संबंध
From जैनकोष
1. संबंध सामान्य का लक्षण
न.च.वृ./225 संबंधो संसिलेसो णाणीयं णाणणेय मादीहिं=ज्ञानी का ज्ञान और ज्ञेय का संसिलेश सो सम्बन्ध है।
रा.वा./हिं.1/7/64 प्रत्यासत्ति है सो ही सम्बन्ध है।
रा.वा.हिं/4/42/20/1187 जहाँ पर अभेद प्रधान और भेद गौण होता है वहाँ पर सम्बन्ध समझना चाहिए।
2. सम्बन्ध के भेद
[आगम में अनेकों सम्बन्धों का निर्देश पाया जाता है। यथा - 1. ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध, ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध (स.सा./आ./31); भाव्य - भावक सम्बन्ध (स.सा./आ./32,83); तादात्म्य सम्बन्ध (स.सा./आ./57,61); संश्लेष सम्बन्ध (स.सा./ता.वृ./57); व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध (स.सा./आ./75); आधार-आधेय सम्बन्ध (स.सा./आ./181-183); (पं.ध./पू./350); आश्रय-आश्रयी (पं.ध./पृ./76); संयोग सम्बन्ध। सो दो प्रकार का है - देश प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध; और गुण प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध (ध.14/2,6,23/27/2); (पं.ध./पू./76); धर्म-धर्मि में अविनाभाव सम्बन्ध (पं.ध./पू./7,545,591,99,249); लक्ष्य-लक्षण सम्बन्ध (पं.ध./पू./12,88,616); साध्य-साधक सम्बन्ध (पं.ध./पू./545); दण्ड - दण्डी सम्बन्ध (पं.ध./पू./41); समवाय सम्बन्ध (पं.ध./पू./76); भविष्याभाव सम्बन्ध (स.म9/217/24);] [इनके अतिरिक्त बाध्य-बाधक सम्बन्ध, बध्य-घातक सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध, वाच्य-वाचक सम्बन्ध, उपकार्य-उपकारक सम्बन्ध, प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक समबन्ध, पूर्वापर सम्बन्ध, द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध, व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध, प्रकाश्य-प्रकाशक सम्बन्ध, उपादान-उपादेय सम्बन्ध, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध इत्यादि अनेकों सम्बन्धों का कथन आगम में अनेकों स्थलों पर किया गया है।]
3. सम्बन्ध के भेदों के लक्षण
1. भाव्य-भावक
स.सा./आ./32 भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावर्तनेन - । =(मोहकर्म) भावकपने से प्रगट होता है तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्माभाव्य...।
2. व्याप्य - व्यापक
स.सा./आ./75 घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापक भाव...। =घड़े और मिट्टी के व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव...।
न्या.दी./3/67/106/5 साहचर्यनियमरूपां व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्म तद्वयाप्यम् ...एतामेव व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्तृ तद्व्यापकम् ...एवं सति धूममग्निव्याप्नोति, ...धूमस्तु न तथाऽग्निं व्याप्नोति - । =साहचर्य नियमरूप व्याप्तिक्रिया का जो कर्म है उसे व्याप्य कहते हैं,...व्याप्ति का जो कर्म है - विषय है वह व्याप्य कहलाता है।...अग्नि धूम को व्याप्त करती है, किन्तु धूम अग्नि को व्याप्त नहीं करता।
3. ज्ञेय ज्ञायक व ग्राह्य-ग्राहक
स.सा./आ./31 ग्राह्यग्राहकलक्षणसंबन्धप्रत्यासत्तिवशेन...भावेन्द्रियावगृह्यमानस्पर्शादीनीन्द्रियार्थां...ज्ञेयज्ञायक संकरदोषत्वेनैव। =ग्राह्यग्राहक लक्षण वाले सम्बन्ध की निकटता के कारण...भावेन्द्रियों के द्वारा (ग्राहक) ग्रहण किये हुए, इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को (ग्राह्य पदार्थों को)...। ज्ञेय (बाह्य पदार्थ) ज्ञायक (जाननेवाला) आत्मा-संकर नामक दोष...।
4. आधार-आधेय सम्बन्ध
स.सा./आ./181-183 न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्ते:, तदसत्वे च तेन सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव, तत: स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते।=वास्तव में एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं है, क्योंकि दोनों के प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ता की अनुपपत्ति है, इस प्रकार जबकि एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधार (जिसमें रहा जाये) आधेय (जो आश्रय लेवे) सम्बन्ध भी नहीं है। स्व स्वरूप में प्रतिष्ठित वस्तु में आधार-आधेय सम्बन्ध है।
4. अन्य सम्बन्धित विषय
- संयोग आदि अन्य सम्बन्धों के लक्षण। - देखें वह वह नाम ।
- संश्लेष सम्बन्ध। - देखें श्लेष ।
- सम्बन्ध की अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद। - देखें सप्तभंगी - 5।
- भिन्न द्रव्यों में आध्यात्मिक भेदाभेद। - देखें कारक - 2।
- द्रव्य गुण पर्यायों में युत सिद्ध व समवाय सम्बन्ध का निषेध। - देखें द्रव्य - 4।