वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 4
From जैनकोष
सम्मत्तणाणदंसणवलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे ।
कलिकलुषपापरहिया वरणाणी होंति अइरेण ꠰꠰4꠰।
(23) पंचमकाल में धर्म के उपासकों की श्लाघ्यता―उत्कृष्ट ज्ञानी कौन है, इसका समाधान इस गाथा में किया गया है । जो भव्य पुरुष ज्ञान, दर्शन, बल इनमें बढ़े चढ़े हुए हैं और इस पंचम काल में भी जो कलुषताओं से, पापभावों से रहित हैं वे उत्कृष्ट ज्ञानी हैं और वे शीघ्र ही निष्पाप हो जायेंगे । यह काल अवसर्पिणी का पंचम काल है । अवसर्पिणी उसे कहते हैं कि जिस काल में लोगों का बुद्धि, बल, चारित्र ये सब हीनता की ओर जाये । इस पंचम काल के प्रारंभ में मनुष्य करीब 7 हाथ के ऊँचे होते थे । आज घटते-घटते कोई साढ़े तीन हाथ के रह गए, और घटते-घटते पंचम काल के अंत में छठे काल के प्रारंभ में एक हाथ के ऊँचे मनुष्य रह जायेंगे । जब छठा काल पूरा होगा तब प्रलय होगी भरत क्षेत्र के आर्य खंड में, मलेच्छ खंड में प्रलय नहीं होती; लेकिन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के हिसाब से साधारण थोड़ी ही हानि वृद्धि चलती है । तो इस पंचमकाल में लोग आज पापरहित हों, सरल हों, धर्मानुरागी हों, यह भी एक बहुत बड़ी बात है । इसी बात को कह रहे हैं कि जो जीव इस कलिकाल में भी पाप की कलुषता से रहित हैं वे शीघ्र ही उत्कृष्टज्ञानी बनेंगे और निकट काल में केवलज्ञानी बन जायेंगे । आज न बन सकेंगे, कुछ भव पाकर बनेंगे ।
(24) सम्यक्त्वबल से वर्द्धमान जीवों की श्लाघ्यता―कौन से जीव निकटकाल में निकट भव में केवलज्ञानी बनते है? जो सम्यक्त्व के बल में बढ़ रहे हैं सम्यग्दर्शन कहते हैं आत्मा के सहज स्वरूप का अनुभव होना । मैं क्या हूँ, इसके उत्तर में सहज चैतन्यभाव चित्प्रकाश सामान्य प्रतिभा, जिसमें बाहरी पदार्थों के प्रति कोई तरंग नहीं उत्पन्न होती, ऐसा वह चैतन्य सामान्य स्वरूप, तन्मात्र हूँ मैं । ऐसा जिसको दृढ़ विश्वास है वह कैसे दूसरे जीवों में रागद्वेष बढ़ा सकेगा? उसके मोह न रहेगा । मोह अज्ञान में ही रहता है । जहाँ प्रत्येक पदार्थ का स्वतंत्र-स्वतंत्र अस्तित्व परख लिया गया वहाँ जीव को मोह नहीं रहता । कैसा सही विश्वास है ज्ञानी जीव को कि बाहरी पदार्थ चाहे कितना ही बिगड़े सुधरे, कैसी ही स्थिति आ जाये उससे वह अपनी हानि लाभ नहीं समझता । चाहे लौकिक जनों द्वारा मानी गई कितनी ही विडंबनायें आये, पर गिर गया, कैसी भी स्थिति आ गई हो, ज्ञानी जानता है कि मेरे आत्मा का तो मात्र मेरा आत्मा ही है । जगत में अनंत जीव हैं जो पर हैं, जुदे हैं, ठीक उस ही प्रकार घर में आये हुए प्राणी भी अत्यंत भिन्न हैं, जुदे हैं, रंच भी संबंध नहीं है, उनकी परिणति उन ही में हो रही