संस्थान
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == 1. संस्थान सामान्य व संस्थान नामकर्म का लक्षण
स.सि./5/24/296/1 संस्थानमाकृति:।
स.सि./8/11/390/3 यदुदयादौदारिकादिशरीराकृतिनिर्वृत्तिर्भवति तत्संस्थाननाम।=1. संस्थान का अर्थ आकृति है। (रा.वा./3/8/3/170/14)। 2. जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों की आकृति बनती है वह संस्थाननामकर्म है। (रा.वा./8/11/8/576/29); (ध.6/1,9-1,28/53/6); (ध.13/5,5,101/364/3); (गो.क./जी.प्र./33/29/3)।
रा.वा./5/24/1/485/13 संतिष्ठते, संस्थीयतेऽनेनेति, संस्थितिर्वा संस्थानम् । =जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित होता है या संस्थिति को संस्थान कहते हैं।
क.पा.2/2-22/15/9/2 तंस-चउरंस-वट्टादीणि संठाणाणि। =त्रिकोण, चतुष्कोण, और गोल आदि (आकार) को संस्थान कहते हैं।
2. संस्थान के भेद
ष.खं.6/1,9-1/सू.34/70 जं तं सरीरसंठाणणामकम्मं तं छव्विहं, समचउरससरीरसंठाणणामं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणणामं सादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं हुंडसरीरसंठाणणामं चेदि।=जो शरीर संस्थान नामकर्म है वह छह प्रकार का है - समचतुरस्र शरीरसंस्थाननामकर्म, न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थाननामकर्म, स्वातिशरीरसंस्थाननामकर्म, कुब्जशरीरसंस्थान नामकर्म, वामनशरीरसंस्थान नामकर्म, और हुंडकशरीरसंस्थान नामकर्म। (ष.खं.13/5,5/सू.107/368); (स.सि./8/11/390/3); (पं.सं./प्रा./1/4 की टीका); (द्र.सं./16/53/6); (भा.पा./टी./64/2-9/13)।
स.सि./5/24/296/1 तद् (संस्थानं) द्विविधमित्थलक्षणमनित्थंलक्षणं चेति। =इस (संस्थान) के दो भेद हैं - इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण।
द्र.सं./टी./16/53/8 वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थानम् । =गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि प्रगट अप्रगट अनेक प्रकार के संस्थान हैं।
3. संस्थान के भेदों के लक्षण
1. समचतुरस्र
रा.वा./8/11/8/576/32 तत्रोर्ध्वाधोमध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवसनिवेशव्यवस्थापनं कुशलशिल्पिनिर्वर्तितसमस्थितिचक्रवत् अवस्थानकर समचतुरस्रसंस्थाननाम। = ऊपर नीचे मध्य में कुशल शिल्पी के द्वारा बनाये गये समचक्र की तरह समान रूप से शरीर के अवयवों की रचना होना समचतुरस्र संस्थान है।
ध.6/1,9-1,34/71/1 समं चतुरस्रं समचतुरस्रं समविभक्तमित्यर्थ:। जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं समचउरस्ससंठाणं होदि तस्स कम्मस्स समचउरससंठाणमिदि सण्णा। =समान चतुरस्र अर्थात् समविभक्तको समचतुरस्र कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीवों के समचतुरस्रसंस्थान होता है उस कर्म को समचतुरस्र संज्ञा है।
ध.13/5,5,107/365/5 चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थ:। समचतुरं च तत् शरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्थानम् । तस्य संस्थानस्य निवर्त्तकं यत् कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । =चतुर का अर्थ शोभन है, सब ओर से चतुर समचतुर कहलाता है। समान मान और उन्मानवाला, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। समचतुर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह समचतुरस्रशरीरसंस्थान है। उस संस्थान के निर्वर्तक कर्म की भी कारण में कार्य के उपचार से यही संज्ञा है।
2. न्यग्रोध परिमण्डल
