परिहारविशुद्धि
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
परिहार विशुद्धि अत्यन्त निर्मल चारित्र है जो अत्यन्त धीर व उच्चदर्शी साधुओं को ही प्राप्त होता है।
- परिहारविशुद्धि चारित्र का लक्षण
स.सि./9/18/436/7 परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिः। तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिचारित्रम्। = प्राणिवध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। इस युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। (रा.वा./9/18/8/617/16) (त.सा./6/47); (चा.सा./83/5); (गो.क./प्र./547/714/7)।
पं.सं./प्रा./1/131 पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जोहु सावज्जं। पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साहू। 131। = पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योग का परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद संयम (छेदोपस्थापना) को अथवा एक यमरूप अभेद संयम (सामायिक) को धारण करना परिहार विशुद्धि संयम है, और उसका धारक साधु परिहार विशुद्धि संयत कहलाता है। (ध./1/1,1,123/गा. 189/372); (गो.जी./मू.471); (पं.सं./1/241)।
यो.सा.यो./102 मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मद्दंसण-सुद्धि। सो परिहारविसुद्धि मुणि लहु पावहि सिव-सिद्धि। 102। = मिथ्यात्व आदि के परिहार से जो सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि समझो, उससे जीव शीघ्र मोक्ष-सिद्धि को प्राप्त करता है। 102।
ध.1/1,1,123/370/8 परिहारप्रधानः शुद्धिसंयतः परिहारशुद्धिसंयतः। = जिसके (हिंसा का) परिहार ही प्रधान है ऐसे शुद्धि प्राप्त संयतों को परिहार-शुद्धि-संयत कहते हैं।
द्र.सं/टी./35/148/3 मिथ्यात्वरागादिविकल्पमालानां प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिर्नैर्मल्यपरिहारविशुद्धिश्चारित्रमिति। = मिथ्यात्व रागादि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके विशेषरूप से जो आत्मशुद्धि अथवा निर्मलता, सो परिहार विशुद्धि चारित्र है।
- परिहारविशुद्धि संयम विधि
भ.आ./वि./155/354/29 जिनकल्पस्यासमर्थाः... कल्पस्थितमाचायमुक्त्वा... परिहारसंयमं गृहन्ति इति परिहारिका भण्यन्ते। शेषास्तेपामनुहारिकाः।... वसितामाहारं च मुक्त्वा नान्यद्गृह्णन्ति...। संयमाथ प्रतिलेखनं गृह्णन्ति।...चतुर्विधानुपसर्गान्स्हन्ते। दृढध्तयो निरन्तरं ध्यानावहितचित्ता। ...त्रयः, पश्च, सप्त, नव वैषणां निर्यान्ति। रोगेण वदनयोपद्रुताश्च तत्प्रतिकारं व न कुर्वन्ति।... स्वाध्यायकालप्रतिलेखनादिकाश्च क्रिया न सन्ति तेषां। ...श्मशानमध्येऽपि तेषां न ध्यानं प्रतिषिद्धं। आवश्यकानि यथाकालं कुर्वन्ति। ...अनुज्ञाप्य देवकुलादिषु वसन्ति। ...असीधिकां च निषीधिकां च निष्क्रमणे प्रवेशे च संपादयन्ति। निर्देशकं मुक्त्वा इतरे दशविधे समाचारे वर्तन्ते। उपकरणादिदानं, ग्रहणं, अनुपालनं, विनयो, वंदना सल्लापश्च न तेषामस्ति संघेन सह। ...तेषां... परस्परेणास्ति संभोगः। ...मौनाभिग्रहरतास्तिस्रो भाषाः मुक्त्वा प्रष्टव्याहृतिमनुज्ञाकरणीं प्रश्ने च प्रवृत्तां च मार्गस्य शंकितस्य वा योग्यायोग्यत्वेन शय्याधरगृहस्य, वसतिस्वामिनो वा प्रश्नः। ...