है । उनके कर्म वे ही भोग रहे हैं, उनके भावों का प्रभाव, उन ही में चलता है । उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उन ही में रह रहा है, फिर उसका क्या संबंध है,? रंच मात्र कहो, मात्र का भी संबंध नहीं, पर जब यह ज्ञान नहीं रहता, पदार्थ की स्वतंत्र सत्ता का बोध जब नहीं है तो वह अपने शरीर को ही तो अपना सर्वस्व समझ रहा है । तो उस शरीर के नाते से दूसरे शरीर को भी अपना कुछ समझ रहा है । इस शरीर को जो रमाये उसको स्त्री, पति समझता है । इस शरीर के निमित्त से जो शरीर उत्पन्न हो उसको पुत्र समझता है । ये सब कल्पना मिथ्यात्व में हुआ करती हैं । जब तक जीव के मिथ्यात्व है कल्पनायें जग रही हैं तब तक इसको शांति का मार्ग मिल ही नहीं सकता । कर्तव्य करना और बात है । उस पर विश्वास ही बना ले कोई कि मेरा ही है यह सब, तो वह अज्ञानी है, दुर्गति का पात्र है । जो जीव सम्यग्दर्शन में बढ़े हुए है उनके समान पवित्र और महान किसे कहा जाये? इस लोक सम्यक्त्वरहित पुरुष चाहे कितने ही ऊँचे हों, सरकारी ओहदों पर या धन में या कला में, लेकिन उनका कुछ महत्त्व नहीं है इस दुनिया में, क्योंकि सबके साथ कर्म बंधे है, किसी भव का पुण्योदय आया और आज लोक में उसे कुछ ऊंचापन मिल गया तो वह कोई स्वाभाविक चीज तो नहीं है । जो टिकी रहेगी, वह तो मिटेगी । भले ही एक इस मनुष्यभव में बहुत बड़ी प्रशंसा लूट ले कोई मगर उसका प्रभाव आगे तो नहीं रहने का । आगे तो प्रभाव उसका चलेगा जैसे भाव इस जीवन बनाया । भीतर में मायाचार है, तृष्णा है, मान (घमंड) है तो उससे जो कर्म बंध हुआ उसका ही प्रभाव मिलेगा । ज्ञानी जीव इन सब बातों में सुलझा हुआ है इस कारण वह कभी व्यग्र नहीं होता ।
(25) ज्ञानी की निर्व्यग्रता का राज―ज्ञानी में जो निराकुल रहने की कला आयी है उसका कारण सिर्फ एक इतना ही है कि उसने अपनी सहज सत्ता से जो कुछ इसका स्वरूप है उस रूप अपने को मान लिया, मैं इससे बाहर नहीं, मैं स्वयं यह ज्ञानानंद स्वभाव वाला हूँ, स्वयं में स्वयं का परिणमन कर रहा हूँ । भले ही अन्य पदार्थ ज्ञान में आ रहे, पर अन्य पदार्थों को यह जानता नहीं, अन्य पदार्थों की यह अपेक्षा रखता नहीं । इस ज्ञान का स्वरूप ही ऐसा है जैसा पदार्थ है वैसा आकार स्वरूप इस ज्ञान में झलक जाता है, जैसे दर्पण कहीं चल फिर कर दूसरे पदार्थों की फोटो नहीं लेता रहता है, वह तो अपनी जगह पड़ा है, सामने जो आया उसका स्वयमेव यहाँ प्रतिबिंब हो जाता है, इसी तरह आत्मा का स्वरूप चैतन्य है इस कारण से स्वयमेव ही जो कुछ भी पदार्थ बाह्य में हैं उनका आकार यहाँ झलकता है । ऐसी अपनी भीतरी समस्या को इस ज्ञानी ने सुलझा लिया तब इस तीन लोक में किसी भी अन्य पदार्थ में यह सामर्थ्य नहीं या कोई भी बाह्य पदार्थ इसके लिए जबरदस्ती न कर सकेंगे कि ये दुःखी ही रहें । यहाँ ज्ञानी को अब कोई भी बाह्य पदार्थ दुःख देने में समर्थ नहीं । हां यह ज्ञानी ही जब ज्ञानभाव छोड़कर स्वयं ज्ञानदशा में आयगा तो वह दु:खी हो लेगा । ज्ञान के बराबर प्रभाव जगत में कुछ नहीं है । लोगों की आदत है कि बड़े धनिक को देखकर वे तृष्णा और ईर्ष्या रखते हैं, अगर यथार्थता ज्ञान में आ जाये तो ये पुरुष बड़ों से ईर्ष्या और तृष्णा करने के एवज में उन पर दयाभाव रखने लगे । ये बेचारे धनिक लोग बड़े दुःखी है, इनको अपने आत्मा की कुछ सुध नहीं है । अपने आत्मा की सुध से चिगकर बाहरी पदार्थों को सर्वस्व मानकर इन बाहरी पदार्थों में ही उलझ रहे हैं और अपना दुर्लभ पावन मनुष्य जीवन गँवा रहे हैं । ऐसा ध्यान करेंगे ज्ञानी जन और अज्ञानी जनों पर दया का भाव रखेंगे । आज भी जो सम्यक्त्व में और ज्ञान में बढ़े हुए पुरुष हैं वे शीघ्र ही, निकट भव में ही केवलज्ञानी बनेंगे । अपने बारे में एक बात विचारें कि संसार में जन्म मरण कर करके अनंत काल गुजारते हैं या इस जन्म मरण से छूटकर अपने आपके अनंत आनंद को भोगते हुए पवित्र रहना है? इन दो में से क्या होना है अपने बारे में निर्णय बनाओ । यदि संसार में जन्म मरण करते रहना है, यह ही ठान ली है तो यह तो अनादि काल से चला आया है । यदि ऐसे ही विषय के इन फंदों में पड़े रहे तो ये सब जन्म मरण बराबर मिलते ही रहेंगे । और यदि संसार के संकटों से छूटना है तो अपने आपमें आने का साहस बनाओ । इस मोह को, अज्ञान को खतम कर दीजिये, कोई संकोच न रखो, ज्ञान प्रकाश सही लाइये । ‘‘निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नहिं लेश निदान ।’’ ज्ञान से प्रीति हो, ज्ञान को ही वैभव मानें, ज्ञान में ही बढ़ते रहने की धुन बनावें । जो जीव ज्ञान में वर्द्धमान हैं वे निकट काल में संसार के समस्त संकटों से मुक्ति पा लेंगे ।
(26) दर्शनगुण से वर्द्धमान ज्ञानी जनों की श्लाघ्यता―आत्मा का एक गुण है दर्शन । दर्शन एक ऐसा पवित्र भाव है कि दर्शन में मिथ्यात्व नहीं आता संसर्ग से भी । जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, ये अगर मिथ्यात्व के साथ हैं तो ये कुमति, कुश्रुत, कुअवधि हो जाते हैं । मिथ्यादृष्टि के भी दर्शन कुदर्शन नहीं होते वह तो एक ही प्रकार का है । झलक हुई, उसे अच्छे बुरे से मतलब नहीं, उसे इष्ट अनिष्ट का विकल्प नहीं, वह तो केवल एक जाननहार अंतस्तत्त्व का अवलोकन करता है । यदि इस दर्शन का ही दर्शन हो जाये तो सम्यग्दर्शन होना सुगम है ।
आत्मा का दर्शन गुण आत्मप्रतिभास स्वरूप, इस कला में जो बढ़ रहे हैं वे पुरुष शीघ्र ही केवलज्ञानी बनेंगे ।
