लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
From जैनकोष
- लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय
पृथिवी, इसके चारों ओर का वायुमंडल, इसके नीचे की रचना तथा इसके ऊपर आकाश में स्थित सौरमंडल का स्वरूप आदि, इनके ऊपर रहने वाली जीव राशि, इनमें उत्पन्न होने वाले पदार्थ, एक दूसरे के साथ इनका संबंध। ये सब कुछ वर्णन भूगोल का विषय है। प्रत्यक्ष होने से केवल इस पृथिवी मंडल की रचना तो सर्व सम्मत है, परंतु अन्य बातों का विस्तार जानने के लिए अनुमान ही एकमात्र आधार है। यद्यपि आधुनिक यंत्रों से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखंडों का भी प्रत्यक्ष करना संभव है पर असीम लोक की अपेक्षा वह किसी गणना में नहीं है। यंत्रों से भी अधिक विश्वस्त योगियों की सूक्ष्म दृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों की रचना के रूप में यह सब कथन व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति व अवनतिका प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतंत्र विषय होने के कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना संभव नहीं है। आज तक भारत में भूगोल का आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषय का स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी। सभी की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न होती हुई भी कुछ अंशों में मिलती हैं। जैन व वैदिक भूगोल काफी अंशों में मिलता है। वर्तमान भूगोल के साथ किसी प्रकार भी मेल बैठता दिखाई नहीं देता, परंतु यदि विशेषज्ञ चाहें तो इस विषय की गहराइयों में प्रवेश करके आचार्यों के प्रतिपादन की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं। इन्हीं सब दृष्टियों की संक्षिप्त तुलना इस अधिकार में की गयी है।
- जैनाभिमत भूगोल-परिचय
जैसा कि अगले अधिकारों पर से जाना जाता है, इस अनंत आकाश के मध्य का वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें कि जीव, पुद्गल आदि षट्द्रव्य समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है, जो इस समस्त आकाश की तुलना में ना के बराबर है। - लोक नाम से प्रसद्धि आकाश का यह खंड मनुष्याकार है तथा चारों ओर तीन प्रकार की वायुओं से वेष्ठित है। लोक के ऊपर से लेकर नीचे तक बीचों-बीच एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त त्रसनाली है। त्रस जीव इससे बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते हैं। यह तीन भागों में विभक्त हैं - अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में नारकी जीवों के रहने के अति दु:खमय रौरव आदि सात नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं, और ऊर्ध्वलोक में करोड़ों योजनों के अंतराल से एक के ऊपर एक करके 16स्वर्गों में कल्पवासी विमान हैं। जहाँ पुण्यात्मा जीव मरकर जन्मते हैं। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकांतिकों के रहने का स्थान है, तथा लोक के शीर्ष पर सिद्धलोक है जहाँ कि मुक्त जीव ज्ञानमात्र शरीर के साथ अवस्थित हैं। मध्यलोक में वलयाकार रूप से अवस्थित असंख्यातों द्वीप व समुद्र एक के पीछे एक को वेष्ठित करते हैं। जंबू, धातकी, पुष्कर आदि तो द्वीप हैं और लवणोद, कालोद, वारुणीवर, क्षीरवर, इक्षुवर, आदि समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दूने विस्तार युक्त हैं। सबके बीच में जंबू द्वीप है, जिसके बीचों-बीच सुमेरु पर्वत है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उसके दो भाग हो जाते हैं।
