केवली
From जैनकोष
केवलज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हंत या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकार के होते हैं–तीर्थंकर व सामान्य केवली। विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्म की प्रभावना करने वाले तीर्थंकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केवली होते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं, कदाचित् उपदेश देने वाले और मूक केवली। मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं–सयोग और अयोग। जब तक विहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते हैं, तब तक सयोगी और आयु के अंतिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओं को त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं।
- भेद व लक्षण
- सयोग व अयोगी दोनों अर्हंत हैं—देखें अर्हंत - 2।
- अर्हंत, सिद्ध व तीर्थंकर अंतकृत् व श्रुतकेवली—देखें वह वह नाम ।
- सयोग व अयोगी दोनों अर्हंत हैं—देखें अर्हंत - 2।
- केवली निर्देश
- सर्वज्ञ व सर्वज्ञता तथा केवली का ज्ञान—देखें केवलज्ञान - 4 ,केवलज्ञान - 5।
- सयोगी के चारित्र में कथंचित् मल का सद्भाव—देखें केवली - 2.2।
- तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ—देखें तीर्थंकर - 1।
- केवलज्ञान के अतिशय—देखें अर्हंत - 6।
- केवलीमरण—देखें मरण - 1।
- तीसरे व चौथे काल में ही केवली होने संभव है।—देखें मोक्ष - 4.3।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में केवलियों का प्रमाण—देखें तीर्थंकर - 5।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार ही व्यय होने संबंधी नियम—देखें मार्गणा ।
- सर्वज्ञ व सर्वज्ञता तथा केवली का ज्ञान—देखें केवलज्ञान - 4 ,केवलज्ञान - 5।
- शंका–समाधान
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं।
- ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं।
- कवलाहार व परीषह संबंधी निर्देश व शंका–समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता।
- केवली को कवलाहार नहीं होता।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए।
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- आहारक होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती।
- केवली को परीषह कहना उपचार है।
- असाता के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परीषह होनी चाहिए।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता के न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनंतगुणी क्षीण हो जाती है।
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता के न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है।
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए।
- केवली को नोकर्माहार होता है।
- इंद्रिय व मन योग संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रिय है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं।
- जाति नामकर्मोदय की अपेक्षा पंचेंद्रियत्व है।
- पंचेंद्रिय कहना उपचार है।
- इंद्रियों के अभाव में ज्ञान की संभावना संबंधी शंका-समाधान–देखें प्रत्यक्ष - 2।
- भावेंद्रियों के अभाव संबंधी शंका-समाधान।
- केवली के मन उपचार से होता है।
- केवली के द्रव्यमन होता है, भाव मन नहीं।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पंद रूप कार्य होता है।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते।
- योगों के सद्भाव संबंधी समाधान।
- केवली के पर्याप्ति योग तथा प्राण विषयक प्ररुपणा।
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते ?
- समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो?
- अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है?
- द्रव्येंद्रियों की अपेक्षा पंचेंद्रिय है, भावेंद्रियों की अपेक्षा नहीं।
- योग प्राण तथा पर्याप्ति की प्ररुपणा–देखें वह वह नाम ।
- ध्यान व लेश्या आदि संबंधी निर्देश व शंका-समाधान
- केवली के समुद्घात अवस्था में भी भाव से शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्य से कापोत लेश्या होती है।—देखें लेश्या - 3।
- केवली के समुद्घात अवस्था में भी भाव से शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्य से कापोत लेश्या होती है।—देखें लेश्या - 3।
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण।
- केवली के एकत्व वितर्क विचार ध्यान क्यों नहीं कहते।
- तो फिर केवली क्या ध्याते हैं।
- केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण।
- केवली के उपयोग कहना उपचार है।
- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण।
- भेद-प्रभेद।
- दंडादि भेदों के लक्षण।
- सभी केवलियों के होने न होने विषयक दो मत।
- केवली समुद्घात के स्वामित्व की ओघादेश प्ररूपणा।–देखें समुद् घात
- आयु के छ: माह शेष रहने पर होने न होने विषयक दो मत।
- कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है।
- आत्म प्रदेशों का विस्तार प्रमाण।
- कुल आठ समय पर्यंत रहता है।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम।
- दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं।
- कपाट समुद्घात में औदारिक मिश्र काययोग होता है शेष में नहीं।–देखें औदारिक - 2।
- लोकपूरण समुद्घात में कार्माण काययोग होता है शेष में नहीं–देखें कार्माण - 2।
- प्रतर व लोक में आहारक शेष में अनाहारक होता है।
- केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त संबंधी नियम।
- केवली के पर्याप्तापर्याप्तपने संबंधी विषय।–देखें पर्याप्ति - 3।
- पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान।
- समुद्घात करने का प्रयोजन।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो। तब उनका समीकरण करने के लिए होता है।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधि क्रम।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों?
