चैत्य चैत्यालय
From जैनकोष
जिन प्रतिमा व उनका स्थान अर्थात् मन्दिर चैत्य व चैत्यालय कहलाते हैं। ये मनुष्यकृत भी होते हैं और अकृत्रिम भी। मनुष्यकृत चैत्यालय तो मनुष्यलोक में ही मिलने सम्भव हैं, परन्तु अकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकार के देवों के भवन प्रासादों व विमानों में तथा स्थल-स्थल पर इस मध्यलोक में विद्यमान हैं। मध्यलोक के 13 द्वीपों में स्थित जिन चैत्यालय प्रसिद्ध हैं।
- चैत्य या प्रतिमा निर्देश
- निश्चय स्थावर जंगम चैत्य प्रतिमा निर्देश
बो.पा./मू./9,10 चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स।9। सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं। णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा।10। =बन्ध, मोक्ष, दु:ख व सुख को भोगने वाला आत्मा चैत्य है।9। दर्शनज्ञान करके शुद्ध है आचरण जिनका ऐसे वीतराग निर्ग्रन्थ साधु का देह उसकी आत्मा से पर होने के कारण जिनमार्ग में जंगम प्रतिमा कही जाती है; अथवा ऐसे साधुओं के लिए अपनी और अन्य जीवों की देह जंगम प्रतिमा है।
बो.पा./मू./11,13 जो चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं। सो होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा।11। णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण रूवेण। सिद्धठाणम्मि ठिय वोसरपडिमा धुवा सिद्धा।13। =जो शुद्ध आचरण को आचरै, बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि यथार्थ वस्तुकूं जानै है, बहुरि सम्यग्दर्शनकरि अपने स्वरूपकूं देखे है, ऐसे निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है सो वंदिबे योग्य है।11। जो निरुपम हैं, अचल हैं, अक्षोभ हैं, जो जंगमरूपकरि निर्मित हैं, अर्थात् कर्म से मुक्त हुए पीछे एक समयमात्र जिनको गमन होता है, बहुरि सिद्धालय में विराजमान, सो व्युत्सर्ग अर्थात् कायरहित प्रतिमा है।
द.पा./मू./35/27 विहरदि जाव जिणिंदो सहसट्ठसुलक्खणेहिं संजुत्तो। चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया।35।
द.पा./टी./35/27/11 सा प्रतिमा प्रतियातना प्रतिबिम्बं प्रतिकृति: स्थावरा भणिता इस मध्यलोके स्थितत्वात् स्थावरप्रतिमेत्युच्यते। मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जङ्गमा कथ्यते। =केवलज्ञान भये पीछे जिनेन्द्र भगवान् 1008 लक्षणों से युक्त जेतेकाल इस लोक में विहार करते हैं तेतै तिनिका शरीर सहित प्रतिबिम्ब, तिसकूं ‘थावर प्रतिमा’ कहिए।35। प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिबिम्ब, प्रतिकृति ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। इस लोक में स्थित होने के कारण यह प्रतिमा स्थावर कहलाती है और मोक्षगमनकाल में एक समय के लिए वही जंगम जिनप्रतिमा कहलाती है। - व्यवहार स्थावर जंगम चैत्य या प्रतिमा निर्देश
भ.आ./वि./46/154/4 चैत्यं प्रतिबिम्बं इति यावत् । कस्य। प्रत्यासत्ते: श्रुतयोरेवार्हतसिद्धयो: प्रतिबिम्बग्रहणं। =चैत्य अर्थात् प्रतिमा। चैत्य शब्द से प्रस्तुत प्रसंग में अर्हंत असिद्धों के प्रतिमाओं का ग्रहण समझना।
द.पा./टी./35/27/13 व्यवहारेण तु चन्दनकनकमहामणिस्फटिकादिघटिता प्रतिमा स्थावरा। समवशरणमण्डिता जंगमा जिनप्रतिमा प्रतिपाद्यते। =व्यवहार से चन्दन कनक महामणि स्फटिक आदि से घड़ी गयी प्रतिमा स्थावर है और समवशरण मण्डित अर्हंत भगवान् सो जंगम जिनप्रतिमा है। - <a name="1.3" id="1.3"></a>व्यवहार प्रतिमा विषयक धातु-माप-आकृति व अंगोपांग आदि का निर्देश
वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/मू./परि.4/श्लो.नं. अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य कर्त्तव्यं लक्षणान्वितम् । ऋृज्वायतसुसंस्थानं तरुणाङ्गं दिगम्बरम् ।1। श्रीवृक्षभूभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । निजाङगुलप्रमाणेनसाष्टाङ्गुलशतायुतम् ।2। मानं प्रमाणमुन्मानं चित्रलेपशिलादिषु। प्रत्यङ्गपरिणाहोर्ध्वं यथासंख्यमुदीरितम् ।3। कक्षादिरोमहीनाङ्गं श्मश्रुरेखाविवर्जितम् । ऊर्ध्वं प्रलम्बकं दत्वा समाप्त्यन्तं च धारयेत् ।4। तालं मुखं वितस्ति: स्यादेकार्थं द्वादशाङ्गुलम् । तेन मानेन तद्विबं नवधा प्रविकल्पयेत् ।