संस्थान निर्माण कर्म
From जैनकोष
धवला 6/1,9-1,28/66/3 तं दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि। जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं दो वि णिमिणाणि होंति, तस्सकम्मस्स णिमिणमिदि सण्णा। जदि पमाणणिमिणणामकम्मं ण होज्ज, तो जंघा-बाहु-सिर-णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज्ज। ण चेवं, अणुवलंभा। तदो कालमस्सिदूण जाइं च जीवाणं पमाणणिव्वत्तयं कम्मं पमाणणिमिणं णाम। जदि संठाणणिमिणकम्मं णाम ण होज्ज, तो अंगोवगं-पच्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण होज्ज। ण च एवं, अणुवलंभा। तदो कण्ण-णयण-णासिया-दोणं सजादि अणुरूवेग अप्पप्पणो ट्ठाणे जं णियामयं तं संठाणणिमिणमिदि। =वह (निर्माण नामकर्म) दो प्रकार का है–प्रमाणनिर्माण और संस्थाननिर्माण। जिस कर्म के उदय से जीवों के दोनों ही प्रकार के निर्माण होते हैं, उस कर्म की ‘निर्माण’ यह संज्ञा है। यह प्रमाण-निर्माण नामकर्म न हो, तो जंघा, बाहु, शिर और नासिका आदि का विस्तार और आयाम लोक के अंत तक फैलने वाले हो जावेंगे। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए काल को और जाति को आश्रय करके जीवों के प्रमाण को निर्माण करने वाला प्रमाण-निर्माण नामकर्म है। यदि संस्थान-निर्माण नामकर्म न हो तो, अंग, उपंग और प्रत्यंग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेंगे अर्थात् नाक के स्थान पर ही आँख आदि भी बन जायेंगी अथवा नाक के स्थान पर आँख और मस्तक पर मुँह लग जायेगा। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, आँख, नाक आदि अंगों का अपनी जाति के अनुरूप अपने स्थान पर रचने वाला जो नियामक कर्म है, वह संस्थान-निर्माण नामकर्म कहलाता है।
विशेष जानकारी के लिए देखें निर्माण कर्म ।