वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
सम्मतादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी ।
उवलद्धपयत्थे पुण सेयं वियाणेदि ।। 13 ।।
(56) सम्यक्त्व के साहचर्य से ज्ञान की समीचीनता―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि सम्यग्दर्शन के प्रताप से ही जीवों को कल्याण और अकल्याण का निश्चय होता है, जब जीव के सम्यग्दर्शन हो तो वह ज्ञान सम्यक् होता है । यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही होते हैं, मगर ज्ञान की समीचीनता सम्यग्दर्शन के होने से होती है, इस कारण सम्यग्दर्शन को कारणरूप से कहा जाता है, और सम्यक̖ज्ञान को कार्यरूप से कहा जाता है, ज्ञान तो पहले भी था और अच्छा ज्ञान, ऊँचा ज्ञान जिस ज्ञान से सम्यग्दर्शन बने वह ज्ञान खोटा तो न होगा । किंतु सम्यग्दर्शन बिना होने से खोंटा कहलाता है, अर्थात् अनुभव बिना होता है । जिस ज्ञान में अनुभव बन गया हो वह ज्ञान सम्यक् है । जैसे आपने मानो शिखरजी सिद्ध क्षेत्र के दर्शन नहीं किया, लोग कहते हैं कि पहाड़ बड़ा अच्छा है, बड़ी हरियाली है, और वहाँ पहले गंधर्व नाला मिलता हैं फिर सीता नाला मिलता है, खूब सुन रहे और कहीं शिखरजी का फोटो है तो फोटो में भी देखते हैं, ज्ञान तो आपको शिखर जी के संबंध में ठीक हो गया, किंतु जब कभी आप शिखरजी जाते हैं और साक्षात् देखते हैं, ऊपर चलकर नाला देखते हैं, तो उस समय जो शिखरजी का ज्ञान हुआ तो उस ज्ञान में और उससे पहले के ज्ञान में कुछ अंतर है कि नहीं? ज्ञान तो वैसा ही है, कहीं उल्टा नहीं जाना, पहले ज्ञान से जो जाना सो ही इस ज्ञान से समझा किंतु वह अनुभव बिना ज्ञान है, बिना देखें का ज्ञान है और यह देखे का ज्ञान है । तो अनुभव सहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं और यथार्थ अनुभव बनता है सम्यग्दर्शन से, इस कारण बताया गया है कि सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है, तो सम्यग्दर्शन होने से सम्यग्ज्ञान हुआ ꠰
(57) सम्यग्ज्ञान से यथार्थ तत्त्व की उपलब्धि एवं तत्त्वोपलब्धि से श्रेयाश्रेय का निर्णय―सम्यग्ज्ञान होने से सही-सही उपलब्धि होती है अपने आत्मा का ज्ञानानंद स्वभाव स्वतंत्र अस्तित्व अनुभव में आने पर ये सभी जीव एकदम भिन्न सत्त्व वाले हैं, यह निर्णय उसके दृढ़ बनता है । अभी तो वह कुटुंब में रहकर भी कुटुंब को अपना रंच मात्र नहीं समझता है, यह भी चीज है, ये भी कर्म बँधे हैं, उदय में आ रहे हैं, गुजारा करने के लिए साथ रह रहे हैं पर जीव अत्यंत भिन्न है । जिसको सम्यग्ज्ञान हुआ उसको सब पदार्थों की सही-सही उपलब्धि बनती है, जब सब पदार्थों का परिचय सही बन गया, जैसा कि वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए हैं, उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उन ही में है, मैं उनसे अत्यंत निराला हूँ, एक-एक परमाणु स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्ता रख रहे हैं । प्रत्येक जीव अपनी सत्ता में ही है, इसी तरह सभी पदार्थों का जब यथार्थ परिचय हुआ तब वह यह निर्णय करता है कि यह तो कल्याण की बात है और यह अकल्याण की बात है । मैं अपने आपके स्वरूप में रमूं, यह तो कल्याण की बात है और पर पदार्थों में रमूं, यह अकल्याण की बात है । यद्यपि मोटे रूप से कल्याण और अकल्याण की बात, थोड़ा पहले भी जानते थे, तब