5। लक्षणैरपि संयुक्तं बिम्बं दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुर्याद्दृष्टिप्रकाशनम् ।72। नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमीलिता। तिर्यगूर्ध्वमधो दृष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नत:।73। नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका। वीतरागस्य मध्यस्था कर्त्तव्याधोत्तमा तथा।74। =- लक्षण–जिनेन्द्र की प्रतिमा सर्व लक्षणों से युक्त बनानी चाहिए। वह सीधी, लम्बायमान, सुन्दर संस्थान, तरुण अंगवाली व दिगम्बर होनी चाहिए।1। श्रीवृक्ष लक्षण से भूषित वक्षस्थल और जानुपर्यंत लम्बायमान बाहु वाली होनी चाहिए।2। कक्षादि अंग रोमहीन होने चाहिए तथा मूछ व झुर्रियों आदि से रहित होने चाहिए।4।
- माप–प्रतिमा की अपनी अंगुली के माप से वह 108 अंगुल की होनी चाहिए।2। चित्र में या लेप में या शिला आदि में प्रत्येक अंग मान, प्रमाण व उन्मान नीचे व ऊपर सर्व ओर यथाकथित रूप से लगा लेना चाहिए।3। ऊपर से नीचे तक सौल डालकर शिला पर सीधे निशान लगाने चाहिए।4। प्रतिमा की तौल या माप निम्न प्रकार जानने चाहिए। उसका मुख उसकी अपनी अंगुली के माप से 12 अंगुल या एक बालिश्त होना चाहिए। और उसी मान से अन्य भी नौ प्रकार का माप जानना चाहिए।5।
- मुद्रा–लक्षणों से संयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्ररहित हो या मुन्दी हुई आंखवाली हो तो शोभा नहीं देती, इसलिए उसे उसकी आंख खुली रखनी चाहिए।72। अर्थात् न तो अत्यन्त मुन्दी हुई होनी चाहिए और न अत्यन्त फटी हुई। ऊपर नीचे अथवा दायें-बायें दृष्टि नहीं होनी चाहिए।73। बल्कि शान्त नासाग्र प्रसन्न व निर्विकार होनी चाहिए। और इसी प्रकार मध्य व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होंने चाहिए।74।
- सदोष प्रतिमा से हानि
वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि.4/श्लो.नं. अर्थनाशं विरोध च तिर्यग्दृष्टिर्भयं तथा। अधस्तात्सुतनाशं च भार्यामरणमूर्ध्वगा।75। शोकमुद्वेगसंतापं स्तब्धा कुर्याद्धनक्षयम्, शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थाशाभिवृद्धिप्रदा भवेत् ।76। सदोषार्चा न कर्त्तव्या यत: स्यादशुभावहा। कुर्याद्रौद्रा प्रभोर्नाशं कृशाङ्गी द्रव्यसंक्षयम् ।77। संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्याच्चिपिटा दु:खदायिनी। विनेत्रा नेत्रविध्वंसं हीनवक्त्रा त्वशोभनी।78। व्याधिं महोदरी कुर्याद् हृद्रोगं हृदये कृशा। अंसहीनानुजं हन्याच्छुष्कजङ्घा नरेन्द्रही।79। पादहीना: जनं हन्यात्कटिहीना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनीं प्रतिमां दोषवर्जिताम् ।80। =दायीं-बायीं दृष्टि से अर्थ का नाश, अधो दृष्टि से भय तथा ऊर्ध्व दृष्टि से पुत्र व भार्या का मरण होता है।75। स्तब्ध दृष्टि से शोक, उद्वेग, संताप तथा धन का क्षय होता है। और शान्त दृष्टि सौभाग्य, तथा पुत्र व अर्थ की आशा में वृद्धि करने वाली है।76। सदोष प्रतिमा की पूजा करना अशुभदायी है, क्योंकि उससे पूजा करने वाले का अथवा प्रतिमा के स्वामी का नाश, अंगों का कृश हो जाना अथवा धन का क्षय आदि फल प्राप्त होते हैं।77। अंगहीन प्रतिमा क्षय व दु:ख को देने वाली है। नेत्रहीन प्रतिमा नेत्रविध्वंस करने वाली तथा मुखहीन प्रतिमा अशुभ की करने वाली है।78। हृदय से कृश प्रतिमा महोदर रोग या हृदयरोग करती है। अंस या अंगहीन प्रतिमा पुत्र को तथा शुष्क जंघावाली प्रतिमा राजा को मारती है।79। पाद रहित प्रतिमा प्रजा का तथा कटिहीन प्रतिमा वाहन का नाश करती है। ऐसा जानकर जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा दोषहीन बनानी चाहिए।80।
- पांचों परमेष्ठियों की प्रतिमा बनाने का निर्देश
भ.आ./वि./46/154/4 कस्य। प्रत्यासत्ते: श्रुतयोरेवार्हत्सिद्धयो: प्रतिबिम्बग्रहणं। अथवा मध्यप्रक्षेप: पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिग्रहार्थस्तेन साध्वादिस्थापनापि गृह्यते। =प्रश्न–प्रतिबिम्ब किसका होता है? उत्तर–प्रस्तुत प्रसंग में अर्हंत् और सिद्धों के प्रतिमाओं का ग्रहण समझना चाहिए। अथवा यह मध्य प्रक्षेप है, इसलिए पूर्व विषयक और उत्तर विषयक स्थापना का यहां ग्रहण होता है। अर्थात् पूर्व विषय तो अर्हत और सिद्ध है ही और उत्तर विषय (इस प्रकरण में आगे कहे जाने वाले विषय) श्रुत, शास्त्र, धर्म, साधु, परमेष्ठी, आचार्य, उपाध्याय वगैरह है। इनका भी यहां संग्रह होने से, इनकी भी प्रतिमाएं स्थापना होती है।