व्याव्रादि... कण्टकादिविद्धे स्वयं न निराकुर्वन्ति। परे यदि निराकुर्युस्तूष्णीमवतिष्ठन्ते। तृतीययामं एव नियोगतो भिक्षाथ गच्छन्ति। यत्र क्षेत्रे षटगाचर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तत्क्षेत्रमात्रासप्रयोग्यं शेषमयाग्येमिति वर्जयन्ति। = जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ चार या पाँच साधुसंघ में परिहारविशुद्धि संयम धारण करते हैं। उनमें भी एक आचार्य कहलाता है। शेष में जो पीछे से धारण करते हैं उन्हें अनुपहारक कहते हैं। ये साधु वस्तिका, आहार, संस्तर, पीछी व कमण्डल के अतिरिक्त अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं करते। धैर्य पूर्वक उपसर्ग सहते हैं। वेदना आदि आने पर भी उसका प्रतिकार नहीं करते। निरन्तर ध्यान व स्वाध्याय में मग्न रहते हैं। श्मशान में भी ध्यान करने का इनको निषेध नहीं। यथाकाल आवश्यक क्रियाएँ करते हैं। शरीर के अंगों को पीछी से पोंछने की क्रिया नहीं करते। वस्तिका के लिए उसके स्वामी से अनुज्ञा लेता तथा निःसही असही के नियमों को पालता है। निर्देश को छोड़कर समस्त समाचारों को पालता है। अपने साधर्मी के अतिरिक्त अन्य सबके साथ आदान, प्रदान, वन्दन, अनुभाषण आदि समस्त व्यवहारों का त्याग करते हैं। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित परिहार संयमी उन व्यवहारों का त्याग नहीं करते। धर्मकार्य में आचार्य से अनुज्ञा लेना, विहार में मार्ग पूछना, वस्तिका के स्वामी से आज्ञा लेना, योग्य अयोग्य उपकरणों के लिए निर्णय करना, तथा किसी का सन्देह दूर करने के लिए उत्तर देना, इन कायो के अतिरिक्त वे मौन से रहते हैं, उपसर्ग आने पर स्वयं दूर करने का प्रयत्न नहीं करते, यदि दूसरा दूर करे तो मौन रहते हैं। तीसरे पहर भिक्षा को जाते हैं। जहाँ छह भिक्षाएँ अपुनरुक्त मिल सकें ऐसे स्थान में रहना ही योग्य समझते हैं। ये छेदोपस्थापना चारित्र के धारी होते हैं।
- गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व
ष.खं.1/1,1/सू. 126/375 परिहार-सुद्धि-संजदा दोसु ट्ठाणेसु पमत्तसंजद-ट्ठाणे अप्पमत्त-संजद-ट्ठाणे। 126। = परिहार-शुद्धि-संयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में ही होते हैं। 126। (द्र.सं./टी./35/148/2); (गो.जी./मू./467, 689)।
- उत्कृष्ट व जघन्य स्थानों का स्वामित्व
ध.7/2,11,169/566/1 एसा परिहारसुद्धिसजमलद्धी जहण्णिया कस्स होदि। सव्वसंकिलिट्ठस्स सामाइयछेदोवट्ठावणाभिमुहचरिम-समयपरिहारसुद्धिसंजस्स। = यह जघन्य परिहारशुद्धि संयमलब्धि सर्व संक्लिष्ट सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धि संयम के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती परिहार शुद्धि संयत के होती है।
- परिहार संयम धारण में आयु सम्बन्धी नियम
ध.5/1/8/271/327/10 तीसं वासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य संभवाभावा। = तीस वर्ष के बिना परिहार विशुद्धि संयम का होना संभव नहीं है। (गो.जी./मू./473/881)।
