योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 481
From जैनकोष
भोग का फल -
धर्मतोsपि भवो भोगो दत्ते दु:ख-परंपराम् ।
चन्दनादपि संपन्न: पावक: प्लोषते न किम् ।।४८१।।
अन्वय :- (यथा) चन्दनात् अपि सम्पन्न: पावक: किं न प्लोषते ? (प्लोषते एव; तथा) धर्मत: अपि (सम्पन्न:) भव: भोग: दु:ख-परंपरां दत्ते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार शीतलस्वभावी चंदन से भी उत्पन्न हुई अग्नि जलाने का ही काम करती है; उसीप्रकार पुण्यरूप व्यवहार धर्म से प्राप्त हुआ सहज भोग भी जीव को दु:ख की परम्परा को ही देता है ।