व्यंतर
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
भूत, पिशाच जाति के देवों को जैनागम में व्यंतर देव कहा गया है । ये लोग वैक्रियिक शरीर के धारी होते हैं । अधिकतर मध्य लोक के सूने स्थानों में रहते हैं । मनुष्य व तिर्यंचों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें लाभ हानि पहुँचा सकते हैं । इनका काफी कुछ वैभव व परिवार होता है ।
- व्यंतर देव निर्देश
- किंनर किंपुरुष आदि के उत्तर भेद ।–देखें वह वह नाम ।
- व्यंतर मरकर कहाँ जन्मे और कौन स्थान प्राप्त करे ।–देखें जन्म - 6 ।
- व्यंतरों का जन्म, दिव्य शरीर, आहार, सुख, दुःख सम्यक्त्वादि ।–देखें देव - II.2.3 ।
- व्यंतरों के आहार व श्वास का अंतराल ।
- व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि ।
- व्यंतर देव मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं ।
- व्यंतरों के शरीरों के वर्ण व चैत्य वृक्ष ।
- व्यंतरों की आयु व अवगाहना ।–देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में संभव कषाय, लेश्या, वेद, पर्याप्ति आदि । देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में गुणस्थान, मार्गंणास्थान आदि की 20 प्ररूपणा ।–दे . सत् ।
- व्यंतरों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन ।
- काल अंतर भाव व अल्पबहुत्व । –देखें वह वह नाम ।
- व्यंतरों में कर्मों का बंध उदय सत्त्व ।–देखें वह वह नाम ।
- किंनर किंपुरुष आदि के उत्तर भेद ।–देखें वह वह नाम ।
- व्यंतर इंद्र निर्देश
- व्यंतरों की देवियों का निर्देश
- व्यंतर लोक निर्देश
पुराणकोष से
देवों का एक भेद ये आठ प्रकार के होते हैं । उनके नाम है—किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करने वाले साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं । तीर्थंकरों के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भेरियों की ध्वनि होने लगती है । मध्यलोक में ये देव वटवृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ के शिखरों पर, वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते हैं । इनका सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यंतरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है । इन देवों के सोलह इंद्र और सोलह प्रतींद्र होते हैं । उनके नाम ये हैं—1. किन्नर 2. किंपुरुष 3. सत्पुरुष 4. महापुरुष 5. अतिकाय 6. महाकाय 7. गीतरति 8. रतिकीर्ति 9. मणिभद्र 10. पूर्णभद्र 11. भीम 12. महाभीम 13. सुरूप 14. प्रतिरूप 15. काल और 16. महाकाल । महापुराण 31.109-113, पद्मपुराण 3.159-162, 5.153, 105. 165, हरिवंशपुराण 2.83, 3.134-135, 139, 5.397-420, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-62, 17.90-91