वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 21
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था ।
एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।। 21 ।।
(112) दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयी की वंदनीयता―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में स्थित है वह ही पुरुष वंदनीय होता है । वंदना गुण की होती है, देह की वंदना नहीं है । लोक व्यवहार में भी लोग कहते हैं कि चाम प्यारा नहीं किंतु काम प्यारा है, याने वह कार्य करे, आलसी न हो तो वह घर वालों को प्रिय लगता है । लोक व्यवहार में भी ऐसा ही देखा जाता है, फिर धार्मिक पद्धति में तो चाम का कोई मतलब ही नहीं, केवल एक गुण की ही दृष्टि है । तो गुण की पूजा होती है शरीर की पूजा नहीं है । शरीर से कोई मानो निर्ग्रंथ भेष में आ गया और है वह मिथ्यादृष्टि, मूलगुण भी ठीक नहीं, तो वह वंदनीय तो नहीं कहा जा सकता । वंदनीय वही है जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो । तो जो चार प्रकार के विनय में रह रहा हो, दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्र विनय और तपविनय, इन गुणों की विनय करते हुए इन गुणों के धारी महंतों की विनय करता हो, ऐसा विनयशील भव्य जीव सराहनीय है, भला है, मोक्षमार्ग का रुचिया है, और यह गुणधरों के गुणानुवाद करने वाला है । जो गुण में चलेगा वह गुणियों के गुणानुवाद करेगा । जो दोष में रहता है वह दोषियों की अधिक कथा करता है और गुणियों से एक ईर्ष्या कहो या विरोध कहो या गुणियों में दोष निरखने की आदत वाला हो जाता है । तो जो गुणी है, जो लोगों के द्वारा नमस्कार के योग्य है ऐसे गुणी पुरुष गुणधरों का गुणानुवाद करने वाले होते हैं । जो इन श्रेष्ठ गुणों के धारी हैं साधु आचार्य, गणधर और ऊँचे परमेष्ठी भगवान इन सबका गुणानुवाद करने वाले होते हैं ꠰
(113) सम्यग्दर्शनविनयी की उदात्तता―सम्यग्दर्शन की विनय क्या है, विनय कहते हैं उस ओर अपना हृदय झुकाना, समर्पण होना उसकी भलाई ज्ञान में जंचना यह सब विनय होता है, तो सम्यग्दर्शन जो एक भाव है, गुण है इस सम्यग्दर्शन गुण का विनय करने वाले सम्यग्दृष्टि ही होते हैं जिसको जिसकी महिमा का पता नहीं वह उसके प्रति कैसे झुकेगा? तो सम्यग्दर्शन विनय के धारी संतजन वंदनीय हैं । क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि पुरुष है उसने सम्यक्त्व की महिमा जाना और वैसा ही दूसरों में सम्यक्त्व जंचा तो वे सब बातें उसमें नजर आने लगती हैं । सर्व बाह्य पदार्थों से समस्त औपाधिक भावों से विरक्त होकर अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप में मग्न होना यह ही एक हितरूप है ऐसी जिसकी धुन बनी रहती है वह सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन का विनय करता हैं और सम्यग्दर्शन के धारकों का जो विनय करना है वह सम्यग्दर्शन का विनय है ।
