जंबूद्वीप निर्देश
From जैनकोष
- जंबूद्वीप निर्देश
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/3/9-23 तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कंभो जंबूद्वीपः।9। भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि।10। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः।11।हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः।12। मणिविचित्रपार्श्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।13। पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुंडरीकपुंडरीका हृदास्तेषामुपरि।14। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कंभो हृद:।।15।। दशयोजनावगाह:।।16।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।17। तद्द्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ।18। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्नीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयःससामानिकपरिषत्काः ।19। गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाःसरितस्तमंध्यगाः।20। द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः।21। शेषास्त्वपरगाः।22। चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिंध्वादयो नद्यः।23। =- उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों, - देखें लोक - 2.11) के बीच में गोल और 100,000 योजन विष्कंभवाला जंबूद्वीप है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।9। ( तिलोयपण्णत्ति/4/11 व 5/8); ( हरिवंशपुराण/5/3 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/20 )।
- उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात् क्षेत्र हैं।10। उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व पश्चिम लंबे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं।11। ( तिलोयपण्णत्ति/4/90-94 ); ( हरिवंशपुराण/5/13-15 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/2 व 3/2); ( त्रिलोकसार/564 )।
- ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।12। इनके पार्श्वभाग मणियों से चित्र-विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।13। ( तिलोयपण्णत्ति/4/94-95 ); ( त्रिलोकसार/566 )
- इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुंडरीक, और पुंडरीक, ये तालाब हैं।14। ( हरिवंशपुराण/5/120-121 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/69 )।
- पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है। (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं - दे आगे लोक/3/9। इससे आगे के हृदों में भी कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं।17-18। ( हरिवंशपुराण/5/129 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/69 )।
- पद्म हृद को आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं - (देखें व्यंतर - 3.2)।19। ( हरिवंशपुराण/5/130 )।
- (उपरोक्त पद्म आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। 20। ( हरिवंशपुराण/5/122-125 )। (तिनमें भी गंगा, सिंधु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रह से, रोहित व हरिकांता महापद्मद्रह से, हरित व सीतोदा तिगिंछ द्रह से, सीता व नरकांता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुंडरीक से तथा सुवर्णकूला, रक्ता व रक्तोदा पुंडरीक सरोवर से निकलती हैं - ( हरिवंशपुराण/5/132-135 )।
- उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली--पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।21-22) . ( हरिवंशपुराण/5/160 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/192-193 )।
- गंगा, सिंधु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। (यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा-सिंधु यगुल में से प्रत्येक की 14000, द्वि. युगल में प्रत्येक की 28000 इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनंतर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/3/23/220/10 ); ( राजवार्तिक/3/23/3/190/13 ), ( हरिवंशपुराण/5/275-276 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. का भावार्थ- - यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है।15। ( हरिवंशपुराण/5/3 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/26 )।
- इस जगती की पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार द्वार हैं।41-42। ( राजवार्तिक/3/9/1/170/29 ); ( हरिवंशपुराण/5/390 ); ( त्रिलोकसार/892 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/38,42 )।
- इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन उपवनों, कुंडों, गोपुर-द्वारों, देव-नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुंड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं। 92-99।
- (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (देखें आगे उन उन पर्वतों का निर्देश ) प्रत्येक पर्वत व कूट, नदी, कुंड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं - (देखें अगला शीर्षक )। प्रत्येक पर्वत, कुंड, द्रह, कूटों पर भवनवासी व व्यंतर देवों के पुर, भवन व आवास हैं - (देखें व्यंतर - 4.1-5)। प्रत्येक पर्वतादि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (देखें चैत्यालय - 3.2)।
- जंबूद्वीप में पर्वत नदी आदि का प्रमाण
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति/2396-2397 ); ( हरिवंशपुराण/5/8-11 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/55 )।
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
महाक्षेत्र |
7 |
भरत हैमवत आदि (देखें लोक - 3.3।। |
2 |
कुरुक्षेत्र |
2 |
देवकुरु व उत्तर कुरु |
3 |
कर्मभूमि |
34 |
भरत, ऐरावत व 32 विदेह। |
4 |
भोगभूमि |
6 |
हैमवत, करि, रम्यक व हैरण्यवत तथा दोनों कुरुक्षेत्र |
5 |
आर्यखंड |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
6 |
म्लेच्छ खंड |
170 |
प्रति कर्मभूमि पाँच |
7 |
राजधानी |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
8 |
विद्याधरों के नगर। |
3750 |
भरत व ऐरावत के विजयाधर्मों में से प्रत्येक पर 115 तथा 32 विदेहों के विजयार्धों में से प्रत्येक पर 110 (देखें विद्याधर )। |
- पर्वतों का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति 4/2394-2397 ); ( हरिवंशपुराण/5/8-10 ); (त्रि. सा/731);
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
मेरु |
1 |
जंबूद्वीप के बीचोबीच। |
2 |
कुलाचल |
6 |
हिमवान् आदि (देखें लोक - 3.3)। |
3 |
विजयार्ध |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि में एक। |
4 |
वृषभगिरि |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि के उत्तर मध्य-म्लेच्छ खंड में एक। |
5 |
नाभिगिरि |
4 |
हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों के बीचोबीच। |
6 |
वक्षार |
16 |
पूर्व व ऊपर विदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार। |
7 |
गजदंत |
4 |
मेरु की चारों विदिशाओं में। |
8 |
दिग्गजेंद्र |
8 |
विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों कुरुओं में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर। |
9 |
यमक |
4 |
दो कुरुओं में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर। |
10 |
कांचनगिरि |
200 |
दोनों कुरुओं में पाँच-पाँच द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में दस-दस। |
311 |
- नदियों का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति/4/2380-2385 ); ( हरिवंशपुराण/5/272-277 ); ( त्रिलोकसार/747-750 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/197-198 )।
नाम |
गणना |
प्रत्येक का परिवार |
कुल प्रमाण |
विवरण |
गंगा-सिंधु |
2 |
14000 |
28002 |
भरतक्षेत्र में |
रोहित-रोहितास्या |
2 |
28000 |
56002 |
हेमवत् क्षेत्र में |
हरित हरिकांता |
2 |
56000 |
112002 |
हरि क्षेत्र में |
नारी नरकांता |
2 |
56000 |
112002 |
रम्यक क्षेत्र में |
सुवर्णकूला व रूप्यकूला |
2 |
28000 |
56002 |
हैरण्यवत् क्षेत्र में |
रक्ता-रक्तोदा |
2 |
14000 |
28002 |
ऐरावत क्षेत्र में |
छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ |
|
392012 |
|
|
सीता सीतोदा |
2 |
84000 |
168002 |
दोनों कुरुओं में |
क्षेत्र नदियाँ |
64 |
14000 |
896064 |