- <a name="1.6" id="1.6"></a>पांचों परमेष्ठियों की प्रतिमाओं में अन्तर
वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि.4/69-70 प्रातिहार्याष्टकोपेतं संपूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धाङ्गं कारयेद्विम्बमर्हत:।69। प्रातिहार्यैर्विना शुद्धं सिद्धबिम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् । =आठ प्रातिहार्यों से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवों वाली, वीतरागता के भाव से पूर्ण अर्हन्त की प्रतिबिम्ब करनी चाहिए।69। प्रातिहार्यों से रहित सिद्धों की शुभ प्रतिमा होती है। आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओं की प्रतिमाएं भी आगम के अनुसार बनानी चाहिए।70। (वरहस्त सहित आचार्य की, शास्त्रसहित उपाध्याय की तथा केवल पिच्छी कमण्डलु सहित साधु की प्रतिमा होती है। शेष कोई भेद नहीं है)।
- <a name="1.7" id="1.7"></a>शरीर रहित सिद्धों की प्रतिमा कैसे सम्भव है
भ.आ./वि./46/153/19 ननु सशरीरस्थात्मन: प्रतिबिम्बं युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मनां सिद्धानां कथं प्रतिबिम्बसंभव:। पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया...शरीरसंस्थानवच्चिदात्मापि संस्थानवानेव संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स एव चायं प्रतिपत्रसम्यक्त्वाद्यगुण इति स्थापनासंभव:। =प्रश्न–शरीरसहित आत्मा का प्रतिबिम्ब मानना तो योग्य है, परन्तु शरीर रहित शुद्धात्मस्वरूप सिद्धों की प्रतिमा मानना कैसे सम्भव है ? उत्तर–पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा से सिद्धों की प्रतिमाएं स्थापना कर सकते हैं, क्योंकि जो अब सिद्ध हैं वही पहले सयोगी अवस्था में शरीर सहित थे। दूसरी बात यह है कि जैसी शरीर की आकृति रहती है वैसी ही चिदात्मा सिद्ध की भी आकृति रहती है। इसलिए शरीर के समान सिद्ध भी संस्थावान् हैं। अत: सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से विराजमान सिद्धों की स्थापना सम्भव है।
- <a name="1.8" id="1.8"></a>दिगम्बर ही प्रतिमा पूज्य है
चैत्यभक्ति/32 निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदयान्निरम्बरमनोहर प्रकृतिरूपनिर्दोषत:। निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमान्निरामिषसुतृप्तिं द्विविधवेदनानां क्षयात् ।32। =हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपका रूप राग के आवेग के उदय के नष्ट हो जाने से आभरण रहित होने पर भी भासुर रूप है; आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिए वस्त्ररहित नग्न होने पर भी मनोहर है; आपका यह रूप न औरों के द्वारा हिंस्य है और न औरों का हिंसक है, इसलिए आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है; तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओं के विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है।
बो.पा./टी./10/78/18 स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या। या परकीया प्रतिमा सा हेया न वन्दनीया। अथवा सपरा-स्वकीयशासनेऽपि या प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा वन्दनीया न तु अनुत्कृष्टा। का उत्कृष्टा का वानुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते या पञ्चजैनाभासैरञ्जलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चर्चनीया च। या तु जैनाभासरहितै: साक्षादार्हत्संघै: प्रतिष्ठिता चक्षु:स्तनादिषु विकाररहिता समुपन्यस्ता सा वन्दनीया। तथा चोक्तम् इन्द्रनन्दिनं भट्टारकेण–चतु:संघसंहिताया जैनं बिंबं प्रतिष्ठितं। नमेन्नापरसंघाया यतो न्यासविपर्यय:।1। =स्वकीय शासन की प्रतिमा ही उपादेय है और परकीय प्रतिमा हेय है, वन्दनीय नहीं है। अथवा स्वकीय शासन में भी उत्कृष्ट प्रतिमा वन्दनीय है अनुत्कृष्ट नहीं। प्रश्न–उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रतिमा क्या ? उत्तर–पंच जैनाभासों के द्वारा प्रतिष्ठित अंजलिका रहित तथा नग्न भी मूर्ति वन्दनीय नहीं है। जैनाभासों से रहित साक्षात् आर्हत संघों के द्वारा प्रतिष्ठित तथा चक्षु व स्तन आदि विकारों से रहित प्रतिमा ही वन्दनीय है। इन्द्रनन्दि भट्टारक ने भी कहा है–नन्दिसंघ, सेनसंघ, देवसंघ और सिंहसंघ इन चार संघों के द्वारा प्रतिष्ठित जिनबिंब ही नमस्कार की जाने योग्य है, दूसरे संघों के द्वारा प्रतिष्ठित नहीं, क्योंकि वे न्याय व नियम से विरुद्ध हैं।