रा.रा./8/11/8/576/33 नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसंनिवेशष्याधस्ताच्चाल्पीयसो जनकं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानम् । = बड़ के पेड़ की तरह नाभि के ऊपर भारी और नीचे लघुप्रदेशों की रचना न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है।
ध.6/1,9-1,34/71/2 णग्गोहो वडरुक्खो, तस्स परिमंडलं व परिमंडलं जस्स सरीरस्स तण्णग्गोहपरिमंडलं। णग्गोहपरिमंडलमेव सरीरसंठाणं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणं आयतवृत्तमित्यर्थ:। = न्यग्रोध वट वृक्ष को कहते हैं, उसके परिमण्डल के समान परिमण्डल जिस शरीर का होता है उसे न्यग्रोध परिमण्डल कहते हैं। न्यग्रोध परिमण्डलरूप हो जो शरीर संस्थान है, वह न्यग्रोध परिमण्डल अर्थात् आयतवृत्त शरीरनामकर्म है।
ध.13/5,5,107/368/7 न्यग्रोधो वटवृक्ष: समन्तान्मण्डलं परिमण्डलम्, न्यग्रोधस्य परिमण्डलमिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्थानस्य तन्न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानं नाम। अधस्तात् श्लक्ष्णं उपरि विशालं यच्छरीरं तन्नयग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानं नाम। एतस्य यत् कारणं कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । = न्यग्रोध का अर्थ वट का वृक्ष है, और परिमण्डल का अर्थ सब ओर का मण्डल। न्यग्रोध के परिमण्डल के समान जिस शरीर संस्थान का परिमण्डल होता है व न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान है। जो शरीर नीचे सूक्ष्म और ऊपर विशाल होता है वह न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान है। कारण में कार्य के उपचार इसके कारण कर्म की यही संज्ञा है।
3. स्वाति
रा.वा./8/11/8/577/2 तद्विपरीतसंनिवेशकरं स्वातिसंस्थाननाम वल्मीकतुल्याकारम् । = न्यग्रोध से उलटा ऊपर लघु और नीचे भारी, बाम्बी की रचना स्वाति संस्थान है। (ध.13/5,5,107/368/10)।
ध.6/1,9-1,34/71/4 स्वातिर्वल्मीक: शाल्मलिर्वा, तस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य शरीरस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थानम् । अहो विसालं उवरि सण्णमिदि जं उत्तं होदि। =स्वाति नाम वल्मीक या शाल्मली वृक्ष का है। उसके आकार के समान आकार जिस शरीर का है, वह स्वाति संस्थान है। अर्थात् यह शरीर नाभि से नीचे विशाल और ऊपर सूक्ष्म या हीन होता है।
4. कुब्ज
रा.वा./8/11/8/577/2 पृष्ठप्रदेशभाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य निर्वर्तकं कुब्जसंस्थाननाम। =पीठ पर बहुत पुद्गलों का पिण्ड हो जाना अर्थात् कुबड़ापन कुब्जक संस्थान है।
ध.6/1,9-1,34/71/6 कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरम् । तस्य कुब्जशरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्कुब्जशरीरसंस्थानम् । 'जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं दीहत्तं मज्झस्स रहस्सत्तं च होदि तस्स खुज्जशरीरसंठाणमिदि सण्णा। = कुबड़े शरीर को कुब्ज शरीर कहते हैं। उस कुब्ज शरीर के संस्थान के समान संस्थान जिस शरीर का होता है, वह कुब्ज शरीर संस्थान है। जिस कर्म के उदय से शाखाओं की दीर्घता और मध्य भाग के ह्रस्वता होती है, उसकी 'कुब्ज शरीर संस्थान' यह संज्ञा है। (ध.13/5,5,107/368/12)।
5. वामन
रा.वा./8/11/8/577/3 सर्वाङ्गोपाङ्गह्रस्वव्यवस्थाविशेषकारणं वामनसंस्थाननाम। =सभी अंग उपांगों को छोटा बनाने में कारण वामन संस्थान है।