(114) सम्यग्ज्ञानविनयी की उदात्तता―ज्ञान ही दुनिया में एक सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है, जीव की भलाई ज्ञान से है, जीव का संकट ज्ञान से मिटता है । अब लोग अपना संकट मिटाने के लिए जिसने जो संकट समझा है पैसा हमारे पास कम है, यह ही संकट माना अथवा उससे इससे हमारे पास अधिक नहीं है यह भी एक संकट मान लिया ꠰ संकट मानने का है, कुछ भी संकट मान लो । तो ऐसे संकटों को दूर करने के लिए रात दिन बाहरी बातों में लगे रहना, यहां गए वहां गए, दूकान गए, लिखा पढ़ी किया, बस वही एक धुन, काम नहीं है तो भी वही धुन बनी रहती है, ऐसे पुरुषों को जिनवाणी के सुनने का समय भी नहीं मिलता है, और वे बड़े संकट में हैं । जिनको जिनवाणी के पढ़ने का समय भी नहीं मिलता, रुचि भी नहीं होती वे तो बहुत बड़े संकट में हैं । आज पुण्य का उदय है सो खिल रहे है और ज्ञानीजनों की, संतजनों की खूब खिल्लियां भी उड़ाते रहते हैं, लेकिन जो जैसा करेगा वह वैसा फल देखेगा । वे बेचारे बहुत दया के पात्र हैं जिनको धर्म के वचन सुनने का, मनन करने का, चिंतन करने का, पढ़ने का समय नहीं मिलता । समय सब है मगर तृष्णा की धुन होने से जब दिमाग गंदा हो गया तो इस दिमाग में धर्म के प्रति प्रेम कैसे आ सकता है? जिसने ज्ञान की महिमा नहीं जाना वह पुरुष तो घोर संकट में है, दया का पात्र है । जिसने ज्ञान की महिमा समझा वह ज्ञानियों के प्रति पूर्ण विनय रखता है । ज्ञानियों के प्रति आकर्षित रहता है ꠰ इस जगत में ज्ञान के सिवाय, मेरे स्वरूप के सिवाय, मेरा और है क्या ? बाहरी पदार्थ चाहे कैसा ही परिणमें उनसे मेरे में लाभ हानि नहीं, मेरा ही ज्ञान बिगड़े तो मेरा नुक्सान और मेरा ही ज्ञान सही रहे तो मेरा लाभ । यहां किसकी चिंता करते? जीव हैं, सब अपनी करतूत के अनुसार संसार में सुख दुःख पाते हैं उनमें हम कर ही क्या सकते हैं? ज्ञानी पुरुष का सही निर्णय है सो भले ही जब गृहस्थी में है, एक साथ है तो थोड़ा अपना कर्तव्य निभाता है मगर अंतरंग में उसे चिंता रंच नहीं होती । चाहे कोई कैसा ही परिणमें, सबका अपना-अपना भाग्य है । आज मान ले, इस घर में न पैदा होकर अन्यत्र कहीं होते तो उनकी कुछ चर्चा भी थी क्या? आज घर में मिल गए सो चर्चा चल रही है, ये मेरे फलाने हैं, ये यों इकट्ठे हैं, लेकिन वे सब भी उतने ही अत्यंत भिन्न हैं जितना कि जगत के अन्य सब जीव । उनकी चिंता ज्ञानी पुरुष के चित्त में नहीं रहती, एक सम्यग्ज्ञान की ही महिमा उसके चित्त में बसी रहती है ऐसा ज्ञानी पुरुष धन्य है । जिसके ज्ञान में सम्यग्ज्ञान की महिमा है और सम्यग्ज्ञानियों का ध्यान है ज्ञानी पुरुषों का हृदय से विनय करना और ज्ञानभाव का अंतरंग से विनय करना यह स्थिति बड़े सही होनहार वाले को मिलती है । तो जो संत ज्ञान का विनय करता है वह वंदनीय है ।
(115) सम्यक्चारित्रविनयी की उदात्तता―चारित्रविनय, चारित्र तो सबका एक रिजल्ट (फल) है, जैसे कहते हैं कि यह उत्तीर्ण हुआ ꠰ जैसे कोई विद्यार्थी पढ़ता है तो मानो 8 महीने में उसकी परीक्षा होती है, तो पहले दूसरे महीने में जो पढ़ा सो ऐसा ही लिया दिया सा पढ़ता है और जो ही परीक्षा का समय निकट आ आता तो वह बड़ी तेजी से अध्ययन करता है और उसको याद रखता, तो आखिर 8वें महीने में क्लास का काम पूरा हो गया, ऐसे ही यह है मोक्ष की क्लास । मोक्ष की बात