रसपरित्याग
From जैनकोष
- रसपरित्याग
भ. आ./मू./215/431 खीरदधिसप्पितेल्लगुडाण पत्तेगदो व सव्वेसिं । णिज्जूहणमोगाहिमपणकुसणलोणमादीणं ।215। = दूध, दही, घी, तेल, गुड़ इन सब रसों का त्याग करना अथवा एक-एक रस का त्याग करना यह रस-परित्याग नाम का तप है । अथवा पूप, पत्रशाक, दाल, नमक वगैरह पदार्थों का त्याग करना यह भी रस परित्याग नाम का तप है ।215।
मू. आ./352 खीरदहिसप्पितेलगुडलवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्तकडुकसायंबिलमधुररसाणं च जं चयणं ।352। = दूध, दही, घी, तेल, गुड़, लवण इन छह रसों का त्याग रसपरित्याग तप है । (अन. ध./7/27) अथवा कडुआ, कसैला, खट्टा, मीठा इनमें से किसी का त्याग वह रसपरित्याग तप है ।352। (का. अ./टी./446)।
स. सि./9/19/438/9 घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । = घृतादिगरिष्ठ रस का त्याग करना चौथा तप है । (रा. वा./9/19/ 5/618/26); (चा. सा./135/3) ।
भ. आ./वि./6/32/18 रसगोचरगाद्धर्यत्यजनं त्रिधा रसपरित्यागः । = रस विषय की लम्पटता को मन, वचन, शरीर के संकल्प से त्यागना रसपरित्याग नाम का तप है ।
त. सा./6/11 रसत्यागो भवेत्तैलक्षीरेक्षुदधिसर्पिणाम् । एकद्वित्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ।11। = तेल, दूध, खाँड, दही, घी इनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है । एक, दो, तीन, चार अथवा पाँचों रसों का त्याग करने से यह व्रत पाँच प्रकार का हो जाता है ।
का. अ./मू./446 संसार-दुक्ख-तट्ठो विस-सम-विसयं विचिंतमाणो जो । णीरस-भोज्जं भुंजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धौ । = संसार के दुःखों से संतप्त जो मुनि इन्द्रियों के विषयों को विष के समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परित्याग तप होता है ।
- रस परित्याग तप का प्रयोजन
स. सि./9/19/438/9 इन्द्रियदर्पनिग्रहनिद्राविजयस्वाध्यायसुखसिद्ध्याद्यर्थो...रसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । = इन्द्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए और सुखपूर्वक स्वाध्याय की सिद्धि के लिए रसपरित्याग नाम का चौथा तप है ।
रा. वा./9/19/5/618/26 दान्तेन्द्रियत्वतेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थं.....रसपरित्यागः ।5। = जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि और संयमवाधानिवृत्ति आदि के लिए रसपरित्याग है । (चा. सा./135/3)।
ध. 13/5, 4, 26/57/10 किमट्ठमेसो करिदे । पाणिंदिय संजमट्ठं । कुदो । जिब्भिंदिए णिरुद्धे सयलिंदियाणं णिरोहुवलंभादो । सियलिंदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिगाहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स....पाणासंजमणिरोहुवलंभादो । = प्रश्न −यह किसलिए किया जाता है ? उत्तर−प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि जिह्वा इन्द्रिय का निरोध हो जाने पर सब इन्द्रियों का निरोध देखा जाता है और सब इन्द्रियों का निरोध हो जाने पर जो परिग्रह का त्याग कर रागद्वेष का निरोध कर चुके हैं, उनको प्राणों के असंयम का निरोध देखा जाता है ।
- रस परित्याग तप के अतिचार
भ. आ./वि./487/707/10 कृतरसपरित्यागस्य रसासक्तिः, परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसवदाहारभोजनानुमननं, वातिचारः । = रस का त्याग करके भी रस में अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दूसरों को रस युक्त आहार का भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करने की सम्मति देना, ये सब रसपरित्याग तप के अतिचार हैं ।