ध.7/2,2,149/167/8 तीसं वस्साणि गमिय तदो वासपुधत्तेण तित्थयरपादमूले पच्चक्खाणणामधेयपुव्वं पढिदूण पुणो पच्छा परिहारसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय देसूणपुव्वकोडिकालमच्छिदूण देवेसुप्पण्णस्स वत्तव्वं। एवमट्ठतीसवस्सेहि ऊणिया पुव्वकोडी परिहारसुद्धिसंजमस्स कालो वुत्तो। के वि आइरिया सोलसवस्सेहि के वि वावीसवस्सेहि ऊणिया पुव्वकोडी त्ति भणंति। = तीस वर्षों को बिताकर (फिर संयम ग्रहण किया। उसके) पश्चात् वर्ष पृथक्त्व से तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व को पढ़कर पुनः तत्पश्चात् परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त कर और कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीव के उपर्युक्त काल प्रमाण कहना चाहिए। इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण परिहार शुद्धि संयत का काल कहा गया है। कोई आचार्य सोलह वर्षों से और कोई बाईस वर्षों से कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कहते हैं। (गो.जी./जी.प्र./473/881/12; 715/1154/11)।
- इसकी निर्मलता सम्बन्धी विशेषताएँ
ध. 7/2,2,149/167/8 सव्वसुही होदूण... वासपुधत्तेण तित्थयरपादमूले पच्चक्खाणणामधेयपुव्वं पढिदूण पुणो पच्छा परिहारसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय...। = सर्व सुखी होकर... पश्चात् वर्ष पृथक्त्व से तीथकर के पाद मूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व को - पढ़कर पुनः तत्पश्चात् परिहार विशुद्धि संयम को प्राप्त करता है। (गो.जी./जी.प्र./473/167/8)।
- इसके साथ अन्य गुणों व ऋद्धियों का निषेध
पं.सं./प्रा./1/194 मणपज्जवपरिहारो उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा। एदेसु एक्कपयदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे। 194। = मनःपर्ययज्ञान परिहार विशुद्धि संयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक अर्थात् आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग, इन चारों में से किसी एक के होने पर, शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होतीं ऐसा जानना चाहिए। 194। (गो.जी./मू./730/1325)।
ध. 4/1,3,61/123/7 (परिहारसुद्धिसंजदेसु) समत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि। = परिहार विशुद्धि संयत के तैजससमुद्धात और आहारक समुद्धात ये दो पद नहीं होते।
ध. 5/1,8,271/327/10 ण च परिहारसुद्धिसंजमछद्दं तस्स उवसमसेडीचडणट्ठं दंसणमोहणीयस्सुवसामण्णं पि संभवइ। = परिहार विशुद्धि संयम को नहीं छोड़नेवाले जीव के उपशमश्रेणी पर चढ़ने के लिए दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम होना भी संभव नहीं है। अर्थात् परिहारविशुद्धि संयम के उपशम सम्यक्त्व व उपशमश्रेणी होना सम्भव नहीं। (गो.जी./जी.प्र./715/12)।
ध.14/5,6,158/247/1 परिहारसुद्धिसंजदस्स विउव्वणरिद्धी (ए) आहाररिद्धीए च सह विरोहादो। = परिहारशुद्धिसंयतजीव के विक्रियाऋद्धि और आहारक ऋद्धि के साथ इस संयम होने का विरोध है। (गो.जी./जी.प्र./715/1154/11); (गो.क./जी.प्र./119/113/6)।
- शंका समाधान
ध. 1/1,1,126/375/5 उपरिष्टात्किमित्ययं संयमो न भवेदिति चेन्न, ध्यानामृतसागरान्तर्निमग्नात्मनां वाचंयमानामुपसंहृतगमनागमनादिकायव्यापाराणां परिहारानुपपत्तेः। प्रवृत्तः परिहरति नाप्रवृत्तस्ततो नोपरिष्टात् संयमोऽस्ति।
