वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 14
From जैनकोष
सेयासेयविदण्हू उध्ददुस्सील सीलवंतो वि ।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ।। 14 ।।
(59) श्रेयाश्रेयज्ञाता भव्य के शीलप्रताप से अभ्युदय व निर्वाण का लाभ―पूर्व गाथा में यह बताया था कि कल्याण और अकल्याण का परिचय सम्यग्दर्शन से हुआ । तो सर्व पदार्थों के परिचय से और सर्व पदार्थों का परिचय हुआ सम्यग्ज्ञानसे, किंतु सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के कारण हुआ इसलिए सबकी जड़ तो सम्यक्त्व है । तो इस तरह कल्याण और अकल्याण का जानना बना । अब इस गाथा में यह बात बतला रहे हैं कि कल्याण और अकल्याण को जानने से लाभ क्या है?
आचार्यदेव कहते हैं कि कल्याण और अकल्याण का मार्ग जिसने जान लिया उस पुरुष ने इस दुशील को एकदम उड़ा दिया । दुशील मायने मिथ्यात्व । शील कहते हैं सम्यक्त्व को । जो आत्मा का स्वभाव है वही शील है और आत्मा के स्वभाव को आत्मस्वभाव रूप में ही देखे, उसमें विकार की परख न करे, हैं ही नहीं विकार, अविकार निरखे तो यह कहलाया कि मैं शीलवान बन रहा हूँ और इससे उल्टे चलें, बाह्य पदार्थों में ममता अपनायत करे तो उसे कहते हैं कि यह कुशील हो गया है । तो जिसने कल्याण और अकल्याण का मार्ग पहिचान लिया उसने मिथ्यात्व को उड़ा दिया अथवा मिथ्यात्व उसके उड़ा ही है तब तो वह कल्याण और अकल्याण का मार्ग जानता है । सो जिसने कल्याण और अकल्याण का मार्ग जाना वह मिथ्यात्व से रहित है । शीलवंत याने आत्मा का जो स्वभाव है उस स्वभाव के ही आदर में, स्वभाव की अभिमुखता में ही रमने की धुन है, जिसको यह अंतरंग शील मिल गया उसको बाह्य शील अपने आप आयेंगे, उसके वह दुशील नहीं रहता, किंतु शीलवान रहता है । तो इस तरह इस जीव ने सम्यक्त्व स्वभाव का अनुभव किया है । सो उसके फल में यह तीर्थंकर आदिक पदों को प्राप्त करता है, निर्वाण पद को प्राप्त करता है । शील से सब संकट टलते हैं । आत्मा का शील है ज्ञायक स्वभाव अंतस्तत्त्व का अनुभव । यह ऐसी परम औषधि है कि इसके द्वारा संसार के सारे संकट दूर होते हैं । निर्वाण मायने संकटों का बुझ जाना । बौद्ध लोग कहते हैं कि आत्मा का मिट जाना यह ही निर्वाण है । सौगतमत के अनुसार निर्वाण होने पर आत्मा न पूर्व दिशा में जाता है, न पश्चिम उत्तर आदिक में, और न ऊपर नीचे, वह कहीं फैलता नहीं, किंतु नष्ट हो जाता है, शांत हो जाता है, तो आत्मा के नष्ट होने का ही नाम निर्वाण है, ऐसा सौगतमत में मानते है, पर उनकी यह बात ठीक नहीं है । समस्त संकट नष्ट हो जाना ही निर्वाण है, संकट बुझ गए, निर्वाण हो गया । जैसे कोई अजान महिला चूल्हे से अधजली लकड़ी निकालकर उसमें पानी डाल देती है, अब आग बुझ गई, आग का निर्वाण हो गया ऐसे ही संकटों का निर्वाण होता । संकट अब नहीं रहे और न अब आगे अनंत काल तक कोई संकट आ सकेंगे ऐसी स्थिति वह पा लेता है जिसने कल्याण अकल्याण का निर्वाण किया । तो निर्वाण प्राप्त किया जिस जीव ने उसका मूल है सम्यग्दर्शन । जैसे छहढाला में बताया है―‘‘मोक्षमहल की परथम सीढ़ी’’ यह सम्यग्दर्शन मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है । जैसे―जो पहली सीढ़ी पर ही नहीं आया वह महल पर कैसे चढ़ेगा, ऐसे ही जो जीव अभी सम्यग्दर्शन के भाव में ही नहीं आया वह मोक्ष में कैसे पहुंचेगा? तो निर्वाण का मूल रहा सम्यग्दर्शन । यद्यपि सम्यक्त्व होते ही निर्वाण नहीं होता सम्यक्चारित्र जब पूर्ण होता है तब निर्वाण होता है । मगर सम्यक्त्व बिना सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता, तो निर्वाण कैसे होगा । इसलिए मोक्ष की मूल जड़ सम्यग्दर्शन बताया है ।