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति कैसे समान होती है?
- 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
- भेद व लक्षण
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
मू.आ./564 सव्वे केवलकप्पं लोग जाणंति तह य पस्संति। केवलणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होंति।564।=जिस कारण सब केवलज्ञान का विषय लोक अलोक को जानते हैं और उसी तरह देखते हैं। तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान् केवली हैं।
सर्वार्थसिद्धि/6/13/331/11 निरावरणज्ञाना: केवलिन:।
सर्वार्थसिद्धि/9/38/453/9 प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवत:।=जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। जिसके समस्त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली...। ( धवला/1/1,1,21/191/3 )।
राजवार्तिक/6/13/1/523/26 करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेता: केवलिन:।1। करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति: क्रम:, कुड्यादिनांतर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यंतसंक्षये आविभूतमात्मन: स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वंतोऽर्हंतो भगवंत: केवलिन इति व्यपदिश्यंते।=ज्ञानावरण का अत्यंत क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनंतज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे हैं और परिपूर्ण हैं वे केवली हैं ( राजवार्तिक/9/1/23/590 )।
- केवली आत्मज्ञानी होते हैं
समयसार/9 जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुथकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयवा।9।=जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, उसको लोक को प्रगट जानने वाले ऋषिवर श्रुतकेवली कहते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/33 भगवान्....केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली।=भगवान्....आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं। (भावार्थ–भगवान् समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे ‘केवली’ नहीं कहलाते, किंतु केवल अर्थात् शुद्धात्मा को जानने—अनुभव करने से केवली कहलाते हैं)।
मोक्षपाहुड़/ टी./6/308/11 केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवल:।=जो निजात्मा में एकीभाव से केवते हैं, सेवते हैं या ठहरते हैं वे केवली कहलाते हैं।
- केवली निरावरण ज्ञानी होते हैं
- केवली सामान्य का लक्षण
- केवली के भेदों का निर्देश
कषायपाहुड़/1/1,16/312/343/25 विशेषार्थ–तद्भवस्थकेवली और सिद्ध केवली के भेद से केवली दो प्रकार के होते हैं।
सत्ता स्वरूप/38 सात प्रकार के अर्हंत होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गंधकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं—तीर्थंकर व सामान्य केवली) उपसर्ग केवली और अंत-कृत् केवली।
- तद्भवस्थ व सिद्ध केवली का लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1,16/311/343/26 विशेषार्थ–जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में स्थित केवली को तद्भवस्थ केवली कहते हैं और सिद्ध जीवों को सिद्ध केवली कहते हैं।
- सयोग व अयोग केवली के लक्षण
पं.सं./प्रा./1/27-30 केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासि अण्णाओ। णवकेवललद्धुग्गमपावियपरमप्पववएसो।27। असहयणाण—दंसणसहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वुत्तो।125। सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई।30।=जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवललब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, वह असहाय ज्ञान और दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगों से युक्त होने के कारण सयोगी और घाति कर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा हैं। (27, 28) जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, जो आस्रवों से रहित हैं, जो नूतन बँधने वाले कर्मरज से रहित हैं और जो योग से रहित हैं, तथा केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगी परमात्मा कहते हैं।30। ( धवला 1/1,1,21/124-126/192 ) ( गोम्मटसार जीवकांड/63-65 ) (पं.सं./सं./1/49-50)
पं.सं./प्रा./1/100 जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया। ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया।100।=जिनके पुण्य और पाप के संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगि जिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनंत गुणों से सहित होते हैं। ( धवला 1/1,1,59/155/280 ) ( गोम्मटसार जीवकांड/243 ) (पं.सं./सं./1/180) धवला 7/2,1,15/18/2 सट्ठिददेसमछंडिय छहित्ता वा जीवदव्वस्स। सावयवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो।=स्वस्थित प्रदेश को छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है।
ज.1/1,1,21/191/4 योगेन सह वर्तंत इति सयोगा:। सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिन:। धवला 1/1,1,22/192/7 न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग:। केवलमस्यास्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली।=जो योग के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते हैं, इस तरह जो सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोग केवली कहते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे केवली कहते हैं, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहते हैं। ( राजवार्तिक/9/1/24/59/23 )