जंबू द्वीप, धातकी व पुष्कर का अभ्यंतर अर्धभाग, ये अढाई द्वीप हैं इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है। शेष द्वीपों में तिर्यंच व भूतप्रेत आदि व्यंतर देव निवास करते हैं। - जंबूद्वीप में सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, महाहिमवान व निषध, तथा उत्तर में नील, रुक्मि व शिखरी ये छः कुलपर्वत हैं जो इस द्वीप को भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत नामवाले सात क्षेत्रों में विभक्त करते हैं। प्रत्येक पर्वत पर एक महाह्रद है जिनमें से दो-दो नदियाँ निकलकर प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व व पश्चिम दिशा मुख से बहती हुई लवण सागर में मिल जाती है। उस-उस क्षेत्र में वे नदियाँ अन्य सहस्रों परिवार नदियों को अपने में समा लेती हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में बीचों-बीच एक-एक विजयार्धपर्वत है। इन क्षेत्रों की दो-दो नदियों व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छः-छः खंडों में विभाजित हो जाते हैं, जिनमें मध्यवर्ती एक खंड में आर्य जन रहते हैं और शेष पाँच में म्लेच्छ। इन दोनों क्षेत्रों में ही धर्म-कर्म व सुख-दु:ख आदि की हानि-वृद्धि होती है, शेष क्षेत्र सदा अवस्थित हैं। - विदेह क्षेत्र में सुमेरु के दक्षिण व उत्तर में निषध व नील पर्वतस्पर्शी सौमनस, विद्युत्प्रभ तथा गंधमादन व माल्यवान नाम के दो-दो गजदंताकार पर्वत हैं, जिनके मध्य देवकुरु व उत्तरकुरु नाम की दो उत्कृष्ट भोगभूमियाँ हैं, जहाँ के मनुष्य व तिर्यंच बिना कुछ कार्य करे अति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी आयु भी असंख्यातों वर्ष की होती है। इन दोनों क्षेत्रों में जंबू व शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं। जंबू वृक्ष के कारण ही इसका नाम जंबूद्वीप है। इसके पूर्व व पश्चिम भाग में से प्रत्येक में 16,16 क्षेत्र हैं जो 32 विदेह कहलाते हैं। इनका विभाग वहाँ स्थित पर्वत व नदियों के कारण से हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में भरतक्षेत्रवत् छह खंडों की रचना है। इन क्षेत्रों में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता। - दूसरे व तीसरे आधे द्वीप में पूर्व व पश्चिम विस्तार के मध्य एक-एक सुमेरु है। प्रत्येक सुमेरु संबंधी छः पर्वत व सात क्षेत्र हैं जिनकी रचना उपरोक्तवत् है। - लवणोद के तलभाग में अनेकों पाताल हैं, जिनमें वायु की हानि-वृद्धि के कारण सागर के जल में भी हानि-वृद्धि होती रहती है। पृथिवीतल से 790 योजन ऊपर आकाश में क्रम से सितारे, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल व शनीचर इन ज्योतिष ग्रहों के संचार क्षेत्र अवस्थित हैं, जिनका उल्लंघन न करते हुए वे सदा सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हुए घूमा करते हैं। इसी के कारण दिन, रात, वर्षा ऋतु आदि की उत्पत्ति होती है। जैनाम्नाय में चंद्रमा की अपेक्षा सूर्य छोटा माना जाता है।
- वैदिक धर्माभिमत भूगोल-परिचय
-देखें आगे चित्र सं - 1 से 4।
(विष्णु पुराण/2/2-7 के आधार पर कथित भावार्थ) इस पृथिवी पर जंबू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप, तथा लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सर्पिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल ये सात समुद्र हैं (2/2-4) जो चूड़ी के आकार रूप से एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं। ये द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तारवाले हैं। (2/4, 88)।