- <a name="1.9" id="1.9"></a>रंगीन अंगोपांगों सहित प्रतिमाओं का निर्देश
ति.प./4/1872-1874 भिण्णिंदणीलमरगयकुंतलभूवग्गदिण्णसोहाओ। फलिहिंदणीलणिम्मिदधवलासिदणेत्तजुयलाओ।1872। वज्जमयदंतपंतीपहाओ पल्लवसरिच्छअधराओ। हीरमयवरणहाओ पउमारुणपाणिचरणाओ।1873। अट्ठब्भहियसहस्सप्पमाणवंजणसमूहसहिदाओ। वत्तीसलक्खणेहिं जुत्ताओ जिणेसपडिमाओ।1874। =(पाण्डुक वन में स्थित) ये जिनेन्द्र प्रतिमाएं भिन्नइन्द्रनीलमणि व मरकतमणिमय कुंतल तथा भृकुटियों के अग्रभाग से शोभा को प्रदान करने वाली, स्फटिक व इन्द्रनीलमणि से निर्मित धवल व कृष्ण नेत्र युगल से सहित, वज्रमय दन्तपंक्ति की प्रभा से संयुक्त, पल्लव के सदृश अधरोष्ठ से सुशोभित, हीरे से निर्मित उत्तम नखों से विभूषित, कमल के समान लाल हाथ पैरों से विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजनसमूहों से सहित और बत्तीस लक्षणों से युक्त हैं। (त्रि.सा./985)
रा.वा./3/10/13/178/34 कनकमयदेहास्तपनीयहस्तपादतलतालुजिह्वालोहिताक्षमणिपरिक्षिप्ताङ्कस्फटिकमणिनयना अरिष्टमणिमयनयनतारकारजतमयदन्तपङ्क्तय: विद्रुमच्छायाधरपुटा अञ्जनमूलमणिमयाक्षपक्ष्मभ्रूलता नीलमणिविरचितासिताञ्चिकेशा: ...भव्यजनस्तवनवन्दनपूजनाद्यर्हा अर्हत्प्रतिमा अनाद्यनिधना ...। (सुमेरु पर्वत के भद्रशाल वन में स्थित चार चैत्यालयों में स्थित जिनप्रतिमाओं) की देह कनकमयी है; हाथ-पांव के तलवे-तालु व जिह्वा तपे हुए सोने के समान लाल हैं; लोहिताक्ष मणि अंकमणि व स्फटिकमणिमयी आंखें हैं; अरिष्टमणिमयी आंखों के तारे हैं; रजतमयी दन्तपंक्ति हैं; विद्रुममणिमयी होंठ हैं; अंजनमूल मणिमयी आंखों की पलकें व भ्रूलता है; नीलमणि रचित सर के केश हैं। ऐसी अनादिनिधन तथा भव्यजनों के स्तवन, वन्दन, पूजनादि के योग्य अर्हत्प्रतिमा है।
- <a name="1.10" id="1.10"></a>सिंहासन व यक्षों आदि सहित प्रतिमाओं का निर्देश
ति.प./3/52 सिंहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्खमिहुणजुदा। णाणाविहरयणमया जिणपडिमा तेसु भवणेसुं।52। उन (भवनवासी देवों के) भवनों में सिंहासनादिक से सहित, हाथ में चमर लिये हुए नागयक्षयुगल से युक्त और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, ऐसी जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। (रा.वा./3/10/13/179/2); (ह.पु./5/363); (त्रि.सा./986-987)
- प्रतिमाओं के पास में अष्ट मंगल द्रव्य तथा 108 उपकरण रहने का निर्देश
ति.प./4/1879-1880 ते सव्वे उवयरणा घंटापहुदीओ तह य दिव्वाणिं। मंगलदव्वाणि पुढं जिणिंदपासेसु रेहंति।1879। भिंगारकलसदप्पणचामरधयवियणछत्तसुपयट्ठा। अट्ठुत्तरसयसंखा पत्तेकं मंगला तेसुं।1880। =घंटा प्रभृति वे सब उपकरण तथा दिव्य मंगल द्रव्य पृथक्-पृथक् जिनेन्द्रप्रतिमाओं के पास में सुशोभित होते हैं।1879। भृंगार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ–ये आठ मंगल द्रव्य हैं, इनमें से प्रत्येक वहां 108 होते हैं।1880। (ज.प./13/112–अर्हंत के प्रकरण में मंगलद्रव्य); (त्रि.सा./989); (द.पा./टी./35/29/5) अर्हंत के प्रकरण में अष्टद्रव्य।
ह.पु./5/364-365 भृंगारकलशादर्शपात्रीशङ्का: समुद्गका:। पालिकाधूपनीदीपकूर्चा: पाटलिकादय:।364। अष्टोत्तरशतं पे ति कंसतालनकादय:। परिवारोऽत्र विज्ञेय: प्रतिमानां यथायथम् ।635। =झारी, कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्च, पाटलिका आदि तथा झांझ, मजीरा आदि 108 उपकरण प्रतिमाओं के परिवारस्वरूप जानना चाहिए, अर्थात् ये सब उनके समीप यथा योग्य विद्यमान रहते हैं।
- प्रतिमाओं के लक्षणों की सार्थकता
