अनीक
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /४/४/२३९ पदात्यादीनि सप्त अनीकानि दण्डस्थानीयानी।
= सेना की तरह सात प्रकार के पदाति आदि अनीक कहलाते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ४/४/७/२१३/६)।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ३/६७ सेणोवमा यणिया ।।६७।।
= अनीकदेव सेना के तुल्य होते हैं।
त्रिलोकसार गाथा संख्या २२४ भाषा `जैसे राजा के हस्ति आदि सेना है वैसे देवों में अनीक जाति के देव ही हस्ति आदि आकार अपने नियोग तैं होइ हैं।"
- अनीक देवों के भेद
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ३/७७ सत्ताणीयं होंति हु पत्तेक्कं सत्त सत्त कक्खजुदा। पडमं ससमाणसमा तद्दुगुणा चरमकक्खंतं ।।७७।।
= सात अनीकों में-से प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओं से युक्त होती है। उनमें-से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवों के बराबर तथा इसके आगे अन्तिम कक्षा तक उत्तरोत्तर प्रथम कक्षासे दूना-दूना प्रमाण होता चला गया है ।।७७।।
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या /४/१५८-१५९ ....सत्ताणिया पवक्खामि। सोहम्मकप्पवासीइदस्स महाणुभावस्स ।।१५८।। वसभरहतुरयमयगलणच्चणगंधव्वभिच्चवग्गाणं। सत्ताणीया दिट्ठा सत्तहि कच्छाहि संजुत्ता ।।१५९।।
= महा प्रभाव से युक्त सौधर्म इन्द्र की सात अनीकों का वर्णन करते हैं ।।१५८।। वृषभ, रथ, तुरग, मदगल (हाथी), नर्तक, गन्धर्व और भृत्यवर्ग इनकी सात कक्षाओं से संयुक्त सात सेनाए कही गयी हैं।
त्रिलोकसार गाथा संख्या २८०, २३० कुंजरतुरयपदादीरहगंधव्वा य णच्चवसहोत्ति। सत्तेवय अणीया पत्तेयं सत्त सत्त कक्खजुदा ।।२८०।।.....। पढमं ससमाणसमं तद्दुगुणं चरिमकक्खोत्ति ।।२३०।।
= हाथी, घोड़ा, पयादा, रथ, गन्धर्व, नृत्य की और वृषभ ऐ से सात प्रकार अनीक एक-एक के हैं। बहुरि एक-एक अनीक सात-सात कक्ष कहिये फौज तिन करि संयुक्त है ।।२८०।। तहाँ प्रथम अनीक का कक्ष विषैं प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवनि के समान है। तातैं दूणां दूणां प्रमाण अन्त का कक्ष विषैं पर्यन्त जानना। तहाँ चमरेन्द्र के भैंसानिकी प्रथम फौजनि विषैं चौंसठ हजार भैंसे हैं। तातै दूणें दूसरी फौज विषैं भैंसे हैं। ऐसे सत्ताईस फौज पर्यन्त दूणें - दूणें जानने। बहुरि ऐसे ही तथा इतने ही घोटक आदि जानने। याही प्रकार ओरनिका यथा सम्भव जान लेना ।।२३०।।
- इन्द्रों आदि के परिवार में अनीकों का निर्देश – देखे भवनवासी आदि भेद ।
- कल्पवासी अनीकों की देवियों का प्रमाण
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ८/३२८ सत्ताणीय पहूणं पुह पुह देवीओ छस्सया होंति। दोण्णि सया पत्तेक्कं देवीओ आणीय देवाणं ।।३२८।।
= सात अनाकों के प्रभुओं के पृथक्-पृथक् छः सौ और प्रत्येक अनीक के दो सौ देवियाँ होती हैं।