इन सबके बीच में जंबूद्वीप और उसके बीच में 84000 योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। जो 16000 योजन पृथिवी में घुसा हुआ है। सुमेरु से दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर मे नील, श्वेत और शृंगी ये छः वर्ष पर्वत हैं। जो इसको भारतवर्ष, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु, इन सात क्षेत्रों में विभक्त कर देते हैं। - नोट - जंबूद्वीप की चातुर्द्वीपिक भूगोल के साथ तुलना (देखें चातुर्द्विपिक भूगोल परिचय)। मेरु पर्वत की पूर्व व पश्चिम में इलावृत की मर्यादाभूत माल्यवान व गंधमादन नाम के दो पर्वत हैं जो निषध व नील तक फैले हुए हैं। मेरु के चारों ओर पूर्वादि दिशाओं में मंदर, गंधमादन, विपुल, और सुपार्श्व ये चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमश: कदंब, जंबू, पीपल व बट ये चार वृक्ष हैं। जंबूवृक्ष के नाम से ही यह द्वीप जन्बूद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। वर्षों में भारतवर्ष कर्मभूमि है और शेष वर्ष भोगभूमियाँ हैं क्योंकि भारत में ही कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग ये चार काल वर्तते हैं और स्वर्ग मोक्ष के पुरुषार्थ की सिद्धि है। अन्य क्षेत्रों में सदा त्रेता युग रहता है और वहां के निवासी पुण्यवान व आधि-व्याधि से रहित होते हैं। (अध्याय 2)।
भरतक्षेत्र में महेंद्र आदि छः कुलपर्वत हैं, जिनसे चंद्रमा आदि अनेक नदियाँ निकलती हैं। नदियों के किनारों पर कुरु पाँचाल आदि (आर्य) और पौंड्र कलिंग आदि (म्लेच्छ) लोग रहते हैं। (अध्याय 3) इसी प्रकार प्लक्षद्वीप में भी पर्वत व उनसे विभाजित क्षेत्र हैं। वहाँ प्लक्ष नाम का वृक्ष है और सदा त्रेता काल रहता है। शाल्मल आदि शेष सर्व द्वीपों की रचना प्लक्ष द्वीपवत् है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है जिससे उसके दो खंड हो गये हैं। अभ्यंतर खंड का नाम धातकी है। यहाँ भोगभूमि है इस द्वीप में पर्वत व नदियाँ नहीं हैं। इस द्वीप को स्वादूदक समुद्र वेष्ठित करता है। इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है। (अध्याय 4)।
इस भूखंड के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं - अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल और पाताल। पातालों के नीचे विष्णु भगवान् हजारों फनों से युक्त शेषनाग के रूप में स्थित होते हुए इस भूखंड को अपने सिर पर धारण करते हैं। (अध्याय 5) पृथिवीतल और जल के नीचे रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिरांभ, वैतरणी, कृमीश, कृमिभोजन, असिपत्र वन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पूयवह, पाप, बह्णिज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तमस्, अवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, और अरुचि आदि महाभयंकर नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। (अध्याय 6) भूमि से एक लाख योजन ऊपर जाकर, एक-एक लाख योजन के अंतराल से सूर्य, चंद्र, व नक्षत्र मंडल स्थित हैं, तथा उनके ऊपर दो - दो लाख योजन के अंतराल से बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, तथा इनके ऊपर एक-एक लाख योजन के अंतराल से सप्तऋषि व ध्रुव तारे स्थित हैं। इससे 1 करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है जहाँ कल्पों तक जीवित रहने वाले कल्पवासी भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं। इससे 2 करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जहाँ ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि रहते हैं। आठ करोड़ योजन ऊपर तप लोक है जहाँ वैराज देव निवास करते हैं।
12 करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है, जहाँ फिर से न मरनेवाले जीव रहते हैं, इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। भूलोक व सूर्यलोक के मध्य में मुनिजनों से सेवित भुवलोक है और सूर्य तथा ध्रुव के बीच में 14 लाख योजन स्वलोक कहलाता है। ये तीनों लोक कृतक हैं। जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये तीन अकृतक हैं। इन दोनों कृतक व अकृतक के मध्य में महर्लोक है। इसलिए यह कृताकृतक है। (अध्याय 7)।