ध.9/4,1,44/107/4 कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमवगम्मदे। उच्चदे–णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह-जाइ-जरा-मरण-भय-हिंसाभावं, णिप्फंदक्खेक्खणादो जाणाविदतिवेदोदयाभावं। णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभावं, भिउडिविरहादो जाणाविदकोहाभावं। वग्गण-णच्चण-हसण-फोडणक्खसुत्त-जडा-मउड-णरसिरमालाधरणविरहादो मोहाभावलिंगं। णिरंबरत्तादो लोहाभावलिंगं। ...अग्गि-विसासणि-वज्जाउहादीहि बाहाभावादो घाइकम्माभावलिंगं।...वलियावलोयणाभावादो सगासेसजीवपदेसट्ठियणाण-दंसणावरणाणं णिस्सेसाभावलिंगं। ...आगासगमणेण पहापरिवेढेण तिहुवणभवणविसारिणा ससुरहिसांधेण च जाणाविदअमाणुसभावं। ...तदो एदं सरीरं राग-दोस-मोहाभावं जाणावेदि। =प्रश्न–इस (भगवान् महावीर के) शरीर से ग्रन्थ की प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? उत्तर–- निरायुध होने से क्रोध मान माया लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसा के अभाव का सूचक है।
- स्पन्दरहित नेत्र दृष्टि होने से तीनों वेदों के उदय के अभाव का ज्ञापक है।
- निराभरण होने से राग का अभाव।
- भृकुटिरहित होने से क्रोध का अभाव।
- गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटामुकुट और नरमुण्डमाला को न धारण करने से मोह का अभाव।
- वस्त्ररहित होने से लोभ का अभाव।
- अग्नि, विष, अशनि और वज्रायुधादिकों से बाधा न होने के कारण घातिया कर्मों का अभाव।
- कुटिल अवलोकन के अभाव से ज्ञानावरण व दर्शनावरण का पूर्ण अभाव।
- गमन, प्रभामण्डल, त्रिलोकव्यापी सुरभि से अमानुषता। इस कारण यह शरीर राग-द्वेष एवं मोह के अभाव का ज्ञापक है। (इस वीतरागता से ही उनकी सत्य भाषा व प्रामाणिकता सिद्ध होती है)।
- अन्य सम्बन्धी विषय
- प्रतिमा में देवत्व–देखें देव - I.1.3
- देव प्रतिमा में नहीं हृदय में है–देखें पूजा - 3
- प्रतिमा की पूजा का निर्देश–देखें पूजा - 3
- जटा सहित प्रतिमा का निर्देश–देखें केशलौंच - 4
- प्रतिमा में देवत्व–देखें देव - I.1.3
- निश्चय स्थावर जंगम चैत्य प्रतिमा निर्देश
- चैत्यालय निर्देश
- निश्चय व्यवहार चैत्यालय निर्देश
बो.पा./मू./8/9 बुद्धं चं बोहंतो अप्पाणं चेतयाइं अण्णं च। पंचमहब्बयसुद्धं णाणमयं जाण चेइहरं/8/चेइहंर जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं।9।
बो.पा./टी./8/76/13 कर्मतापन्नानि भव्यजीववृन्दानि बोधयन्तमात्मान चैत्यगृहं निश्चयचैत्यालयं हे जीव ! त्वं जानीहि निश्चयं कुरु। ...व्यवहारनयेन निश्चयचैत्यालयप्राप्तिकारणभूतेनान्यच्च दृषदिष्टकाकाष्टादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं। =स्व व पर की आत्मा को जानने वाला ज्ञानी आत्मा जिसमें बसता हो ऐसा पंचमहाव्रत संयुक्त मुनि चैत्यगृह है।8। जिनमार्ग में चैत्यगृह षट्काय जीवों का हित करने वाला कहा गया है।9। कर्मबद्ध भव्यजीवों के समूह को जानने वाला आत्मा निश्चय से चैत्यगृह या चैत्यालय है तथा व्यवहार नय से निश्चय चैत्यालय के प्राप्ति का कारणभूत अन्य जो इ ट, पत्थर व काष्टादि से बनाये जाते हैं तथा जिनमें भगवत् सर्वज्ञ वीतराग की प्रतिमा रहती है वह चैत्यागृह है।
- चैत्यालय में देवत्व–देखें देव - I.1.3
- भवनवासी देवों के चैत्यालयों का स्वरूप
ति.प./3/गा.नं./भावार्थ–सर्व जिनालयों में चार चार गोपुरों से युक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथी (मार्ग) में एक में एक मानस्तम्भ व नौ स्तूप तथा (कोटों के अन्तराल में) क्रम से वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि होती है।44। वन भूमि में चैत्यवृक्ष है।45। ध्वज भूमि में गज आदि चिन्हों युक्त 8 महा ध्वजाएं है। एक एक महाध्वजा के आश्रित 108 क्षुद्र ध्वजाएं।64। जिनमन्दिरों में देवच्छन्द के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वान्ह तथा सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां एवं आठ मंगल द्रव्य होते हैं।48। उन भवनों में सिंहासनादि से सहित हाथ में चंवर लिये हुए नाग यक्ष युगल से युक्त और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित ऐसी जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं।52।