ध. 1/1,1,126/376/2 परिहारर्धेरुपरिष्टादपि सत्त्वात्तत्रास्यास्तु सत्त्वमिति चेन्न, तत्कार्यस्य परिहरणलक्षणस्यासत्त्वतस्तत्र तदभावात्। = प्रश्न - ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में यह संयम क्यों नहीं होता? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिनकी आत्माएँ ध्यानरूपी सागर में निमग्न हैं, जो वचन यम का (मौन का) पालन करते हैं और जिन्होंने आने जाने रूप सम्पूर्ण शरीर सम्बन्धी व्यापार संकुचित कर लिया है ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार बन ही नहीं सकता। क्योंकि, गमनागमन रूप क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला ही परिहार कर सकता है प्रवृत्ति नहीं करनेवाला नहीं। इसलिए ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में परिहार शुद्धि संयम नहीं बन सकता है। प्रश्न - परिहार ऋद्धि की आठवें आदि गुणस्थानों में भी सत्ता पायी जाती है, अतएव वहां पर इस संयम का सद्भाव मान लेना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि आठवें आदि गुणस्थानों में परिहार ऋद्धि पायी जाती है, परन्तु वहाँ पर परिहार करने रूप कार्य नहीं पाया जाता, इसलिए आठवें आदि गुणस्थानों में इस संयम का अभाव है।
ध. 5/1,8,271/327/8 एत्थ उवसमसम्मत्तं णत्थि, तीसं वासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य संभवाभावा। ण च तेत्तियकालमुवसमसम्मत्तस्सावट्ठाणमत्थि, जेण परिहारसुद्धिसंजमेण उवसमसम्मत्तस्सुवलद्धी होज्ज। ण च परिहारसुद्धिसंजमछद्द तस्स उवसमसेडीचडणट्ठं दंसणमोहणीयस्सुवसामण्णं पि संभवइ, जेणुवसमसेडिम्हि दोण्हं पि संजोगो होज्ज। = प्रश्न - (परिहारविशुद्धिसंयतों के उपसम सम्यक्त्व क्यों नहीं होता?) उत्तर -- परिहार शुद्धि संयतों के उपशम सम्यक्त्व नहीं होता है क्योंकि तीस वर्ष के बिना परिहार शुद्धि संयम का होना सम्भव नहीं है। और न उतने कालतक उपशम सम्यक्त्व का अवस्थान रहता है, जिससे कि परिहारशुद्धि संयम के साथ उपशम सम्यक्त्व की उपलब्धि हो सके।
- दूसरी बात यह है कि परिहारशुद्धि संयम को नहीं छोड़नेवाले जीव के उपशम श्रेणी पर चढ़ने के लिए दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम होना भी सम्भव नहीं है, जिससे कि उपशम श्रेणी में उपशम सम्यक्त्व और परिहारशुद्धि संयम, इन दोनों का भी संयोग हो सके।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- अप्रशस्त वेदों के साथ परिहार विशुद्धि का विरोध - देखें वह - 6।
- परिहार विशुद्धि व अपहृत संयम में अन्तर। - संयम/2।
- परिहार विशुद्धि संयम से प्रतिपात संभव है। - देखें अन्तर - 1।
- सामायिक, छेदोपस्थापना व परिहार विशुद्धि में अन्तर। - देखें छेदोपस्थापना ।
- परिहार विशुद्धि संयम में क्षायोपशमिक भावों सम्बन्धी। - देखें संयत - 2।
- परिहार विशुद्धि संयम में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी 20 प्र्ररूपणाएँ। - देखें [[ ]]‘सत्’।
- परिहार विशुद्धि संयत के सत्, संख्या, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -देखें [[ ]]वह वह नाम।
- परिहार विशुद्धि संयम में कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व। - देखें [[ ]]वह वह नाम।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ ]]मार्गणा।
पुराणकोष से
साधु के पाँच प्रकार के चारित्रों में एक चारित्र । इससे जीव-हिंसा आदि के परिहार से आत्मा की विशिष्ट शुद्धि होती है । हरिवंशपुराण 64.17