- बौद्धाभिमत भूगोल-परिचय
(5वीं शताब्दी के वसुबंधुकृत अभिधर्मकोश के आधार पर तिलोयपण्णत्ति/ प्र. 87/ H.L. Jain द्वारा कथित का भावार्थ )। लोक के अधोभाग में 16,00,000 योजन ऊँचा अपरिमित वायुमंडल है। इसके ऊपर 11,20,000 योजन ऊँचा जलमंडल है। इस जलमंडल में 3,20,000 यो. भूमंडल है। इस भूमंडल के बीच में मेरु पर्वत है। आगे 80,000 योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरु को चारों ओर से वेष्ठित करके स्थित है। इसके आगे 40,000 योजन विस्तृत युगंधर पर्वत वलयाकार से स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अंतराल से उत्तरोत्तर आधे-आधे विस्तार से युक्त क्रमशः ईषाधर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक, और निर्मिधर पर्वत हैं। अंत में लोहमय चक्रवाल पर्वत है। निमिंधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें मेरू को पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अर्धचंद्राकार पूर्वविदेह, शकटाकार जंबूद्वीप, मंडलाकार अबरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तरकुरु ये चार द्वीप स्थित हैं। इन चारों के पार्श्व भागों में दो-दो अंतर्द्वीप हैं। उनमें से जंबूद्वीप के पासवाले चमरद्वीप में राक्षसों का और शेष द्वीप में मनुष्यों का निवास है। जंबूद्वीप में उत्तर की ओर 9 कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके आगे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे अनवतप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमें से गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये नदियाँ निकलती हैं। उक्त सरोवर के समीप में जंबू वृक्ष है। जिसके कारण इस द्वीप का जंबू ऐसा नाम पड़ा है। जंबूद्वीप के नीचे 20,000 योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक है। उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन आदि सात नरक और हैं। इन नरकों के चारों पार्श्व भाग में कुकूल, कुणप, क्षुरमार्गादिक और खारोदक (असिपत्रवन, श्यामशबल-श्व-स्थान, अयःशाल्मली वन और वैतरणीनदी) ये चार उत्सद है। इन नरकों के धरातल में आठ शीत नरक और हैं। भूमि से 40,000 योजन ऊपर जाकर चंद्रसूर्य परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जंबूद्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरु में अर्धरात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में सूर्योदय होता है। मेरु पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में उसके चार परिषंड (विभाग) हैं, जिन पर क्रम से यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुर्महाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों पर भी देवों के निवास हैं। मेरुशिखर पर त्रायस्त्रिंश (स्वर्ग) है। इससे ऊपर विमानों में याम, तुषित आदि देव रहते हैं। उपरोक्त देवों में चातुर्महाराजिक, और त्रायस्त्रिंश देव मनुष्यवत् काम-भोग भोगते हैं। याम, तुषित आदि क्रमशः आलिंगन, पाणिसंयोग, हसित और अवलोकन से तृप्ति को प्राप्त होते हैं। उपरोक्त कामधातु देवों के ऊपर रूपधातु देवों के ब्रह्मकायिक आदि 17 स्थान हैं। ये सब क्रमशः ऊपर - ऊपर अवस्थित हैं। जंबूद्वीपवासी मनुष्यों की ऊँचाई केवल 3 1/2 हाथ है। आगे क्रम से बढ़ती हई अनभ्र देवों के शरीर की ऊँचाई 125 योजन प्रमाण है।
- आधुनिक विश्व परिचय