- व्यंतर देवों के चैत्यालयों का स्वरूप
ति.प./6/गा.नं./सारार्थ–प्रत्येक जिनेन्द्र प्रासाद आठ मंगल द्रव्यों से युक्त है।13। ये दुंदुभी आदि से मुखरित रहते हैं।14। इनमें सिंहासनादि सहित, प्रातिहार्यों सहित, हाथ में चंवर लिये हुए नाग यक्ष देवयुगलों से संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनप्रतिमाएं हैं।15।
ति.प./5/गा.नं./सारार्थ–प्रत्येक भवन में 6 मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल में राजांगण के मध्य (मुख्य) प्रासाद के उत्तर भाग में सुधर्मा सभा है। इसके उत्तरभाग में जिनभवन है।190-200। देव नगरियों के बाहर पूर्वादि दिशाओं में चार वन खण्ड हैं। प्रत्येक में एक-एक चैत्य वृक्ष है। इस चैत्यवृक्ष की चारों दिशाओं में चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं।230।
ति.प./8/गा.नं./सारार्थ–समस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्याग्रोध वृक्ष होते हैं, इनमें एक-एक वृक्ष पृथिवी स्वरूप व पूर्वोक्त जम्बू वृक्ष के सदृश होते हैं।405। इनके मूल में प्रत्येक दिशा में एक एक जिन प्रतिमा होती है।406। सौधर्म मन्दिर की ईशान दिशा में सुधर्मा सभा है।407। उसके भी ईशान दिशा में उपपाद सभा है।410। उसी दिशा में पाण्डुक वन सम्बन्धी जिनभवन के सदृश उत्तम रत्नमय जिनेन्द्रप्रासाद है।411।
- <a name="2.4" id="2.4"></a>पांडुक वन के चैत्यालय का स्वरूप
ह.पु./5/366-372 का संक्षेपार्थ–यह चैत्यालय झरोखा, जाली, झालर, मणि व घंटियों आदि से सुशोभित है। प्रत्येक जिनमन्दिर का एक उन्नत प्राकार (परकोटा) है। उसकी चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार हैं। चैत्यालय की दशों दिशाओं में 108, 108 इस प्रकार कुल 1080 ध्वजाएं हैं। ये ध्वजाएं सिंह, हंस आदि दश प्रकार के चिन्हों से चिन्हित हैं। चैत्यालयों के सामने एक विशाल सभा मण्डप (सुधर्मा सभा) है। आगे नृत्य मण्डप है। उनके आगे स्तूप हैं। उनके आगे चैत्य वृक्ष है। चैत्य वृक्ष के नीचे एक महामनोज्ञ पर्यंक आसन प्रतिमा विद्यमान है। चैत्यालय से पूर्व दिशा में जलचर जीवों रहित सरोवर है। (ति.प./4/1855-1935); (रा.वा./3/10/13/178/25); (ज.प./4/49-53,66); (ज.प./5/1/56), (त्रि.सा./983-1000)।
- मध्य लोक के अन्य चैत्यालयों का स्वरूप
ज.प./5/गा.नं.का संक्षेपार्थ–जम्बूद्वीप के सुमेरु सम्बन्धी जिनभवनों के समान ही अन्य चार मेरुओं के, कुलपर्वतों के, वक्षार पर्वतों के तथा नन्दन वनों के जिनभवनों का स्वरूप जानना चाहिए।89-90। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीप में, कुण्डलवर द्वीप में और मानुषोत्तर पर्वत व रुचक पर्वत पर भी जिनभवन हैं। भद्रशाल वनवाले जिनभवन के समान ही उनका तथा नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वनों के जिनभवनों का वर्णन जानना चाहिए।120-123।
- जिन भवनों में रति व कामदेव की मूर्तियां तथा उनका प्रयोजन
ह.पु./29/2-5 अत्रैव कामदेवस्य रतेश्च प्रतिमां व्यघात् । जिनागारे समस्ताया: प्रजाया: कौतुकाय स:।2। कामदेवरतिप्रेक्षाकौतुकेन जगज्जना:। जिनायतनमागत्य प्रेक्ष्य तत्प्रतिमाद्वयम् ।3। संविधानकमाकर्ण्य तद् भाद्रकमृगध्वजम् । बहव: प्रतिपद्यन्ते जिनधर्ममहर्दिवम् ।4। प्रसिद्धं गृहं जैनं कामदेवगृहाख्यया। कौतुकागतलोकस्य जातं जिनमताप्तये।5। =सेठ ने इसी मन्दिर में समस्त प्रजा के कौतुक के लिए कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी।2। कामदेव और रति को देखने के लिए कौतूहल से जगत् के लोग जिनमन्दिर में आते हैं और वहां स्थापित दोनों प्रतिमाओं को देखकर मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त सुनते हैं, जिससे अनेकों पुरुष प्रतिदिन जिनधर्म को प्राप्त होते हैं।3-4। यह जिनमन्दिर कामदेव के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। और कौतुकवश आये हुए लोगों के जिनधर्म की प्राप्ति का कारण है।5।
- <a name="2.7" id="2.7"></a>चैत्यालयों में पुष्पवाटिकाएं लगाने का विधान