32 विदेहों में |
विभंगा |
12 |
× |
12 |
|
विदेह की कुल नदियाँ |
|
|
1064078 |
हरिवंशपुराण व जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो की अपेक्षा |
जंबूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1456090 |
|
विभंगा |
12 |
28000 |
336000 |
|
जंबूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1792090 |
तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा |
- द्रह-कुंड आदि
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण का प्रमाण |
1 |
द्रह |
16 |
कुलाचलों पर 6 तथा दोनों कुरु में 10‒( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/67 )। |
2 |
कुंड |
1792090 |
नदियों के बराबर ( तिलोयपण्णत्ति/4/2386 )। |
3 |
वृक्ष |
2 |
जंबू व शाल्मली ( हरिवंशपुराण/5/8 ) |
4 |
गुफाए |
68 |
34 विजयाधर्मों की ( हरिवंशपुराण/5/10 ) |
5 |
वन |
अनेक |
मेरु के 4 वन भद्रशाल, नंदन, सौमनस व पांडुक। पूर्वा पर विदेह के छोरों पर देवारण्यक व भूतारण्यक। सर्वपर्वतों के शिखरों पर, उनके मूल में, नदियों के दोनों पार्श्व भागों में इत्यादि। |
6 |
कूट |
568 |
( तिलोयपण्णत्ति/4/2396 ) |
7 |
चैत्यालय |
अनेक |
कुंड, वनसमूह, नदियाँ, देव नगरियाँ, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह, दोनों वृक्ष, आर्य खंड के तथा विद्याधरों के नगर आदि सब पर चैत्यालय हैं—(देखें चैत्यालय )। |
8 |
वेदियाँ |
अनेक |
उपरोक्त प्रकार जितने भी कुंड आदि तथा चैत्यालय आदि हैं उतनी ही उनकी वेदियाँ है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/23-88-2390 )। |
|
|
18 |
जंबूद्वीप के क्षेत्रों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
311 |
सर्व पर्वतों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
16 |
द्रहों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
24 |
पद्मादि द्रहों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
90 |
कुंडों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
14 |
गंगादि महानदियों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
|
|
5200 |
कुंडज महानदियों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
9 |
कमल |
2241856 |
कुल द्रह=16 और प्रत्येक द्रह में |
- क्षेत्र निर्देश
- जंबूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वतऔर तीन दिशाओं में लवणसागर है। ( राजवार्तिक/3/10/3/171/12 )। इसके बीचोंबीच पूर्वापरलंबायमान एक विजयार्ध पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/107 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/171/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/20 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/32 )। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिंधु नदी बहती है। (देखें लोक - 3.1) ये दोनों नदियाँ हिमवान् के मूल भाग में स्थित गंगा व सिंधु नाम के दो कुंडों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम दिशा में, उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई विजयार्ध दो गुफा में से निकलकर दक्षिण क्षेत्र के अर्धभाग तक पहुँचकर और पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं, और अपने-अपने समुद्र में गिर जाती हैं - ( देखें लोक - 3.11)। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/266 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3//10/213/6 ); ( राजवार्तिक/3/10/3/171/13 )। विजयार्थ की दक्षिण के तीन खंडों में से मध्य का खंड आर्यखंड है और शेष पाँच खंड म्लेच्छ खंड हैं - (देखें आर्यखंड - 2)। आर्यखंड के मध्य 12×9 यो. विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। ( राजवार्तिक/3/10/1/171/6 )। विजयार्ध के उत्तरवाले तीन खंडों में मध्यवाले म्लेच्छ खंड के बीचों-बीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है जिस पर दिग्विजय कर चुकने पर चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/268-269 ); ( त्रिलोकसार/710 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/107 )।
- इसके पश्चात् हिमवान् पर्वत के उत्तर में तथा महाहिमवान् के दक्षिण में दूसरा हेमवत क्षेत्र है ( राजवार्तिक/3/10/5/172/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/57 )। इसके बहुमध्य भाग में एक गोल शब्दवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है ( तिलोयपण्णत्ति/1704 ); ( राजवार्तिक/3/10/7/172/21 )। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियाँ बहती हैं। (देखें लोक - 3.1.7)। ये दोनों ही नदियाँ नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे 2 कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देती हुई अपनी-अपनी दिशाओं में मुड़ जाती हैं, और बहती हुई अंत में अपनी-अपनी दिशा वाले सागर में गिर जाती हैं। -(देखें आगे लोक - 3.11)।
- इसके पश्चात् महाहिमवान् के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है ( राजवार्तिक/3/10/6/172/19 )। नील के उत्तर में और रुक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवाँ रम्यकक्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/15/181/15 ) पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/18/181/21 ) तहाँ विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हैमवत के समान है। केवल नदियों व नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं - देखें लोक - 3.1/7) व लोक /5/8।
- निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2474 ); ( राजवार्तिक/3/10/12/173/4 )। इस क्षेत्र की दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। ( राजवार्तिक/3/10/13/173/10 )। इसके बहुमध्यभागमें सुमेरु पर्वत है (देखें लोक - 3.6)। (ये क्षेत्र दो भागों में विभक्त हैं - कुरुक्षेत्र व विदेह) मेरु पर्वत की दक्षिण व निषध के उत्तर में देवकुरु है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2138-2139 )। मेरु के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें पृथक् - पृथक् 16, 16 क्षेत्र हैं, जिन्हें 32 विदेह कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2199 )। (दोनों भागों का इकट्ठा निर्देश — राजवार्तिक/3/10/13/173/6 ) (नोट - इन दोनों भागों के विशेष कथन के लिए देखें आगे पृथक् शीर्षक (देखें लोक - 3.12-14) )।
- सबसे अंत में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवणसागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/21/181/28 )। इसका संपूर्ण कथन भरतक्षेत्रवत् है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2365 ); ( राजवार्तिक/3/10/22/181/30 ) केवल इनकी दोनों नदियों के नाम भिन्न हैं (देखें लोक - 3.1.7) तथा 5/8)।
- कुलाचल पर्वत निर्देश
- भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर पूर्व-पश्चिम लंबायमान (देखें लोक - 3.1.2) प्रथम हिमवान् पर्वत है - ( राजवार्तिक/3/11/2/182/6 )। इस पर 11 कूट हैं - ( तिलोयपण्णत्ति/4/1632 ); ( राजवार्तिक/3/11/2/182/16 ); ( हरिवंशपुराण/5/52 ); ( त्रिलोकसार/721 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथा योग्य नामधारी व्यंतर देव व देवियों के भवन हैं (देखें लोक - 5.4)। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्म नाम का हृद है ( तिलोयपण्णत्ति/4/16-58 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर हैमवत् क्षेत्र के उत्तर व हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। ( राजवार्तिक/3/11/4/182/31 )। इस पर पूर्ववत् आठ कूट हैं ( तिलोयपण्णत्ति /4/1724 ); ( राजवार्तिक 3/11/4/183/4 ); ( हरिवंशपुराण 5/70 ); ( त्रिलोकसार/724 )( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नाम का द्रह है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1727 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषधपर्वत है। ( राजवार्तिक/3/11/6/183/11 )। इस पर्वत पर पूर्ववत 9 कूट हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/1758 ); ( राजवार्तिक/3/11/6/183/17 ): ( हरिवंशपुराण/5/87 ): ( त्रिलोकसार/725 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिंछ नाम का द्रह है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1761 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर विदेह के उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चौथा नीलपर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2327 ); ( राजवार्तिक/3/11/8/23 )। इस पर पूर्ववत् 9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2328 ); ( राजवार्तिक/3/11/8/183/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/99 ); ( त्रिलोकसार/729 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित द्रह का नाम केसरी है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2332 ); (देखें लोक - 3.1/4)।