लोक के स्वरूप का निर्देश करने के अंतर्गत दो बातें जाननीय हैं - खगोल तथा भूगोल। खगोल की दृष्टि से देखने पर इस असीम आकाश में असंख्यातों गोलाकार भूखंड हैं। सभी भ्रमणशील हैं। भौतिक पदार्थों के आण्विक विधान की भाँति इनके भ्रमण में अनेक प्रकार की गतियें देखी जा सकती हैं। पहली गति है प्रत्येक भूखंड का अपने स्थान पर अवस्थित रहते हुए अपने ही धुरी पर लट्टू की भाँति घूमते रहना। दूसरी गति है सूर्य जैसे किसी बड़े भूखंड को मध्यम में स्थापित करके गाड़ी के चक्के में लगे अरों की भाँति अनेकों अन्य भूखंडों का उसकी परिक्रमा करते रहना, परंतु परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना। परिक्रमाशील इन भूखंडों के समुदाय को एक सौर-मंडल या एक ज्योतिषि-मंडल कहा जाता है। प्रत्येक सौर-मंडल में केंद्रवर्ती एक सूर्य होता है और अरों के स्थानवर्ती अनेकों अन्य भूखंड होते हैं, जिनमें एक चंद्रमा, अनेकों ग्रह, अनेकों उपग्रह तथा अनेकों पृथ्वियें सम्मिलित हैं। ऐसे-ऐसे सौर-मंडल इस आकाश में न जाने कितने हैं। प्रत्येक भूखंड गोले की भाँति गोल है परंतु प्रत्येक सौर-मंडल गाड़ी के पहिये की भाँति चक्राकार है। तीसरी गति है किसी और मंडल को मध्य में स्थापित करके अन्य अनेकों सौर-मंडलों द्वारा उसकी परिक्रमा करते रहना, और परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना।
इन भूखंडों में से अनेकों पर अनेक आकार प्रकार वाली जीव राशि का वास है, और अनेकों पर प्रलय जैसी स्थिति है। जल तथा वायु का अभाव हो जाने के कारण उन पर आज बसती होना संभव नहीं है। जिन पर आज बसती बनी है उन पर पहले कभी प्रलय थी और जिन पर आज प्रलय है उन पर आगे कभी बसती हो जाने वाली है। कुछ भूखंडों पर बसने वाले अत्यंत सुखी हैं और कुछ पर रहने वाले अत्यंत दुःखी, जैसे कि अंतरिक्ष की आधुनिक खोज के अनुसार मंगल पर जो बसती पाई गई है वह नारकीय यातनायें भोग रही है।
जिस भूखंड पर हम रहते हैं यह भी पहले कभी अग्नि का गोला था जो सूर्य में से छिटक कर बाहर निकल गया था। पीछे इसका ऊपरी तल ठंडा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है। वायुमंडल धरातल से लेकर इसके ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुए 500 मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था, पीछे क्रम से सजीव पाषाण आदि, वनस्पति, नमी में रहने वाले छोटे-छोटे कोकले, जल में रहने वाले मत्स्यादि, पृथिवी तथा जल दोनों में रहने वाले मेंढक, कछुआ आदि बिलों में रहने वाले सरीसृप आदि आकाश में उड़ने वाले भ्रमर, कीट, पतंग व पक्षी, पृथिवी पर रहने वाले स्तनधारी पशु बंदर आदि और अंत में मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार और भी असंख्य जीव जातियें उत्पन्न हो गयीं।
इस भूखंड के चारों ओर अनंत आकाश हैं, जिसमें सूर्य चंद्र तारे आदि दिखाई देते हैं। चंद्रमा सबसे अधिक समीप में है। तत्पश्चात् क्रमशः शुक्र, बुद्ध, मंगल, बृहस्पति, शनि आदि ग्रह, इनसे साढे नौ मील दूर सूर्य, तथा उससे भी आगे असंख्यातों मील दूर असंख्य तारागण हैं। चंद्रमा तथा ग्रह स्वयं प्रकाश न होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवत् दिखते हैं। तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दिखते हैं परंतु इनमें से अधिकतर सूर्य की अपेक्षा लाखों गुणा बड़े हैं तथा अनेकों सूर्य की भाँति स्वयं जाज्वल्यमान हैं।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर इस पृथिवी पर एशिया, योरूप, अफ्रीका, अमेरिका, आस्टेलिया आदि अनेकों उपद्वीप हैं। सुदूर पूर्व में ये सब संभवतः परस्पर में मिले हुए थे। भारतवर्ष एशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में हिमालय और मध्य में विंध्यागिरि, सतपुड़ा आदि पहाड़ियों की अटूट शृंखला है। पूर्व तथा पश्चिम के सागर में गिरने वाली गंगा तथा सिंधुनामक दो प्रधान नदियाँ हैं जो हिमालय से निकलकर सागर की ओर जाती हैं। इसके उत्तर में आर्य जाति और पश्चिम दक्षिण आदि दिशाओं में द्राविड़, भील, कौंल, नाग आदि अन्यान्य प्राचीन अथवा म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं।