द्रव्यसंग्रह टीका/13/35 ज्ञानावरणदर्शनावरणांतरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपंजरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जिनभास्करा भवंति। मनोवचनकायवर्गणालंबनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयोगिजिना भवंति।=समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान केवलज्ञान की किरणों से लोकालोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं। और मन, वचन, काय वर्गणा के अवलंबन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन रूप योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं।
- केवली निर्देश
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है
स.स्तो./टी./5/13 ननु. तत् (कर्म) प्रक्षये तु जडो भविष्यति...बुद्धिं आदि-विशेषगुणानामत्यंतोच्छेदात् इति यौगा:। चैतन्यमात्ररूपं इति सांख्या:। सकलविप्रमुक्त: सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप:।=प्रश्न–1. कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव जड़ हो जायेगा, क्योंकि उसके बुद्धि आदि गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते हैं। 2. वह तो चैतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते हैं? उत्तर–सकल कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा संपूर्णत: ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है।
- सयोग व अयोग केवली में अंतर
द्रव्यसंग्रह टीका/13/36 चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मंदोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति।=सयोग केवली के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघातिया कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
श्लोकवार्तिक/1/1/1/4/484/26 स्वपरिणामविशेष: शक्तिविशेष: सोऽंतरंग: सहकारी नि:श्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेर्नि:श्रेयसानुत्पत्ते:....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिन: प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात् ।=वे आत्मा की विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्मा की उन सामर्थ्यों को सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्योंकि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्मा के परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थान के पहले समय में मुक्ति को कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रय का सहकारी कारण वह आत्मा की शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है।
- सयोग व अयोग केवली में कर्मक्षय संबंधी विशेषताएँ
धवला 1/1,1,27/223/10 सयोगकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि।=सयोगी जिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते।
धवला 12/4,2,7,15/18/2 खीणकषाय-सजोगीसु ट्ठिदि-अणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्धे अजोगिम्हि ट्ठिदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्धं।=क्षीणकषाय और सयोगी जिन का ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघात के होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभाग से रहित अयोगी गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्ति से सिद्ध है।
- केवली को एक क्षायिक भाव होता है
धवला 1/1,1,21/191/6 क्षायिताशेषघातिकर्मत्वान्नि:शक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवषष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण:।
धवला 1/1,1,21/199/2 पंचसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण:।=1.चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म के निशक्त कर देने से, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है। 2. प्रश्न–पाँच प्रकार के भावों में इस (अयोगी) गुणस्थान में कौन-सा भाव होता है? उत्तर–संपूर्ण घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से और थोडे ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होने वाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है।
प्रवचनसार/45 पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।=अरहंत भगवान् पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादि से रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है।
- केवलियों के शरीर की विशेषताएँ
तिलोयपण्णत्ति/4/705 जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं। गच्छदि उवरिं चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ।705।=केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरों का परमौदारिक शरीर पृथिवी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।705। धवला 14/5,6,91/81/8 सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेय-सरीरा वुच्चंति एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।
धवला 14/5,6,116/138/4 खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो।=1. सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता। 2. क्षीण कषाय में बादर निगोद वर्गणा के रहते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति होने में विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणा से बादर निगोद जीव का ग्रहण नहीं है, बल्कि केवली के औदारिक व कार्माण शरीरों व विस्रसोपचयों में बँधे परमाणुओं का प्रमाण बताना अभीष्ट है।) निगोद से रहित होता है।
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है
(1) केवलज्ञान धारी मुनि-अर्हंतदेव । पंचमकाल में भगवान् महावीर के बाद ऐसे तीन केवली मुनि हुए है― इंद्रभूति (गौतम), सुधर्माचार्य और जंबू ये त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थों के ज्ञाता और द्रष्टा होते हैं । सिद्धौ के दर्शन ज्ञान और सुख को संपूर्ण रूप से ये ही जानते हैं । महापुराण 2.61, पद्मपुराण 105.197-199 हरिवंशपुराण 1.58-60
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.112