- तदनंतर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश 5वाँ रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2340 ); ( राजवार्तिक/3/11/10/183/30 ); ( हरिवंशपुराण/5/102 ); ( त्रिलोकसार/727 )। इस पर्वत पर महापुंडरीक द्रह है। (देखें लोक - 3.1.4)। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुंड्रीक है। (वि.प./4/2344)।
- अंत में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की संधि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर 11 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2356 ); ( राजवार्तिक/3/11/12/184/3 ); ( हरिवंशपुराण/5/105 ); ( त्रिलोकसार/728 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 ) इस पर स्थित द्रह का नाम पुंड्रीक है (देखें लोक - 3.1/4)। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुंडरीक है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2360 )।
- विजयार्ध पर्वत निर्देश
- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबायमान विजयार्ध पर्वत है (देखें लोक - 3.3.1)। भूमितल से 10 योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियाँ हैं। तहाँ दक्षिण श्रेणी में 55 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं। इन श्रेणियों से भी 10 योजन ऊपर जाकर उसीप्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। (देखें विद्याधर /4)। इसके ऊपर 9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/146 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/172/10 ); हरिवंशपुराण/5/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/48 )। पूर्व दिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य नामधारी व्यंतर व भवनवासी देव रहते हैं। (देखें लोक - 5.4)। इसके मूलभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में तमिस्र व खंडप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिंधु नदी प्रवेश करती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/175 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/17/171/27 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/89 )। रा.वा व. त्रिलोकसार के मत से पूर्व दिशा में गंगाप्रवेश के लिए खंडप्रपात और पश्चिम दिशा में सिंधु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्र गुफा है (देखें लोक - 3.10)। इन गुफाओं के भीतर बहु मध्यभाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गंगा और सिंधु में मिल जाती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/237 ), ( राजवार्तिक/3/10/4/171/31 ); ( त्रिलोकसार/593 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/95-98 );
- इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजयार्ध है, जिसका संपूर्ण कथन भरत विजयार्धवत् है (दे .लोक /3/3)। कूटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्य पूर्वापर लंबायमान विजयार्ध पर्वत है। जिनका संपूर्ण वर्णन भरत विजयार्धवत् है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में 55, 55 नगर हैं . ( तिलोयपण्णत्ति/4/2257, 2260 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/20 ); ( हरिवंशपुराण/5/255-256 ); ( त्रिलोकसार/611-695 )। इनके ऊपर भी 9,9 कूट हैं ( त्रिलोकसार/692 )। परंतु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- सुमेरु पर्वत निर्देश
- सामान्य निर्देश
विदेहक्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1780 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/173/16 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/21 )। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूपमाना जाता है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1780 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/21 ), क्योंकि इसके शिखर पर पांडुकवन में स्थित पांडुक आदि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थंकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं (देखें लोक - 3.3.4)। यह तीनों लोकों का मानदंड है, तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मंदर आदि अनेकों नाम हैं (देखें सुमेरु - 2)।
- मेरु का आकार
यह पर्वत गोल आकार वाला है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1782 )। पृथिवी तलपर 10,0,00 योजन विस्तार तथा 99,000 योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानिरूप होता हुआ इसका विस्तार शिखर पर जाकर 1000 योजन रह जाता है। (देखें लोक चित्र - 6.4)। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है - क्रम से हानिरूप होता हुआ पृथिवी तल से 500 योजन ऊपर जाने पर नंदनवन के स्थान पर यह चारों ओर से युगपत् 500 योजन संकुचित होता है। तत्पश्चात् 11,000 योजन समान विस्तार से जाता है। पुनः 51,500 योजन क्रमिक हानिरूप से जानेपर सौमनस वन के स्थान पर चारों ओर से 500 यो. संकुचित होता है। यहाँ से 11,000 योजन तक पुनः समान विस्तार से जाता है उसके ऊपर 25,000 योजन क्रमिक हानिरूप से जाने पर पांडुकवन के स्थान पर चारों ओर से युगपत् 494 योजन संकुचित होता है। (ति. /4/1788-1791); ( हरिवंशपुराण/5/287-301 ) इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनों के स्थान पर क्रम से 10,000 9954(6/11), 4272(8/11) तथा 1000 योजन प्रमाण है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1783 + 1990+ 1939+ 1810); ( हरिवंशपुराण/5/287-301 ) और भी देखें लोक - 6.6 में इन वनों का विस्तार)। इस पर्वत के शीश पर पांडुक वन के बीचों बीच 40 यो. ऊँची तथा 12 यो. मूल विस्तार युक्त चूलिका है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1814 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/14 ); ( हरिवंशपुराण/5/302 ); ( त्रिलोकसार/637 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/132 ); (विशेष देखें लोक - 6.4-2 में चूलिका विस्तार)।
- मेरु की परिधियाँ
नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयी, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयी। इन छहों में से प्रत्येक 16,500 यो. ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथिवी उपल बालु का आदि रूप होने के कारण) नाना प्रकार है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1802-1804 ), ( हरिवंशपुराण/5/304 )। दूसरी मान्यता के अनुसार ये सातों परिधियाँ क्रम से लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, वैडूर्य, वज्र, हरिताल और जांबूनद-सुवर्णमयी हैं। प्रत्येक परिधि की ऊँचाई 16500 योजन है। पृथिवीतल के नीचे 1000 यो. पृथिवी, उपल, बालु का और शर्करा ऐसे चार भाग रूप हैं। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन कांडकों रूप है। प्रथम कांडक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जांबूनदमयी और तीसरा कांडक चूलिका का है जो वैडूर्यमयी है।
- वनखंड निर्देश
- सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1805 ); ( हरिवंशपुराण/5/307 ) इस वनकी चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2003 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/49 ) इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेरु की दक्षिण व सीतोदा के पूर्व में है। तीसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतीदा के उत्तर में है और चौथा मेरु के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। ( राजवार्तिक/3/10/178/18 ) इन चैत्यालयों का विस्तार पांडुक वन के चैत्यालयों से चौगुना है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2004 )। इस वन में मेरु की चारों तरफ सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके आठ दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। (देखें लोक - 3.12)