- उपरोक्त मान्यताओं की तुलना
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
जैसे -- चूड़ी के आकार रूप से अनेकों द्वीपों व समुद्रों का एक दूसरे को वेष्टित किये हुए अवस्थान।
- जंबूद्वीप, सुमेरु, हिमवान, निषध, नील, श्वेत (रुक्मि), शृंगी (शिखरी) ये पर्वत, भारतवर्ष (भरत क्षेत्र) हरिवर्ष, रम्यक, हिरण्मय (हैरण्यवत) उत्तरकुरु ये क्षेत्र, माल्यवान व गंधमादन पर्वत, जंबूवृक्ष इन नामों का दोनों मान्यताओं में समान होना।
- भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्रों में त्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान।मेरु की चारों दिशाओं में मंदर आदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदंत हैं।
- कुलपर्वतों से नदियों का निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियों का अवस्थान।
- प्लक्ष द्वीप में प्लक्षवृक्ष जंबूद्वीपवत् उसमें पर्वतों व नदियों आदि का अवस्थान वैसा ही है जैसा कि धातकी खंड में धातकी वृक्ष व जंबूद्वीप के समान दुगनी रचना।
- पुष्करद्वीप के मध्य वलयकार मानुषोत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यंतर भाग में धातकी नामक खंड।
- पुष्कर द्वीप से परे प्राणियों का अभाव लगभग वैसा ही है, जैसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्यों का अभाव।
- भूखंड के नीचे पातालों का निर्देश लवण सागर के पातालों से मिलता है।
- पृथिवी के नीचे नरकों का अवस्थान।
- .आकाश में सूर्य, चंद्र आदि का अवस्थान क्रम। 10. कल्पवासी तथा फिर से न मरने वाले (लौकांतिक) देवों में लोक।
- इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यताएँ भी बहुत अंशों में मिलती हैं। जैसे -
- पृथिवी के चारों तरफ आयु व जलमंडल का अवस्थान जैन मान्य वातवलयों के समान है।
- मेरु आदि पर्वतों का एक-एक समुद्र के अंतराल से उत्तरोत्तर वेष्टित वलयाकाररूपेण अवस्थान।
- जंबूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु, जंबूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिंधु आदि नामों की समानता।
- जंबूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्रपर्वत, हिमवान, महासरोवर व उनसे गंगा, सिंधु आदि नदियों का निकास ऐसा ही है जैसा कि भरतक्षेत्र के उत्तर में 11 कूटों युक्त हिमवान पर्वत पर स्थित पद्म द्रह से गंगा सिंधु व रोहितास्या नदियों का निकास।
- जंबूद्वीप के नीचे एक के पश्चात् एक करके अनेकों नरकों का अवस्थान।
- पृथिवी से ऊपर चंद्र-सूर्य का परिभ्रमण।
- मेरु शिखर पर स्वर्गों का अवस्थान लगभग ऐसा ही है जैसा कि मेरु शिखर से ऊपर केवल एक बाल प्रमाण अंतर से जैन मान्य स्वर्ग के प्रथम ‘ऋतु’ नामक पटल का अवस्थान।
- देवों में कुछ का मैथुन से और कुछ का स्पर्श या अवलोकन आदि से काम-भोग का सेवन तथा ऊपर के स्वर्गों में कामभोग का अभाव जैनमान्यतावत् ही है। (देखें देव - II.2.10)।
- देवों का ऊपर ऊपर अवस्थान।
- मनुष्यों की ऊंचाई से लेकर देवों के शरीरों की ऊँचाई तक क्रमिक वृद्धि लगभग जैन मान्यता के अनुसार है (देखें अवगाहना - 3,4) 3 आधुनिक भूगोल के साथ यद्यपि जैन भूगोल स्थूल दृष्टि से देखने पर मेल नहीं खाता पर आचार्यों की सुदूरवर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धति को ध्यान में रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत अंशों में मिलता प्रतीत होता है। यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनों के अनुमान का आधार पृथिवी का कुछ करोड़ वर्ष मात्र पूर्व का इतिहास है, जब कि आचार्यों की दृष्टि कल्पों पूर्व के इतिहास को स्पर्श करती है,। जैसे कि -
