञप्ति: तस्य प्रकृति:, कर्माष्टककृतावृति: (तस्य) विकृति: ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार निर्मल चन्द्रमा में सदा विद्यमान निर्मल कान्ति उसकी प्रकृति/स्वभाव है और मेघादिजनित आवृति/आवरण उसकी विकृति/विभाव है । उसीप्रकार निर्मल आत्मा में सदा विद्यमान निर्मल ज्ञप्ति/जाननरूप कार्य उसकी प्रकृति/स्वभाव है और आठ कर्मो की आवृति/आवरण उसकी विकृति/विभाव है ।