ध.6/1,9-1,34/71/8 वामनस्य शरीरं वामनशरीरम् । वामनशरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तद्वामनशरीरसंस्थानम् । जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं जं रहस्सत्तं कायस्स दीहत्तं च होदि तं वामणसरीरसंठाणं होदि। = बौने के शरीर को वामन शरीर कहते हैं। वामन शरीर के संस्थान के समान संस्थान जिससे होता है, वह वामन शरीर संस्थान है। जिस कर्म के उदय से शाखाओं के ह्रस्वता और शरीर के दीर्घता होती है, वह वामनशरीर संस्थान नामकर्म है। (ध.13/5,5,107/368/13)।
6. हुंडक
रा.वा./8/11/8/577/4 सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितत्वात् हुण्डसंस्थाननाम। = सभी अंग और उपांगों का बेतरतीब हुंड की तरह रचना हुंडक संस्थान है।
ध.6/1,9,1,34/72/2 विसमपासाणभरियदइओ व्व विस्सदो विसमं हुंडं। हुंडस्स शरीरं हुंडशरीरं, तस्स संठाणमिव संठाणं जस्स तं हुंडसरीरसंठाणणाम। जस्स कम्मस्स उदएण पुव्वुत्तपंचसंठाणेहिंतो वदिरित्तमण्णसंठाणमुप्पज्जइ एक्कत्तीसभेदभिण्णं तं हुंडसंठाणसण्णिदं होदि त्ति णादव्वं।=विषम अर्थात् समानता रहित अनेक आकारवाले पाषाणों से भरी हुई मशक के समान सर्व ओर से विषम आकार को हुंड कहते हैं। हुंड के शरीर को हुंड शरीर कहते हैं। उसके संस्थान के समान संस्थान जिसके होता है उसका नाम हुंड शरीर संस्थान है। जिस कर्म के उदय से पूर्वोक्त पाँच संस्थानों से व्यतिरिक्त, इकतीस भेद भिन्न अन्य संस्थान उत्पन्न होता है, वह शरीर हुंड संस्थान संज्ञा वाला है, ऐसा जानना चाहिए। (ध.13/5,5,106/369/1)।
4. इत्थं अनित्थं संस्थान के लक्षण
स.सि./5/24/296/1 वृत्तव्यस्रचतुरस्रायतपरिमण्डलादीनामित्थंलक्षणम् । अतोऽन्यन्मेघादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूपणाभावादनित्थंलक्षणम् । = जिसके विषय में 'यह संस्थान इस प्रकार का है' यह निर्देश किया जा सके वह इत्थंलक्षण संस्थान है। वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और परिमण्डल, आदि ये सब इत्थंलक्षण संस्थान हैं। तथा इसके अतिरिक्त मेघ आदि के आकार जो कि अनेक प्रकार के हैं और जिनके विषय में 'यह इस प्रकार का है।' यह नहीं कहा जा सकता वह अनित्थंलक्षण संस्थान है। (रा.वा./5/24/13/489/1)।
5. गति मार्गणा में संस्थानों का स्वामित्व
मू.आ./1090 समचउरसणिग्गोहासादि य खुज्जा य वामणा हुंडा। पंचिंदियतिरियणरा देवा चउरस्स् णारया हुंडा। =समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जक, वामन और हुंड ये छह संस्थान पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के होते हैं, देव चतुरस्र संस्थान वाले हैं, नारकी सब हुंडक संस्थान वाले होते हैं।1090।
6. अन्य सम्बन्धित विषय
- एकेन्द्रियों में संस्थान का अभाव तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान। - देखें उदय - 5।
- विकलेन्द्रियों में हुंडक संस्थान का नियम तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान। - देखें उदय - 5।
- विग्रहगति में जीवों का संस्थान। - देखें अवगाहना - 1।
- संस्थान नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तथा तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान आदि। - देखें वह वह नाम ।
पुराणकोष से
जीवों का गोल, त्रिकोण आदि आकार । जीवों में पृथिवीकायिक जीवों का मसूर के समान, जलकायिक जीवों का तृण के अग्रभाग पर रखी बूँद के समान, तैजस-कायिक जीवों का खड़ी सूई के समान, वायुकायिक जीवों का पताका के समान और वनस्पतिकायिक जीवों का अनेक रूप संस्थान होता है । विकलेन्द्रिय तथा नारकी जीव हुण्डक संस्थान वाले होते हैं । मनुष्य और तिर्यंचों के (समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्डक) छहों संस्थान होते हैं किन्तु देवों के केवल समचतुस्रसंस्थान होता है । हरिवंशपुराण 3. 197, 18.70-72