- पृथिवी के लिए पहले अग्नि का गोला होने की कल्पना, उसका धीरे-धीरे ठंडा होना और नये सिरे से उस पर जीवों व मनुष्यों की उत्पत्ति का विकास लगभग जैनमान्य प्रलय के स्वरूप से मेल खाता है। (देखें प्रलय )।
- पृथिवी के चारों ओर के वायु मंडल में 500 मील तक उत्तरोत्तर तरलता जैन मान्य तीन वातवलयोंवत् ही है।
- एशिया आदि महाद्वीप जैनमान्य भरतादि क्षेत्रों के साथ काफी अंश में मिलते हैं (देखें अगला शीर्षक )
- आर्य व म्लेच्छ जातियों का यथायोग्य अवस्थान भी जैनमान्यता को सर्वथा उल्लंघन करने को समर्थ नहीं।
- सूर्य-चंद्र आदि के अवस्थान में तथा उन पर जीव राशि संबंधी विचार में अवश्य दोनों मान्यताओं में भेद है। अनुसंधान किया जाय तो इसमें भी कुछ न कुछ समन्वय प्राप्त किया जा सकता है।
सातवीं आठवीं शताब्दी के वैदिक विचारकों ने लोक के इस चित्रण को वासना के विश्लेषण के रूप में उपस्थित किया है। (जै. /2/1)। यथा -अधोलोक वासना ग्रस्त व्यक्ति की तम: पूर्ण वह स्थिति जिसमें कि उसे हिताहित का कुछ भी विवेक नहीं होता और स्वार्थसिद्धि के क्षेत्र में बड़े से बड़े अन्याय तथा अत्याचार करते हुए भी जहाँ उसे यह प्रतीति नहीं होती कि उसने कुछ बुरा किया है। मध्य लोक उसकी वह स्थिति है जिसमें कि उसे हिताहित का विवेक जागृत हो जाता है परंतु वासना की प्रबलता के कारण अहित से हटकर हित की ओर झुकने का सत्य पुरुषार्थ जागृत करने की सामर्थ्य उसमें नहीं होती है। इसके ऊपर ज्योतिष लोक या अंतरिक्ष लोक उसकी साधना वाली वह स्थिति है जिसमें उसके भीतर उत्तरोत्तर उन्नत पारमार्थिक अनुभूतियें झलक दिखाने लगती हैं। इसके अंतर्गत पहले विद्युतलोक आता है जिसमें क्षणभर को तत्त्दर्शन होकर लुप्त हो जाता है। तदनंतर तारा लोक आता है जिसमें तात्त्विक अनुभूतियों की झलक टिमटिमाती या आँख-मिचौनी खेलती प्रतीत होती हैं। अर्थात् कभी स्वरूप में प्रवेश होता है और कभी पुनः विषयासक्ति जागृत हो जाती है। इसके पश्चात् सूर्य लोक आता है जिसमें ज्ञान सूर्यका उदय होता है, और इसके पश्चात् अंत में चंद्र लोक आता है जहाँ पहुँचने पर साधक समता-भूमि में प्रवेश पाकर अत्यंत शांत हो जाता है। उर्ध्व लोक के अंतर्गत तीन भूमियें हैं - महर्लोक, जनलोक और तपलोक। पहली भूमि में वह अर्थात् उसकी ज्ञानचेतना लोकालोक में व्याप्त होकर महान हो जाती है, दूसरी भूमियें कृतकृत्यता की और तीसरी भूमियें अनंत आनंद की अनुभूति में वह सदा के लिए लय हो जाती है। यह मान्यता जैन के अध्यात्म के साथ शत प्रतिशत नहीं तो 80 प्रतिशत मेल अवश्य खाती है।
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
- चातुर्द्वीपिक भूगोल परिचय
( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 138/ H.L. Jain का भावार्थ )- काशी नगरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संपूर्णानंद अभिनंदन ग्रंथ में दिये गये, श्री रायकृष्णदासजी के एक लेखके अनुसार, वैदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपिक भूगोल की अपेक्षा चातुर्द्वीपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायुपुराण में कुछ -कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीज के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था; क्योंकि वह लिखता है - भारत के सीमांतर पर तीन और देश माने जाते हैं - सीदिया, बैक्ट्रिया तथा एरियाना। सादिया से उसके भद्राश्व व उत्तरकुरु तथा बैक्ट्रिया व एरियाना से केतुमाल द्वीप अभिप्रेत है। अशोक के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि उसके शिलालेख में जंबूद्वीप भारतवर्ष की संज्ञा है। महाभाष्य में आकर सर्वप्रथम सप्तद्वीपिक भूगोल की चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्यकाल के बीच की कल्पना जान पड़ती है।
- सप्तद्वीपक भूगोल की भाँति यह चातुर्द्वीपिक भूगोल कल्पनामात्र नहीं है, बल्कि इसका आधार वास्तविक है। उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोल से हो जाता है।