- भद्रशाल वन से 500 योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। (देखें पिछला उपशीर्षक - 1)। इसके दो विभाग हैं नंदन व उपनंदन। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); हरिवंशपुराण/5/308 ) इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारणा, गंधर्व व चित्र नाम के चार भवन हैं जिनमें क्रम से सौधर्म इंद्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं।) ( तिलोयपण्णत्ति/4/1994-1996 ); ( हरिवंशपुराण/315-317 ); ( त्रिलोकसार/619, 621 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/83-84 )। कहीं-कहीं इन भवनों को गुफाओं के रूप में बताया जाता है। ( राजवार्तिक/3/10/13/179/14 )। यहाँ भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1998 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/32 ); ( हरिवंशपुराण/5/358 ); ( त्रिलोकसार/611 )। प्रत्येक जिनभवन के आगे दो-दो कूट हैं - जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा ये आठ कूट इस वन में न होकर सौमनस वन में ही हैं। (देखें लोक - 5.5)। चारों विदिशाओं में सौमनस वन की भाँति चार-चार करके कुल 16 पुष्करिणियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1998 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/25 ); ( हरिवंशपुराण /5/334-335 +343 - 346); ( त्रिलोकसार/628 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/110-113 )। इस वन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है जिसका कथन सौमनस वन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1997 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/16 ); ( हरिवंशपुराण/5/328 ); ( त्रिलोकसार/624 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/99 )।
- नंदन वन में 62500 योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है। देखें लोक - 3.6,1)। इसके दो विभाग हैं- सौमनस व उपसौमनस ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); ( हरिवंशपुराण/5/308 )। इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, ( तिलोयपण्णत्ति/4/1943 ); ( हरिवंशपुराण/5/319 ); ( त्रिलोकसार/620 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/91 ) इनमें भी नंदन वन के भवनोंवत् सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। ( त्रिलोकसार/621 )। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1946 (1962-1966); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/7 )। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/1968 ); ( हरिवंशपुराण/5/357 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )। प्रत्येक जिन मंदिर संबंधी बाह्य कोटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं। जिनपर दिक्ककुमारी देवियाँ रहती हैं। (देखें लोक - 5.5)। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कूट है जो 500 योजन तो वन के भीतर है और 500 योजन उसके बाहर आकाश में निकला हुआ है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1981 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/101 ); इस पर बलभद्र देव रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1984 ) मतांतर की अपेक्षा इस वन में आठ कूट व बलभद्र कूट नहीं हैं। ( राजवार्तिक/3/10/13/180/6 )। (देखें सामनेवाला चित्र )। 4. सौमनस वनसे 36000 योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पांडुक वन है। (देखें लोक - 3.6,1) जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1814 )। इसके दो विभाग हैं - पांडुक व उपपांडुक। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); ( हरिवंशपुराण/5/309 )। इसके चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हरिद्र और पांडुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1836, 1852 ); ( हरिवंशपुराण/5/322 ), ( त्रिलोकसार/620 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/93 ); चारों विदिशाओं में चार-चार करके 16 पुष्करिणियाँ हैं। ( राजवार्तिक/3/10/16/180/26 )। वन के मध्य चूलिका की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1855, 1935 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/354 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )। वन की ईशान आदि दिशाओं में अर्ध चंद्राकार चार शिलाएं हैं - पांडुक शिला, पांडुकंबला शिला, रक्ताकंबला शिला और रक्तशिला। राजवार्तिक के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति /4/1818, 1830-1834 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/15 ); ( हरिवंशपुराण/5/347 ); ( त्रिलोकसार/633 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/138-141 )। इन शिलाओंपर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1827,1831-1835 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/22 ); ( हरिवंशपुराण/5/353 ); ( त्रिलोकसार/634 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/148-150 )।
- सामान्य निर्देश
- पांडुकशिला निर्देश
पांडुक शिला 100 योजन /लंबी 50 योजन चौड़ी है, मध्य में 8 योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमशः हीन होती गयी है। इस प्रकार यह अर्धचंद्रकार है। इसके बहुमध्यदेश में तीन पीठ युक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पार्श्व भागों में तीन पीठ युक्त ही एक भद्रासन है। भगवान् के जन्माभिषेक के अवसर पर सौधर्म व ऐशानेंद्र दोनों इंद्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं और भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1819-1829 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/20 ); ( हरिवंशपुराण/5/349-352 ); ( त्रिलोकसार/635-636 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/142-147 )।
- अन्य पर्वतों का निर्देश
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। ( हरिवंशपुराण/5/161 ); ( त्रिलोकसार/718-719 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/209 ); (वि.देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1704 ); ( त्रिलोकसार/718 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/210 )।
- मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकारवाले चार गजदंत पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। तहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2012-2014 )। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार इन पर्वतों के परभाग भद्रशाल वन की वेदी को स्पर्श करते हैं, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अंतराल 53000 यो. बताया गया है। तथा सग्गायणी के अनुसार उन वेदियों से 500 यो. हटकर स्थित है, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अंतराल 52000 यो. बताया है। (देखें लोक - 6.3.1 में देवकुरु व उत्तरकुरु का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो-जो भी नामवाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से 7,9,7,9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2031, 2046, 2058, 2060 ); ( हरिवंशपुराण/5/216 ), (विशेष देखें लोक - 5.3.3)। मतांतर से इन पर क्रम से 7,10,7,9 कूट हैं। ( राजवार्तिक/30/10/13/173/23,30/14/18 )। ईशान व नैर्ऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदंतों के मूल में सीता व सीतोदा नदियों के निकलने के लिए एक-एक गुफा होती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2055, 2063 )।
- देवकुरु व उत्तरकुर में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत हैं (देखें आगे लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.1 में इनका विस्तार )। इन पर इन इन के नामवाले व्यंतर देव सपरिवार रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2084 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/28 )। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रह के कमलोंवत् है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/92-102 )।
- उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्वभागों में कांचन शैल स्थित है। (देखें आगे लोक - 3.12) ये पर्वत गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.2 में इनका विस्तार) इनके ऊपर कांचन नामक व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2099 ); ( हरिवंशपुराण/5/204 ); ( त्रिलोकसार/659 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर से बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेंद्र पर्वत हैं (देखें लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं (देखें लोक - 6.4 में इनका विस्तार)। इन पर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवों के भवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2106, 2108, 2031 )। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं। ( हरिवंशपुराण/5/209 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/81 )।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर-दक्षिण लंबायमान, 4, 4 करके कुल 16 वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2200, 2224, 2230 ); ( हरिवंशपुराण/5/228-232 ) (और भी देखें आगे लोक - 3.14)। प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट हैं; नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटों पर व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2309-2311 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/234-235 )। इन कूटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत् है। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/7 )।
- भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खंडों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खंड में बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (देखें लोक - 3.3)। यह गोल आकार वाला है। (देखें लोक - 6.4 में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (देखें लोक - 3.14)।
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। ( हरिवंशपुराण/5/161 ); ( त्रिलोकसार/718-719 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/209 ); (वि.देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1704 ); ( त्रिलोकसार/718 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/210 )।
- द्रह निर्देश
- हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है। (देखें लोक - 3.4)। इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में 5 कूट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट हैं। (देखें लोक - 5.3)। हृद के मध्य में एक बड़ा कमल है, जिसके 11000 पत्ते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1667,1670 ); ( त्रिलोकसार/569 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/75 ); इस कमल पर ‘श्री’ देवी रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1672 ); (देखें लोक - 3.1-6)। प्रधान कमल की दिशा-विदिशाओं में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल 1,40,116 हैं। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल 4000 कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक में 4000(कुल 16000) कमल आत्मरक्षकों के हैं। आग्नेय दिशा में 32,000 कमल आभ्यंतर पारिषदों के, दक्षिण दिशा में 40,000 कमल मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में 7 कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं। तथा दिशा व विदिशा के मध्य आठ अंतर दिशाओं में 108 कमल त्रायस्त्रिंशों के हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1675-1689 ); ( राजवार्तिक/3/17-/185/11 ); ( त्रिलोकसार/572-576 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/91-123 )। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारों से क्रम से गंगा, सिंधु व रोहितास्या नदी निकलती है। (देखें आगे शीर्षक - 11)। (देखें चित्र सं - 24, पृ. 470)।
- महाहिमवान् आदि शेष पाँच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुंडरीक और पुंडरीक नाम के ये पाँच द्रह हैं। (देखें लोक - 3.4), इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्महृदवत् ही जानना। विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियों के नाम क्रम से ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी हैं। (देखें लोक - 3.16)। व कमलों की संख्या तिगिंछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिंछवत्, महापुंडरीक की महापद्मवत् और पुंडरीक की पद्मवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1728-1729; 1761-1762; 2332-2333; 2345-2361 )। अंतिम पुंडरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (देखें लोक - 3.17 व 11 )। ( तिलोयपण्णत्ति में महापुंडरीक के स्थान पर रुक्मि पर्वत पर पुंडरीक और पुंडरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुंडरीक द्रह कहा है - (देखें लोक - 3.4)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं।अथवा दूसरी मान्यता से 20 द्रह हैं। (देखें आगे लोक - 3.12) इनमें देवियों के निवासभूत कमलों आदि का संपूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना ( तिलोयपण्णत्ति/4/2093, 2126 ); ( हरिवंशपुराण/5/198-199 ); ( त्रिलोकसार/658 ); (अ.प./6/124-129)। ये द्रह नदी के प्रवेश व निकास के द्वारों से संयुक्त हैं। ( त्रिलोकसार/658 )।
- सुमेरु पर्वत के नंदन, सौमनस व पांडुक वन में 16,16 पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेंद्र क्रीड़ा करते हैं। तहाँ मध्य में इंद्रका आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक आसन प्रतींद्रका , अग्रभाग में आठ आसन अग्रमहिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में 84,00,000 आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में 12,00,000 आसन अभ्यंतर पारिषदों से, दक्षिण में 14,00,000 आसन मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 16,00,000 आसन बाह्य पारिषदों के, तथा उसी दिशा में 33 आसन त्रायस्त्रिंशों के, पश्चिम में छह आसन महत्तरों के और एक आसन महत्तरिका का है। मूल मध्य सिंहासन के चारों दिशाओं में 84,000 आसन अंगरक्षकों के हैं। (इस प्रकार कुल आसन 1,26,84,054 होते हैं)। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1949-1960 ), ( हरिवंशपुराण/5/336-342 )।
- कुंड निर्देश
- हिमवान् पर्वत के मूलभाग से 25 योजन हटकर गंगा कुंड स्थित है। उसके बहुमध्य भाग में एक द्वीप है, जिसके मध्य में एक शैल है। शैल पर गंगा देवी का प्रासाद है। इसी का नाम गंगाकूट है। उस कूट के ऊपर एक-एक जिनप्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/216-230 ); ( राजवार्तिक/3/2/1/187/26 व 188/1); ( हरिवंशपुराण/5/142 ); ( त्रिलोकसार/586-587 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ 3/34-37 व 154-162)।
- उसी प्रकार सिंधु आदि शेष नदियों के पतन स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों के नीचे सिंधु आदि कुंड जानने। इनका संपूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुंडवत् है विशेषता यह कि उन कुंडों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनी-अपनी नदियों के समान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/261-262;1696 ); ( राजवार्तिक/3/22/1/188/1,18,26,29 +188/6,9,12,16, 20,23,26, 29)। भरत आदि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों से उन कुंडों का अंतराल भी क्रम से 25,50, 100, 200, 100, 50, 25 योजन है। ( हरिवंशपुराण/5/151-157 )।
- 32 विदेहों में गंगा, सिंधु व रक्ता, रक्तोदा नामवाली 64 नदियों के भी अपने-अपने नाम वाले कुंड नील व निषध पर्वत के मूलभाग में स्थित हैं। जिनका संपूर्ण वर्णन उपर्युक्त गंगा कुंडवत् ही है। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/24,29 +177/11)।
- नदी निर्देश
- हिमवान् पर्वत पर पद्मद्रह के पूर्वद्वार से गंगानदी निकलती है ( तिलोयपण्णत्ति/4/196 ); ( राजवार्तिक/3/22/1/187/22 ) : ( हरिवंशपुराण/5/132 ): ( त्रिलोकसार/582 ):( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/147 )। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम की देवी रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/205-209/ ): ( राजवार्तिक/3/22/2/188/3 )। द्रह से 500 योजन आगे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगा कूट से 1/2 योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण की ओर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् 523 /29/152 योजन आगे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है। फिर उसके मुख में से निकलती हई पवर्त के ऊपर से अधोमुखी होकर उसकी धारा नीचे गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/210-214 ), ( राजवार्तिक/3/22/1/187/22 ): ( हरिवंशपुराण/5/138-140 ): ( त्रिलोकसार/582/584 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3147-149 )। वहाँ पर्वत के मूल से 25 योजन हटकर वह धार गंगाकुंड में स्थित गंगाकूट के ऊपर गिरती है (देखें लोक - 3.9)। इस गंगाकुंड के दक्षिण द्वार से निकलकर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजयार्ध की तमिस्र गुफा में प्रवेश करती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/232-233 ): ( राजवार्तिक/3/22/1/187/27 ): ( हरिवंशपुराण/5/148 ): ( त्रिलोकसार/591 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/174 )। ( राजवार्तिक , व त्रिलोकसार में तमिस्र गुफा की बजाय खंडप्रपात नाम की गुफा में प्रवेश कराया है ) उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना व निमग्ना नदी को अपने में समाती हई ( तिलोयपण्णत्ति/4/241 ) :(देखें लोक - 3.5) गुफा के दक्षिण द्वार से निकलकर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात 119/3/19 योजन तक दक्षिण की ओर जाती है। तत्पश्चात पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/243-244 ) : ( राजवार्तिक/3/22/1/187/28 ) :( हरिवंशपुराण/5/148-149 ),( त्रिलोकसार/596 )। इसकी परिवार नदियाँ कुल 14,000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1/244 ): ( हरिवंशपुराण/5/149 ): (देखें लोक - 3.19),ये सब परिवार नदियाँ म्लेच्छ खंड में ही होती हैं आर्यखंड में नहीं (देखें म्लेच्छ - 1),
- सिंधु नदी का संपूर्ण कथन गंगा नदीवत है। विशेष यह कि पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिंधुकुंड में स्थित सिंधुकूट पर गिरती है। विजयार्ध की खंडप्रपात गुफा को प्राप्त होती है।अथवा राजवार्तिक व त्रिलोकसार की अपेक्षा तमिस्र गुफा को प्राप्त होती है।पश्चिम की ओर मुड़कर प्रभास तीर्थ के स्थान पर पश्चिम लवण सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/252-264 ):( राजवार्तिक 3/22/2/187/31 ): ( हरिवंशपुराण/5/151 ): ( त्रिलोकसार/597 )- (देखें लोक - 3.108) इसकी परिवार नदियाँ 14000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/264 ); (देखें लोक - 3.1,9)।
- हिमवान् पर्वत के ऊपर पद्मद्रह के उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वत के ऊपर 276(6/19) योजन चलकर पर्वत के उत्तरी किनारे को प्राप्त होती है, फिर गंगा नदीवत् ही धार बनकर नीचे रोहितास्या कुंड में स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1695 ); ( राजवार्तिक/3/22/3/188/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/153 + 163); ( त्रिलोकसार/598 ) कुंड के उत्तरी द्वार से निकलकर उत्तरमुखी बहती हुई वह हैमवत् क्षेत्र के मध्यस्थित नाभिगिरि तक जाती है। परंतु उससे दो कोस इधर ही रहकर पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम दिशा में उसके अर्धभाग के सम्मुख होती है। वहाँ पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के अर्ध आयाम प्रमाण क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई अंत में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1713-1716 ); ( राजवार्तिक/3/22/3/188/11 ); ( हरिवंशपुराण/5/163 ); ( त्रिलोकसार/598 ); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियों का प्रमाण 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1716 ); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत् के ऊपर महापद्म हृद के दक्षिण द्वार से रोहित नदी निकलती है। दक्षिणमुखी होकर 1605 (5/19) यो. पर्वत के ऊपर जाती है। वहाँ से पर्वत के नीचे रोहितकुंड में गिरती है और दक्षिणमुखी बहती हुई रोहितास्यावत् ही हैमवतक्षेत्र में, नाभिगिरि से 2 कोस इधर रहकर पूर्व दिशा की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की ओर मुड़कर क्षेत्र के बीच में बहती हुई अंत में पूर्व लवणसागर में गिर जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1735-1737 ); ( राजवार्तिक/3/22/4/188/15 ) ( हरिवंशपुराण/5/154 +163); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/212 ); (देखें लोक - 3.1-8)। इसकी परिवार नदियाँ 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1737 ); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत के ऊपर महापद्म हृद के उत्तर द्वार से हरिकांता नदी निकलती है। वह उत्तरमुखी होकर पर्वत पर 1605 (5/19) यो. चलकर नीचे हरिकांता कुंड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1747-1749 ); ( राजवार्तिक/3/22/5/188/19 ); ( हरिवंशपुराण/5/155 +163)। (देखें लोक - 3.1-8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1749 ); (देखें लोक - 3.1-9);।
- निषध पर्वत के तिगिंछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो 7421(1/19) यो. पर्वत के ऊपर जा, नीचे हरित कुंड में गिरती है। वहाँ से दक्षिणमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड़ जाती है। और क्षेत्र के बीचोबीच बहती हुई पूर्व लवणसागर में गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1770-1772 ); ( राजवार्तिक/3/22/6/188/27 ); ( हरिवंशपुराण/5/156 +163); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1772 ); (देखें लोक - 3.1,9)।
- निषध पर्वत के तिगिंछह्रद के उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वत के उत्तर 7421(1/19) यो. जाकर नीचे विदेह क्षेत्र में स्थित सीतोदा कुंड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहँचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई, विद्युत्प्रभ गजदंत की गुफा में से निकलती है। सुमेरु के अर्धभाग के सम्मुख हो वह पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। और पश्चिम विदेह के बीचोंबीच बहती हुई अंत में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति 4/2065-2073 ); ( राजवार्तिक/3/22/7/188/32 ); ( हरिवंशपुराण/5/157 +163); (देखें लोक - 3.1,8)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरु में 84,000 और पश्चिम विदेह में 4,48,038 (कुल 5,32,038) हैं (विभंगा की परिवार नदियाँ न गिनकर लोक /3/2/3वत् ); ( तिलोयपण्णत्ति/4/2071-2072 )। लोक/3/1,9 की अपेक्षा 1,12,000 हैं।
- सीता नदी का सर्व कथन सीतोदावत् जानना। विशेषता यह कि नील पर्वत के केसरी द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है। सीता कुंड में गिरती है। माल्यवान् गजदंत की गुफा से निकलती है। पूर्व विदेह में से बहती हुई पूर्व सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति//4/2116-2121 ); ( राजवार्तिक/3/22/8/189/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/55-56 ); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2121-2122 )।
- नरकांता नदी का संपूर्ण कथन हरितवत् है। विशेषता यह कि नीलपर्वत के केसरी द्रह के उत्तर द्वार से निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्र के बीच में से बहती है और पश्चिम सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2337-2339 ); ( राजवार्तिक 3/22/9/189/11 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 ); (देखें लोक - 3.1-8)।
- नारी नदी का संपूर्ण कथन हरिकांतावत् है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वत के महापुंडरीक ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक) द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2347-2349 ); ( राजवार्तिक/3/22/10/189/14 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 ); (देखें लोक - 3.18)
- रूप्यकूला नदी का संपूर्ण कथन रोहितनदीवत् है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वत के महापुरंडरीक हृद के ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक के) उत्तर द्वार से निकलती है और पश्चिम हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पश्चिमसागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2352 ); ( राजवार्तिक/3/22/11/189/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 );(देखें लोक - 3.1.8) .
