वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं ।
केवलिजिणेंहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। 20 ।।
(11॰) शक्य के आचरण का व वर्तमान अशक्य के श्रद्धान का अनुरोध―इस गाथा में ग्रंथकार कहता है जितना जो कुछ करने में आ सके उतना तो करना चाहिए और जो न किया जा सके उसका श्रद्धान तो होना ही चाहिए । केवली जिनेंद्र भगवान ने बताया हैकि जो श्रद्धान रखेगा यथार्थ बात का उसके सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व का फल तो यह है कि उस रूप करना चाहिए । जब एक श्रद्धा हो गई कि यह तो हित है और यह अहित है तो अब इसमें देर तो न करना चाहिये । अहित को छोड़े और हित को ग्रहण करें । फिर भी कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि अहित का त्याग नहीं कर पा रहा और हित में नहीं लग पा रहा तो कम से कम यह श्रद्धा तो होना ही चाहिए कि यह हित है और यह अहित है । श्रद्धा हैं तो वह सच है और निकट काल में वह उस काम को कर लेगा । जान लिया ज्ञानी पुरुष ने कि जितने विकार भाव हैं वे सब अहितरूप हैं और आत्मा की जो ज्ञानज्योति है, सहज चेतना है, वह है हितरूप, और ऐसी श्रद्धा कर ली है इतने पर भी पूर्व बद्ध कर्म के ऐसे उदय चलते हैं और उनका इस जीव में ऐसा प्रतिफलन चलता है कि जिससे ज्ञानस्वभाव मलिन बन गया ꠰ वह सही प्रकट नहीं हो पा रहा याने ज्ञाता दृष्टा नहीं बन पा रहा और कुछ इंद्रिय के विषयों में भी लग गया । अहित का परिहार करना चाहिये था मगर न कर सका । हित क्या है? आत्मा का चैतन्य स्वरूप, मगर उसमें नहीं लग सका तो भी इस ज्ञानी को श्रद्धा तो यह ही है कि ये विषय कषाय अहितरूप हैं । और जिसको ऐसी श्रद्धा है वह इन विषयों में अनासक्त होकर लगता है । उन आशक्ति से वह नहीं लग पाता । जैसे जिसको यह नहीं मालूम कि यहाँ आग पड़ी है वह यदि चलेगा तो बड़े फोर्स से चलेगा और जिसको यह मालूम है कि यहाँ आग पड़ी है मगर हमारे जाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है, इस पर ही पैर धरकर जाना पड़ेगा तो वह बड़ी जल्दी से ढीला सा पैर धरकर आगे बढ़ जायेगा, तो ऐसे ही जिसको ज्ञान नहीं है, अज्ञानी है वह विषयकषायों में पूर्ण आशक्ति से लग जायेगा और जिसको ज्ञान है कि ये विषय कषाय अहितकर हैं वह उन पर से ढीला होकर गुजर जायेगा, आशक्त न होगा ꠰ भोग भोग रहा है मगर भोगों में आशक्त नहीं है, क्योंकि उसको श्रद्धा है, तो जब किया न जा सके जो श्रद्धा में समझा है तो उसकी श्रद्धा तो करे ।
(111) यथार्थ श्रद्धानी के सम्यक्त्व और अजरामरस्थान का लाभ―श्रद्धा में आ गया कि जीव अविकार स्वभाव है, इसका विकार स्वरूप ही नहीं है, यह तो अपने स्वभाव मात्र है । अपनी सत्ता से यह तो चेतना मात्र है, यह बात उसकी श्रद्धा में आ तो गई मगर उससे ऐसा करते नहीं बन पाता कि शुद्ध चेतना प्रकट हो जाये, विकारभाव रंच भी न आये, ऐसी दशा तो बड़े आत्म पौरुष से कुछ काल में बनेगी । गुणस्थान में वृद्धि हो, क्षपक श्रेणी मांडे, चार घातिया कर्म नष्ट हों, आत्मसमाधि बने वहाँ होगी यह दशा । अभी नहीं हो पा रही है फिर भी श्रद्धा तो रखनी ही चाहिए कि जीवस्वरूप यही है अविकार स्वभाव यही है, सो आचार्यदेव कहते हैं कि केवली जिनेंद्र भगवान ने यह बताया है कि यथार्थ श्रद्धान जो रखता रहे उसके सम्यक्त्व है तो वह कभी जल्दी पार हो ही जायेगा । ऐसे ही एक गाथा और बोलते हैं तत्त्वार्थसूत्र के पाठ के अंत में ꠰ वे क्षपक गाथायें हैं, वहां एक गाथा में यह कहते हैं कि ‘जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं, सद्दहमाणों जीवो पावइ अजरामरट्ठाणं’ जितना बने उतना करो, मगर जो न बन सके उसकी श्रद्धा तो रखिये । तो जो यथार्थ तत्त्व की श्रद्धान रखने वाला होगा वह अजर अमर स्थान को प्राप्त करता है । तो कितना ही समय लगे, कितने ही भव लगें किंतु जिसको सम्यक्त्व हो गया वह अजर अमर पद को प्राप्त करेगा ।