- चातुर्द्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप पृथिवी के चार महाद्वीपों में से एक है और भारतवर्ष जंबूद्वीप का ही दूसरा नाम है। वही सप्तद्वीपिक भूगोल में आकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरी वाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते हैं। और भारतवर्ष नामवाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसी के भीतर कल्पित कर लिया जाता है।
- चातुर्द्वीपी भूगोल का भारत (जंबूद्वीप) जो मेरु तक पहुँचता है, सप्तद्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप के तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है। - भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष। भारत का वर्ष पर्वत हिमालय है। किंपुरुष हिमालय के परभाग में मंगोलों की बस्ती है, जहाँ से सरस्वती नदी का उद्गम होता है, तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में अवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुँचता था, क्योंकि वहाँ तक मंगोलों की बस्ती पायी जाती है। तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयंतर्गत ही वर्णित हुआ है। (जैन मान्यता में किंपुरुष के स्थानपर हैमवत् और हिमकूट के स्थान पर महाहिमवान का उल्लेख है )। हरिवर्ष से हिरात का तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरू तक पहुँचता है। इसी हरिवर्ष का नाम अवेस्ता में हरिवरजी मिलता है।
- इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरू नामक वर्षों में विभक्त होकर चातुर्द्वीपिक भूगोल वाले उत्तरकुर महाद्वीप के तीन वर्ष बन गये हैं।
- किंतु पूर्व और पश्चिम के भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दो के दो ही रह गये। अंतर केवल इतना है कि यहाँ वे दो महाद्वीप न होकर एक द्वीप के अंतर्गत दो वर्ष या क्षेत्र हैं। साथ ही मेरु को मेखलित करने वाला, सप्तद्वीपिक, भूगोल का, इलावृतक भी एक स्वतंत्र वर्ष बन गया है।
- यों उक्त चार द्वीपों से पल्लवित भारतवर्ष आदि तीन दक्षिणी, हरिवर्ष आदि तीन उत्तरी, भद्राश्व व केतुमाल से दो पूर्व व पश्चिमी तथा इलावृत नाम का केंद्रीय वर्ष, जंबूद्वीप के नौ वर्षों की रचना कर रहा है।
- (जैनाभिमत भूगोल में 9 की बजाय 10 वर्षों का उल्लेख है। भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष के स्थान पर भरत, हैमवत व हरि ये तीन मेरु के दक्षिण में हैं। रम्यक, हिरण्यमय तथा उत्तरकुरु के स्थान पर रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत ये तीन मेरु के उत्तर में हैं। भद्राश्व व केतुमाल के स्थान पर पूर्वविदेह व पश्चिमविदेह ये दो मेरु के पूर्व व पश्चिम में हैं। तथा इलावृत के स्थान पर देवकुरु व उत्तरकुरु ये दो मेरु के निकटवर्ती हैं। यहाँ वैदिक मान्यता में तो मेरु के चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया और जैन मान्यता में उसे दक्षिण व उत्तर दिशावाले दो भागों में विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपों में वैदिकजनों ने क्षेत्रों का विभाग न दर्शाकर अखंड रखा पर जैन मान्यता में उनके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहों को भी 16, 16 क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया )।
- मेरु पर्वत वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश है। उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है। सीता नदी यारकंद नदी है। निषध पर्वत हिंदकुश पर्वतों की शृंखला है। हैमवत भारतवर्ष का ही दूसरा नाम रहा है। (देखें वह वह नाम)।
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय