योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 484
From जैनकोष
परम भक्ति का स्वरूप -
निर्वाणे परमा भक्ति: पश्यतस्तद्गुणं परम् ।
चित्र-दु:खमहाबीजे नष्टे सति विपर्यये ।।४८४।।
अन्वय :- चित्र-दु:खमहाबीजे विपर्यये नष्टे सति निर्वाणे परं तद्गुणं पश्यत: परमा भक्ति: (भवति) ।
सरलार्थ :- अनेक प्रकार के दु:खों के बीजस्वरूप मिथ्यात्व के नष्ट होने पर निर्वाण अर्थात् मुक्त-अवस्था में प्राप्त होनेवाले सर्वोत्तम गुणसमूहों को देखने-जाननेवाले साधक को परमभक्ति व्यक्त होती है ।