ति.प./4/157-159 का संक्षेपार्थ–उज्जाणेहि सोहदि विविहेहिं जिणिंदपासादो।157। तस्सिं जिणिंदपडिमा ...।159। =(भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर स्थित) जिनेन्द्र प्रासाद विविध प्रकार के उद्यानों से शोभायमान है।157। उस जिनमन्दिर में जिनप्रतिमा विराजमान है।159।
सा.ध./2/40 सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनुजिघृक्षया। चिकित्साशालवदुष्येन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि।40। =पाक्षिक श्रावकों को जीव दया के कारण औषधालय खोलना चाहिए, उसी प्रकार सदाव्रत शालाएं व प्याऊ खोलनी चाहिए और जिनपूजा के लिए पुष्पवाटिकाएं बावड़ी व सरोवर आदि बनवाने में भी हर्ज नहीं है।
- निश्चय व्यवहार चैत्यालय निर्देश
- चैत्यालयों का लोक में अवस्थान, उनकी संख्या व विस्तार
- देव भवनों में चैत्यालयों का अवस्थान व प्रमाण
ति.प./अधि./गा.नं.संक्षेपार्थ–भवनवासीदेवों के 7,72000,00 भवनों की वेदियों के मध्य में स्थित प्रत्येक कूट पर एक एक जिनेन्द्र भवन है।(3/43) (त्रि.सा./208) रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित व्यन्तरदेवों के 30,000 भवनों के मध्य वेदी के ऊपर स्थित कूटों पर जिनेन्द्र प्रासाद हैं (6/12)। जम्बूद्वीप में विजय आदि देवों के भवन जिनभवनों से विभूषित हैं (5/181)। हिमवान पर्वत के 10 कूटों पर व्यन्तरदेवों के नगर हैं, इनमें जिनभवन हैं (4/1657)। पद्म ह्रद में कमल पुष्पों पर जितने देवों के भवन कहे हैं उतने ही वहीं जिनगृह है (4/1692)। महाह्रद में जितने ह्री देवी के प्रासाद हैं उतने ही जिनभवन हैं (4/1729)। लवण समुद्र में 72000+42000+28000 व्यंतर नगरियां है। उनमें जिनमन्दिर हैं (4/2455)। जगत्प्रतर के संख्यात भाग में 300 योजनों के वर्ग का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर लोक में जिनपुरों का प्रमाण है (6/102)। व्यंतर देवों के भवनों आदि का अवस्थान व प्रमाण–(देखें व्यंतर - 4)। ज्योतिष देवों में प्रत्येक चन्द्र विमान में (7/42); प्रत्येक सूर्यविमान में (7/71); प्रत्येक ग्रह विमान में (7/87); प्रत्येक नक्षत्र विमान में (7/106); प्रत्येक तारा विमान में (7/113); राहु के विमान में (7/204); केतु विमान में (7/275) जिनभवन स्थित हैं। इन चन्द्रादिकों की निज निज राशि का जो प्रमाण है उतना ही अपने-अपने नगरों व जिन भवनों का प्रमाण है (7/114)। इस प्रकार ज्योतिष लोक में असंख्यात चैत्यालय हैं। चन्द्रादिकों के विमानों का प्रमाण–(देखें ज्योतिष - 1.2.4)। कल्पवासी समस्त इन्द्र भवनों में जिनमन्दिर हैं (8/405-411) (त्रि.सा./502-503) कल्पवासी इन्द्रों व देवों आदि का प्रमाण व अवस्थान–देखें स्वर्ग - 5।
- <a name="3.2" id="3.2"></a>मध्य लोक में चैत्यालयों का अवस्थान व प्रमाण
ति.प./4/2392-2393 कुंडवणसंडसरियासुरणयरीसेलतोरणद्दारा। विज्जाहरवरसेढीणयरज्जाखंडणयरीओ।2392। दहपंचपुव्वावरविदेहगामादिसम्मलीरुक्खा। जेत्तिय मेत्ता जंबूरुक्खाइं य तेत्तिया जिणणिकेदा।2393।=कुण्ड, वन समूह, नदियां, देव नगरियां, पर्वत, तोरणद्वार, विद्याधर श्रेणियों के नगर, आर्यखण्ड की नगरियां, द्रह पंचक, पूर्वा पर विदेहों के ग्रामादि, शाल्मलीवृक्ष और जम्बूवृक्ष जितने हैं उतने ही जिनभवन भी हैं।2392-2393। विशेषार्थ–जम्बूद्वीप में कुण्ड=90; नदी=1792090; देव नगरियां=असंख्यात; पर्वत=311; विद्याधर श्रेणियों के नगर=3740; आर्यखण्ड की प्रधान नगरियां=34; द्रह=26; पूर्वा पर विदेहों के ग्रामादि=संख्यात; शाल्मली व जम्बू वृक्ष=2 कुल प्रमाण=1796293+संख्यात+असंख्यात। धातकी व पुष्करार्ध द्वीप के सर्व मिलकर उपरोक्त से पंचगुणे अर्थात् = 8981465+संख्यात+असंख्यात। नन्दीश्वर द्वीप में 52, रुचकवर द्वीप में 4 और कुण्डलवर द्वीप में 4। इस प्रकार कुल 8981525 + संख्यात + असंख्यात चैत्यालय हैं। विशेष–देखें लोक - 3,4। सुमेरु के 16 चैत्यालय–देखें लोक - 3/6,4।
त्रि.सा./561-562 णमह णरलीयजिणधर चत्तारि सयाणि दोविहीणाणि। बावण्णं चउचउरो णंदीसुर कुंडले रुचगे।561। मंदरकुलवक्खारिसुमणुवुत्तररुप्यजंबुसामलिसु। सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं।562। =मनुष्य लोकविषै 398 जिनमन्दिर हैं–नन्दीश्वर द्वीप में 52; कुण्डलगिरि पर 4; रुचकगिरि पर 4; पांचों मेरु पर 80; तीस कुलाचलों पर 30; बीस गजदन्तों पर 20; अस्सी वक्षारों पर 80; चार इष्वाकारों पर 4; मानुषोत्तर पर 4; एक सौ सत्तर विजयार्धों पर 170; जम्बू वृक्ष पर 5; और शाल्मली वृक्ष पर 5। कुल मिलाकर 398 होते हैं।