सम्यक्त्व नहीं हुआ, मगर अनुभव सहित ज्ञान न था, वेदांत की एक टीका में उदाहरण दिया है कि कभी-कभी छोटी-छोटी बालिकायें भी विवाह का खेल खेलती है । उस खेल में वे उन बालिकाओं में से ही किसी को दूल्हा, किसी को दुल्हन किसी को सास व किसी को स्वसुर आदि मान लेती हैं । उनमें से किसी को बराती भी बना लेती हैं । कोई बाजा बजाने वाला भी उन्हीं में बन जाता है । वे विवाह के संबंध के सारे खेल खेलती हैं, तो देखिये उनको भी विवाह के संबंध का बहुत कुछ ज्ञान हो गया, यों वरयात्रा आती है, यों विवाह होता है, मगर इतना कुछ जानकर भी जिसका विवाह हो चुका, जो घर जा चुकी उसे उस संबंध में जो ज्ञान है कि यह कहलाती है गृहस्थी, इतने होते हैं यहाँ दंदफंद, इन बातों का उन बेचारी छोटी-छोटी बच्चियों को कुछ बोध है क्या? उसका बोध नहीं है । तो उनका वह खेल अनुभवरहित है और जो गृहस्थी में फँसे हैं उनका वह बोध अनुभवसहित है । तो जब अनुभवसहित पदार्थों का ज्ञान होता है तब वे यह समझ पाते हैं कि यह कल्याण है और यह अकल्याण है । तो कल्याण और अकल्याण पहचानने का मूल भी सम्यग्दर्शन है ।
(58) कल्याण व अकल्याण के लाभ का मूल सम्यग्दर्शन―इस प्रकार इस गाथा में बताया गया है कि कल्याण और अकल्याण का निर्णय सम्यक्त्व बिना नहीं हो पाता । मुख से तो सब बोल लेंगे कि संसारी पदार्थों में उपयोग फँसाना यह अकल्याण है और अपने आत्मा में उपयोग लगाना यह कल्याण है । ऐसा बोल तो सब लेंगे मगर आत्मस्वरूप का अनुभव हुए बिना यथार्थता न जगेगी कल्याण और अकल्याण की । जैसे जाड़े के दिन हैं तालाब में नहाने बच्चे लोग जा रहे हैं, अब वे तालाब के किनारे खड़े हुए पानी में कूदने से डर रहे हैं, पानी में कैसे घुसे ? ठंड लगेगी । तो पानी ठंडा होता है और दु:सह होता है, यह ज्ञान तो हो रहा है उन बच्चों को मगर पानी में कूदने पर उसका सही अनुभव हो पाता है । उससे पहले उसका उन्हें सही अनुभव नहीं होता । तो ऐसे ही जब अनुभव सहित ज्ञान होता है तब यह कल्याण है, यह अकल्याण है, यह निर्णय पक्का बनता है । तो कल्याण अकल्याण का निर्णय सम्यग्दर्शन से हुआ । किया तो ज्ञान से ही निर्णय मगर अनुभव बिना ज्ञान सही निर्णय नहीं कर सकता । और यही कारण है कि सम्यग्दर्शन के बिना उस ही ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा गया है, तो यह क्रम रहा । पहले तो साधारण ज्ञान होना आवश्यक है, जिस ज्ञान के प्रताप से वह मंद कषाय करेगा और सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियों में कुछ फर्क चलेंगे मायने इस ज्ञान और मंद कषाय के प्रताप से वे 7 प्रकृतियाँ स्वयं कमजोर बनेंगी । ऐसा होते-होते वह समय आयेगा कि 7 प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम या क्षय हुआ तो उनके सम्यक्त्व जगा ꠰ सम्यक्त्व जगते ही आत्मा के स्वभाव का अनुभव होना, सम्यग्दर्शन का होना, सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का उपशम आदिक होना यह सब एक साथ चल रहा है । फिर भी निमित्त नैमित्तिक भाव उनका जिस प्रकार है उसी प्रकार है । पहले हुआ साधारण ज्ञान, फिर हुआ सम्यग्दर्शन, उसके कारण बना सम्यग्ज्ञान । सम्यग्ज्ञान के कारण कल्याण अकल्याण का निर्णय बनता है । तब ही तो निकटभव्य जीव अकल्याण को छोड़कर कल्याण को ग्रहण करता इस प्रकार आत्मा की भलाई का मार्ग जानने में सम्यग्दर्शन सहायक है ।