योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 480
From जैनकोष
तत्त्वदृष्टिहीन जीव का स्वरूप -
स तिष्ठति भयोद्विग्नो यथा तत्रैव शङि्कत: ।
तथा निर्वृतिमार्गेsपि भोगमायाविमोहित: ।।४८०।।
अन्वय :- यथा (मायाजले) शङि्कत: भय-उद्विग्न: स: (जीव:) तत्र (मायाजले) एव तिष्ठति; तथा भोगमायाविमोहित: (जीव:) अपि निर्वृतिमार्गे ( शङि्कत: प्रवर्तति) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मृगमरीचिका अर्थात् मायाजल में जिसे असत्यपने का निर्णय नहीं है; सा मनुष्य भय से सदा दु:खी रहता है; उसीप्रकार पंचेंद्रियों के भोगों में दु:ख ही है, ऐसा निर्णय मोह से जिसे नहीं है, वह जीव मोक्षमार्ग में शंकित हुआ वर्तता है ।