- सुवर्णकूला नदी का संपूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत् है। विशेषता यह कि यह शिखरी के पुंडरीक ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा महापुंडरीक) हृद के दक्षिणद्वार से निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2362 ); ( राजवार्तिक/3/22/12/189/21 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 ); (देखें लोक - 3.1.8)।
- 13-14 रक्ता व रक्तोदाका संपूर्ण कथन गंगा व सिंधुवत् है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वत के महापुंडरीक ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक) हृद के पूर्व और पश्चिम द्वार से निकलती हैं। इनके भीतरी कमलाकार कूटों के पर्वत के नीचेवाले कुंडों व कूटों के नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्र के पूर्व व पश्चिम में बहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2367 ); ( राजवार्तिक/3/22/13-14/189/25,28 ); ( हरिवंशपुराण/5/159 ); (त्रिसा./599); (देखें लोक - 3.18)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में भी गंगा नदी की भाँति गंगा, सिंधु व रक्ता-रक्तोदा नाम की क्षेत्र नदियाँ (देखें लोक - 3.14)। इनका संपूर्ण कथन गंगानदीवत् जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/22-63 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/27 ); ( हरिवंशपुराण/5/168 ); ( त्रिलोकसार/691 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/22 )। इन नदियों की भी परिवार नदियाँ 14,000, 14,000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2265 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/28 )।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में - से प्रत्येक में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ तीन-तीन करके कुल 12 विभंगा नदियाँ हैं। (देखें लोक - 3.14) ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतों से निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती हैं ( हरिवंशपुराण/5/239-243 ) ये नदियाँ जिन कुंडों से निकलती हैं वे नील व निषध पर्वत के ऊपर स्थित हैं। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/12 )। प्रत्येक नदी का परिवार 28,000 नदी प्रमाण है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2232 ); ( राजवार्तिक/3/10/132/176/14 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश
- जंबूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नंबरवाले विदेहक्षेत्र के बहमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुरु स्थित हैं (देखें लोक - 3.3)। सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को स्पर्श करते हैं और दसरी ओर सुमेरु को - देखें लोक - 3.8। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशा में ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदंत पर्वतों से घिरे हुए हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2131,2191 ); ( हरिवंशपुराण/5/167 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/2,81 )।
- तहाँ देवकुरु में निषधपर्वत से 1000 योजन उत्तर में जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यमक नाम के दो शैल हैं, जिनका मध्य अंतराल 500 योजन है। अर्थात् नदी के तटों से नदी के अर्ध विस्तार से हीन 225 यो. हटकर स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2075-2077 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/26 ); ( हरिवंशपुराण/5/192 ); ( त्रिलोकसार 654-655 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/87 )। इसी प्रकार उत्तर कुरु में नील पर्वत के दक्षिण में 1000 योजन जाकर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमक हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2132-2124 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/25 ); ( हरिवंशपुराण/5/191 ); ( त्रिलोकसार/654 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/15-18 )।
- इन यमकों से 500 योजन उत्तर में जाकर देवकुरु की सीतोदा नदी के मध्य उत्तर दक्षिण लंबायमान 5 द्रह हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2089 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/196 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/83 )। मतांतर से कुलाचल से 550 योजन दूरी पर पहला द्रह है। ( हरिवंशपुराण/5/194 )। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त हैं। ( त्रिलोकसार/658 )। (तात्पर्य यह है कि यहाँ नदी की चौड़ाई तो कम है और हृदों की चौड़ाई अधिक। सीतोदा नदी के हृदों के दक्षिण द्वारों से प्रवेश करके उन के उत्तरी द्वारों से बाहर निकल जाती है। हृद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। ) अंतिम द्रह से 2092(2/19) योजन उत्तर में जाकर पूर्व व पश्चिम गजदंतों की वनकी वेदी आ जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2100-2101 ); ( त्रिलोकसार/660 )। इसी प्रकार उत्तरकुरु में भी सीता नदी के मध्य 5 द्रह जानना। उनका संपूर्ण वर्णन उपर्युक्तवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2125 );( राजवार्तिक/3/10/13/14/29 ); ( हरिवंशपुराण/5/194 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/26 )। (इस प्रकार दोनों कुरुओं में कुल 10 द्रह हैं। परंतु मतांतर से द्रह 20 हैं )। -- मेरु पर्वत की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पाँच हैं। उपर्युक्तवत् 500 योजन अंतराल से सीता व सीतोदा नदी में ही स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2136 ); ( त्रिलोकसार/656 )। इनके नाम ऊपर वालों के समान हैं। - (दे./लोक/5)।
- दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस-दस करके कुल 200 कांचन शैल हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2094-2126 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/2 +715/1); ( हरिवंशपुराण/5/200 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/44,144 )। पर 20 द्रहों वाली दूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों पार्श्व भागों में पाँच-पाँच करके कुल 200 कांचन शैल हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2137 ); ( त्रिलोकसार/659 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर, तथा इन कुरुक्षेत्रों से बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक-एक करके कुल 8 दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2103, 2112, 2130, 2134 ), ( राजवार्तिक/3/10/13/178/5 ); ( हरिवंशपुराण/5/205-209 ); ( त्रिलोकसार/661 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/74 )।
- देवकुरु में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरु में सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर, तथा इसी प्रकार दोनों कुरुओं से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतोदा के उत्तर तट पर मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2109-2111 +2132-2133)।
- निषध व नील पर्वतों से संलग्न संपूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लंबी, दक्षिण-उत्तर लंबायमान भद्रशाल वन की वेदी है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2114 )।
- देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ गजदंत के पूर्व में, सीतोदा के पश्चिम में और सुमेरु के नैर्ऋत्य दिशा में शाल्मली वृक्षस्थल है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2146-2147 ); ( राजवार्तिक 3/10/13/175/23 ); ( हरिवंशपुराण/5/187 ); (विशेष देखें आगे लोक/3/13) सुमेरु की ईशान दिशा में, नील पर्वत के दक्षिण में, माल्यवंत गजदंत के पश्चिम में, सीता नदी के पूर्व में जंबू वृक्षस्थल है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2194-2195 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/17/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/172 ); ( त्रिलोकसार/639 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/57 )।