- अकृत्रिम चैत्यालयों के व्यासादिका निर्देश
त्रि.सा./978-982 आयमदलं वासं उभयदलं जिणघराणमुच्चत। दारुदयदलंवासं आणिद्दाराणि तस्सद्धं।978। वरमज्झिमअवराणं दलक्कयं भद्दसालणंदणगा। णंदीसरगविमाणगजिणालया होंति जेट्ठा दु।971। सोमणसरुचगकुंडलक्खारिसुगारमाणुसुत्तुरगा। कुलगिरिजा वि य मज्झिम जिणालया पांडुगा अवरा।980। जोयणसयआयाम दलगाढं सोलसं तु दारुदयं। जेट्ठाणं गिहपासे आणिद्दाराणि दो दो दु।981। वेयड्ढजंबुसामलिजिणभवणाणं तु कोस आयामं। सेसाणं सगजोग्गं आयामं होदि जिणदिट्ठं।982।
ति.प./4/1710 उच्छेहप्पहुदीसुं संपहि अम्हाण णत्थि उवदेसो।
- <a name="3.3.1" id="3.3.1"></a>सामान्य निर्देश
उत्कृष्टादि चैत्यालयों का जो आयाम, ताका आधा तिनिका व्यास है और दोनों (आयाम व व्यास) को मिलाय ताका आधा उनका उच्चत्व है।978। उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य चैत्यालयनिका व्यासादिक क्रम तै आधा आधा जानहु।979। उत्कृष्ट जिनालयनिका आयाम 100 योजन प्रमाण है, आध योजन अवगाध कहिये पृथिवी माहीं नींव है। 16 योजन उनके द्वारों का उच्चत्व है।981। =अकृत्रिम चैत्यालयों को विस्तार की अपेक्षा तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है–उत्कृष्ट, मध्य व जघन्य। उनकी लम्बाई चौड़ाई व ऊंचाई क्रम से निम्न प्रकार बतायी गयी है–
- <a name="3.3.1" id="3.3.1"></a>सामान्य निर्देश
- देव भवनों में चैत्यालयों का अवस्थान व प्रमाण
उत्कृष्ट= |
100 योजन×50 योजन×75 योजन। |
मध्यम= |
50 योजन×25 योजन×37 <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0079.gif" alt="" width="7" height="30" /> योजन। |
जघन्य= |
25 योजन×12 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0039.gif" alt="" width="6" height="30" /> योजन×18<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0016.gif" alt="" width="6" height="30" /> योजन। |
चैत्यालयों के द्वारों की ऊंचाई व चौड़ाई–
उत्कृष्ट= |
16 योजन × 8 योजन |
मध्यम= |
8 योजन × 4 योजन |
जघन्य= |
4 योजन × 2 योजन |
चैत्यालयों की नींव–
उत्कृष्ट × 2 कोश, मध्यम=1 कोश; जघन्य = <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0040.gif" alt="" width="6" height="30" /> । |
- <a name="3.3.2" id="3.3.2"></a>देवों के चैत्यालयों का विस्तार
वैमानिक देवों के विमानों में तथा द्वीपों में स्थित व्यंतरों के आवासों आदि में प्राप्त जिनालय उत्कृष्ट विस्तार वाले हैं।979।
- जम्बूद्वीप के चैत्यालयों का विस्तार
नन्दनवनस्थ भद्रशालवन के चैत्यालय= |
उत्कृष्ट |
सौमनस वन चैत्यालय= |
मध्यम |
कुलाचल व वक्षार गिरि= |
मध्यम |
पाण्डुक वन= |
जघन्य |
विजयार्ध पर्वत तथा जम्बू व शाल्मली वृक्ष के चैत्यालयों का विस्तार= |
1 कोश× <img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0017.gif" alt="" width="9" height="30" /> कोश×<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0017.gif" alt="" width="6" height="30" /> कोश (ह.पु./5/354-359); (ज.प./5/5,64,65); (ज.प./5/6) (त्रि.सा./979-981)। |
गजदन्त व यमक पर्वत के चैत्यालय=जघन्य (ति.प./4/2041-2087) |
|
दिग्गजेन्द्र पर स्थित चैत्यालय (ति.प./4/2110)= उत्कृष्ट |
- <a name="3.3.4" id="3.3.4"></a>धातकी खण्ड व पुष्करार्ध द्वीप के चैत्यालय
इष्वाकार पर्वत के चैत्यालय (त्रि.सा./980) = |
मध्यम |
शेष सर्व चैत्यालय= |
जम्बूद्वीप में कथित उस उस चैत्यालय से दूना विस्तार (ह.पू./5/508-511)। |
मानुषोत्तर पर्वत के चैत्यालय (त्रि.सा./980)= |
मध्यम। |
- <a name="3.3.5" id="3.3.5"></a>नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालयों का विस्तार
अञ्जनगिरि, रतिकर व दधिमुख तीनों के चैत्यालय= |
उत्कृष्ट (ह.पु./5/677); (ति.सा./979)। |
- कुण्डलवर पर्वत व रुचकवर पर्वत के चैत्यालय = उत्कृष्ट (त्रि.सा./980) (ह.पु./5/696,728)।