सीख रहे हैं, चिंतन मनन कर रहे हैं सो पहले साधारण ज्ञान है और जब कुछ समय निकट आया, इसकी श्रद्धा बनी, उस पर तैयारी हुई कि मुझे तो ऐसा करके ही रहना है, अब उसकी प्रगति चली । अहित से हटने की और तेजी हुई और वह अपने ज्ञान में इस ज्ञानस्वरूप को रखने लगा । जब निकट काल आया तो ज्ञान में ज्ञान पूर्ण समा गया । अब यह ज्ञान अविकार हो गया, अहित से बिल्कुल छूट गया, पूर्ण हितमय हो गया । यहाँ उसका प्रोग्राम पूरा हो गया, तो जहाँ इसका प्रोग्राम पूरा होगा, मोक्ष का प्रोग्राम जहां संपूर्ण होगा वहाँ अंत में क्या चीज मिलती है? सम्यक्चारित्र । तो सम्यक्चारित्र की महिमा दिखाया है । यह सम्यक्चारित्र सबसे ऊँची बात है और ऐसे सम्यक्चारित्र को ग्रहण करने वाला, धारण करने वाला और उसमें प्रगति करने वाला सम्यक्̖चारित्रभाव में अधिक विनय रखता है, यह ही भाव हितरूप है, इससे ही उसके संकट दूर होते हैं, और सम्यक्चारित्र धारियों के प्रति विनय से क्या मतलब ? हम तो धर्म का विनय करते हैं, तो जो धर्मात्माओं में विनय नहीं रखता, उनकी उपेक्षा करता है उसमें धर्म की विनय नहीं है । ऐसा हो नहीं सकता कि धर्म के प्रति विनय का भाव आये और जब तक उसको समाधि नहीं हुई तब तक धर्मात्माओं की उपेक्षा करे, अनादर करे, यह हो नहीं सकता । तो सम्यक्चारित्र का विनय और सम्यक्चारित्र के धारियों का विनय जो रखता है वह संत नमस्कार के योग्य है ।
(116) तपोविनयी की वंद्यता―तपविनय के धारी भी वंदना के योग्य हैं । तप के प्रति विनय का भाव जगना, 12 प्रकार के जो तप हैं वह एक ऐसी शुद्ध क्रिया है कि जिसको पालते हुए जीव के उपयोग में विशुद्धि जगती है और ज्ञानस्वरूप के प्रति आदर बढ़ता है, तो तपश्चरण एक प्रायोग्य बात है जिसमें रहते हुए इसकी पर पदार्थों के प्रति आशक्ति नहीं रहती । यहाँ एक और मोटी बात समझो कि अगर कोई शारीरिक या अन्य कठिन दुःख में आया हुआ हो तो उसे विषयों की कोई प्रीति नहीं रहती और उसका तो यह ही भाव रहता है कि मेरा यह संकट टले । उसे अन्य आराम की बात नहीं सूझती । कोई किसी कारण से अत्यंत दुःखी हो तो क्या वह इसमें शौक मानेगा कि बढ़िया शैया हो, हम खूब सोये, आराम से रहे? अरे उसका तो दिमाग ही और कुछ बन गया । यह तो लोक में देखा जाता, पर लोक में जो देखा जाता है वह एक यह दुःख पूर्वक देखा जाता हैं, मगर तपश्चरण के प्रसंग में दुःख भी महसूस नहीं करता और परपदार्थों के प्रति उसको प्रीति भी नहीं जगती । एक विशुद्ध ज्ञान स्वरूप को ही अनुभवने की धुन रहती है । तो जो तपश्चरण के प्रति विनयशील हैं वे पुरुष भी हमेशा सराहने योग्य हैं, ऐसे पुरुष वंदनीय हैं और वे गुणधारी पुरुषों के गुणों का अनुवाद करने वाले हैं । एक मोटी पहिचान है भले आदमी की कि जो गुणियों के गुण बखाने वह भला आदमी है और जो गुणियों के दोष बखाने वह खोटा आदमी है । यह भले खोटे की पहिचान है । अगर किसी में गुणियों के दोष बखानने की आदत है तो वह तो खोटा है ही, क्योंकि उसके उपयोग में दोष ही दोष समा रहे हैं इसलिए वह दोष बोल रहा है । तो जो उच्च पुरुष हैं वे वंदनीय हैं, वे गुणधारियों के गुणों का वर्णन किया करते हैं ।