सुमर सदा मन आतमराम
From जैनकोष
(राग बिलावल)
सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ।।टेक ।।
स्वजन कुटुंबी जन तू पोषै, तिनको होय सदैव गुलाम ।
सो तो हैं स्वारथ के साथी, अंतकाल नहिं आवत काम ।।१ ।।
जिमि मरीचिका में मृग भटकै, परत सो जब ग्रीषम अति घाम ।
तैसे तू भवमाहीं भटकै, धरत न इक छिनहू विसराम ।।२ ।।
करत न ग्लानि अबै भोगन में, धरत न वीतराग परिनाम ।
फिर किमि नरकमाहिं दुख सहसी, जहाँ सुख लेश न आठौं जाम ।।३ ।।
तातैं आकुलता अब तजिकै, थिर ह्वै बैठो अपने धाम ।
`भागचन्द' वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ।।४ ।।