- जंबू व शाल्मली वृक्षस्थल
- देवकुरु व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जंबूवृक्ष हैं। (देखें लोक - 3.12)। ये वृक्ष पृथिवीमयी हैं (देखें वृक्ष ) तहाँ शाल्मली या जंबू वृक्ष का सामान्यस्थल 500 योजन विस्तार युक्त होता है तथा मध्य में 89 योजन और किनारों पर 2 कोस मोटा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2148-2149 ); ( हरिवंशपुराण/5/174 ); ( त्रिलोकसार/640 )। मतांतर की अपेक्षा वह मध्य में 12 योजन और किनारों पर 2 कोट मोटा है। ( राजवार्तिक/3/7/1/169/18 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/58; 149 )।
- यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्टित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूल में 12 और ऊपर 4 योजन विस्तृत है। पीठ के मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल आठ योजन ऊँचा है। उसका स्कंध दो योजन ऊँचा तथा एक कोस मोटा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2151-2155 ); ( राजवार्तिक/3/7/1/169/19 ); ( हरिवंशपुराण/5/173 ‒177): ( त्रिलोकसार/639 ‒641/648): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/60-64, 154-155 )।
- इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन लंबी तथा इतने ही अंतराल से स्थित चार महाशाखाएँ हैं। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जंबूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेष तीन शाखाओं पर व्यंतर देवों के भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्ष पर वेणु व वेणुधारी तथा जंबू वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक आदृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2156-2165-2196 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/7 +175/25); ( हरिवंशपुराण/5/177-182 +189); (त्रि, सा./6/47-649+652); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/65-67-86; 156-160 )।
- इस स्थल पर एक के पीछे एक करके 12 वेदियाँ हैं, जिनके बीच 12 भूमियाँ हैं। यहाँ पर हरिवंशपुराण में वापियों आदि वाली 5 भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली 7 भूमियाँ बतायी हैं . ( तिलोयपण्णत्ति/4/1267 ); ( हरिवंशपुराण/5/183 ); ( त्रिलोकसार/641 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/151-152 )। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणुयुगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं।
- तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित हैं। द्वितीय में वन-वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में 27 करके कुल 108 वृक्ष महामान्यों अर्थात् त्रायस्त्रिंशों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित वृक्षों पर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवीं में केवल वापियाँ हैं। छठीं में वनखंड हैं। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल 16,000 वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य, ईशान व उत्तर दिशा में कुल 4000 वृक्ष सामानिकों के हैं। नवम की आग्नेय दिशा में कुल 32,000 वृक्ष अभ्यंतर पारिषदों के हैं। दसवीं की दक्षिण दिशा में 40,000 वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवीं की नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बारहवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं। सब वृक्ष मिलकर 1,40,120 होते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2169-2181 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/10 ); ( हरिवंशपुराण/5/183-186 ); ( त्रिलोकसार/642-646 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/68-74;162-167 )।
- स्थल के चारों ओर तीन वन खंड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवाह देव रहते हैं। ( राजवार्तिक/ में इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं ) इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। (ति.प/4/2184-2190); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/18 )।
- विदेह के 32 क्षेत्र
- पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों (देखें लोक - 3.12) से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभंगा के क्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये 32 खंड उसके 32 क्षेत्र कहलाते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2200-2209 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/30 +177/5, 15,24); ( हरिवंशपुराण/5/228,243,244 ); ( त्रिलोकसार/665 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ का पूरा 8वाँ अधिकार)।
- उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2233 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/14 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/33 )। इनके मध्य में पूर्वापर लंबायमान भरत क्षेत्र के विजयार्धवत् एक विजयार्ध पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2257 ); ( राजवार्तिक/10/13/176/19 )। उसके उत्तर में स्थित नील पर्वत की वनवेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुंड हैं, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हई वे विजयार्ध की दोनों गुफाओं में से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भाँति यह देश भी छह खंडों में विभक्त हो गया है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2262 ‒2268); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/23 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/72 )। यहाँ भी ऊपर म्लेच्छ खंड के मध्य एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2290 ‒2291): ( त्रिलोकसार/710 ) इस क्षेत्र के आर्य खंड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2268 ): ( राजवार्तिक/3/10/13/176/32 )। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजयार्ध के कारण छह-छह खंड उत्पन्न हो गये हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2292 ); ( हरिवंशपुराण/5/267 ); (ति.सा./691)। विशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा-सिंधु नदियाँ बहती हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/2295-2296 ) मतांतर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा-सिंधु व दक्षिणी क्षेत्रों में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2304 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/28, 31 +177/10); ( हरिवंशपुराण/5/267-269 ); ( त्रिलोकसार/692 )।
- पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखंडों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2305-2306 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/177/12 ); ( त्रिलोकसार/678 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/104 )।
- पश्चिम विदेह के अंत में जंबूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2203,2325 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/177/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/281 ); ( त्रिलोकसार/672 )। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अंत में जंबूद्वीप की जगती के पास सीता नदी के दोनों ओर देवारण्यक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2315-2316 )। (देखें चित्र नं - 13)।