षट्गुणहानि वृद्धि
From जैनकोष
1. अविभाग प्रतिच्छेदों में हानि वृद्धि का नाम ही षट्गुण हानि वृद्धि है
पं.का./त.प्र./84 धर्म: (द्रव्य) अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबन्धनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदै: प्रतिसमयसंभवत्वषट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिरनन्तै: सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययत्वेऽपि। =धर्म (धर्मास्तिकाय) अगुरुलघुगुणों रूप से अर्थात् अगुरुलघुत्व नाम का जो स्वरूपप्रतिष्ठत्व के कारणभूत स्वभाव उसके अविभागप्रतिच्छेदों रूप जो कि प्रतिसमय होने वाली षट्स्थानपतित वृद्धि हानि वाले अनन्त हैं उनके रूप से सदैव परिणमित होने के उत्पाद-व्यय स्वभाव वाला है।
गो.जी./जी.प्र./569/1015/5 धर्माधर्मादीनां अगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेद: स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषा: षड्वृद्धिभिर्वर्धमानषड्हानिभिश्च हीयमाना: परिणमन्ति। = धर्म और अधर्म द्रव्यों के अपने द्रव्यत्व को कारणभूत शक्ति विशेष रूप जो अगुरुलघु नामक गुण के अविभाग प्रतिच्छेद से अनन्त भाग वृद्धि आदि, तथा षट्स्थान हानि के द्वारा वर्धमान और हीयमान होता है।
2. एक समय में एक ही वृद्धि या हानि होती है
ष.खं.10/4,2,4/सू. व टी./202-205/499 'तिण्णिवड्ढितिण्णिहाणीओ केवचिरं कालादो होंति। जहण्णेण एगसमयं'।202। असंखेज्जभागवड्ढीए जहण्णेण एगसमयमच्छिदूणं विदिए समए सेसतिण्णं वड्ढीणमेगवडि्ंढ चदुण्णं हाणीणमेगतमहाणिं वा गदस्स असंखेज्जभागवडि्ढकालो जहण्णेण एगसमओ होदि। एवं सेसदोवड्ढीणं तिण्णिहाणीणं च एगसमयपरूवणा कादव्वा। 'उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो।203।' - एका जीवो जम्हि कम्हि वि जोगट्ठाणे ट्ठिदो असंखेज्जभागवड्ढिजोगं गदो। तत्थ एकसमयमच्छिदूण विदियसमए ततो असंखेज्जदिभागुत्तरजोगं गदो। एवं दोण्णमसंखेज्जभागवड्ढिसमयाणमुवलद्धी जादा। 'असंखेज्जगुणवड्ढिहाणी केवचिरं कालादो होंति। जहण्णेण एगसमओ।204'। असंखेज्जगुणवडि्ढमसंखेज्जगुणहाणिं वा एगसमयं काऊण अणप्पिदवड्ढि-हाणीणं गदस्स एगसमओ होदि। 'उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं।205।' ='तीन वृद्धियाँ और तीन हानियाँ कितने काल तक होती हैं ? जघन्य से एक समय होती हैं।202। - असंख्यात भाग वृद्धि होने पर जघन्य से एक समय रहकर द्वितीय समय में शेष तीन वृद्धि में किसी वृद्धि अथवा चार हानियों में किसी एक हानि को प्राप्त होने पर असंख्यात भागवृद्धि का काल जघन्य से एक समय होता है। इसी प्रकार शेष दो वृद्धियों और तीन हानियों के एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए। 'उत्कर्ष से उक्त हानि-वृद्धियों का काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।203।' - एक जीव जिस किसी भी योगस्थान में स्थित होकर असंख्यात भागवृद्धि को प्राप्त हुआ। वहाँ एक समय रहकर दूसरे समय में उससे असंख्यातवें भाग से अधिक योग को प्राप्त हुआ। इस प्रकार असंख्यात भाग वृद्धि के दो समयों की उपलब्धि हुई। (इसी प्रकार तीन आदि समयों में आवली पर्यन्त लागू कर लेना)। 'असंख्यात गुणवृद्धि और हानि कितने काल तक होती है। जघन्य से एक समय होती है।204।' - असंख्यात गुणवृद्धि अथवा असंख्यात गुण हानि को एक समय करके अविवक्षित वृद्धि या हानि को प्राप्त होने पर एक समय होता है। 'उक्त वृद्धि व हानि उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है।205।'
3. स्थिति आदि बन्धों में वृद्धि-हानि सम्बन्धी नियम
ध.6/1,9-4,3/183/1 एत्थगुणहाणीओ णत्थि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए विणा गुणहाणीए असंभवादो। = यहाँ अर्थात् इस जघन्य स्थिति में गुणहानियाँ नहीं होती हैं, क्योंकि, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थिति के बिना गुण-हानि का होना सम्भव नहीं है।
ध.12/4,2,13,265/461/13 खविदकम्मंसिए जदि सुट्ठु वहुगी दव्ववड्ढी होदि तो एगसमयपबद्धमेत्ता चेव होदि त्ति गुरुवएसादो। = क्षपित कर्मांशिक के यदि बहुत अधिक द्रव्य की (प्रदेशों की) वृद्धि होती है तो वह एक समय प्रबद्ध प्रमाण ही होती है, ऐसा गुरु का उपदेश है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
- छह वृद्धि हानियों का क्रम, अर्थ, संहनानी व यन्त्र। - देखें श्रुतज्ञान - II.2.3।
- अनुभाग काण्डकों में षड्गुण हानियाँ। - देखें ध - 12.157-202।
- अध्यवसाय स्थानों में वृद्धि हानियाँ। - देखें वह वह नाम ।
- व्यंजन पर्याय में अन्तर्लीन अर्थ पर्याय। - देखें पर्याय - 3.8।
- अशुद्ध पर्यायों में भी एक दो आदि समयों के पश्चात् हानि वृद्धि होती है। - देखें अवधिज्ञान - 2.2।