(27) आत्मबल से वर्द्धमान ज्ञानी जनों की श्लाघ्यता―आत्मा का बल क्या है? शुद्ध ज्ञानदर्शन होना रागविकार इसमें न जगे और अपनी सही कला से, अपने चैतन्यस्वरूप से यह सतत प्रकाशमान रहे, इसके लिए जीव में अनंत बल हुआ करता है । अपनी शक्तियों को अपने में ही डाटे रहना और इसका परिणाम अपने संयम से, केंद्र से दूर न जाये, इसके लिए अनंत बल की आवश्यकता होती है । एक साधारण अंदाज लगाओ―शरीर में खून, मांस, पीप, नाक, थूक वगैरह ये सब चीजें पड़ी हुई हैं । ये कोई चीज बाहर न निकलें उसके लिए शरीर में कुछ शक्ति चाहिए कि नहीं? यदि शरीर में बल नहीं है तो लार गिरेगी, नाक गिरेगी, चमड़ी में झुर्री आ जायेगी । तो जैसे शरीर में रहने वाली चीजों को शरीर में डाले रखने के लिए बल चाहिए, तब फिर आत्मा में रहने वाले गुणों को आत्मा में ही डाटे रहें ये बाह्य में न उल्झे, इसके लिए आत्मबल चाहिए । संसार के लौकिक कामों में खूब बढ़े चढ़े पुरुष अपने को बड़ा शूरवीर समझते हैं, मगर शूरवीरता तो विषयों का परिहार करने में है, विषयों में लगने में शूरवीरता नहीं है । ‘‘भोग तजना शूरों का काम, भोग भोगना बड़ा आसान ।’’ भोगों का भोगना आसान है मगर भोगों का तज देना यह शूर वीरों का काम है । तो अपने ही गुण अपने में ही रहे, अपने गुण अपना स्वाभाविक काम करते रहें इसके लिए बल चाहिये । जिसे कहते हैं वीर्य, आत्मशक्ति । इसमें जो बढ़ रहे हैं इस कलिकाल में भी वे पुरुष यथा शीघ्र ही निकट भवों में केवलज्ञानी बनेंगे ।
(28) कलिकाल में धर्मोंपासकों की विरलता―आज कभी कभी यों लोगों की समझ में आने लगता कि अब तो धर्म वाले, ज्ञान वाले खूब बढ़ चढ़ रहे हैं । ज्ञान में भी बढ़ रहे हैं, धार्मिक ज्ञान में भी बढ़ रहे हैं, अगर वे कोई मिशन बनाकर चलते हैं तो वे कषाय में बढ़ रहे कि धर्म में बढ़ रहे? पंचमकाल में कषायों की तो बढ़वारी है, पर धर्म, ज्ञान, श्रद्धान, इनकी हीनता चल रही है । इसी को ही तो पंचमकाल कहते हैं । तो ऐसे निकृष्ट काल में भी जो जीव पापकालिमा से रहित हैं अथवा अपने गुणों में बढ़ रहे हैं वे पुरुष धन्य हैं । अपने आप में अपने आत्मा की सम्हाल रखना, अपने आत्मस्वरूप को निरखना, यह अपने आपको बड़ा काम देगा । और, अपने स्वरूप की सुध से हटकर बाहरी लोक में यह मेरा परिवार है, ये मेरे मित्रजन हैं इस-इस प्रकार की जो बुद्धियां बन रही है, यह बुद्धि कष्ट देने वाली है । आनंद का धाम तो स्वयं यह भगवान आत्मा है । और, अपने आत्मा का जो सहज चैतन्य चमत्कार मात्र अपना स्वरूप अपनी दृष्टि में हो तो वह है आत्मा का उत्थान । इसमें बढ़ने की धुन बनानी चाहिये । यह आत्मधुन अपने स्वरूप में रमने की बढ़ोतरी स्वरूपदृष्टि के अभ्यास से बनेगी, और यह स्वरूपदर्शन मनन से होता है और मनन करने वाले पुरुष इस तरह भी प्राप्त कर लेते हैं कि बाहरी पदार्थों को सबसे असार जानकर, अपने से भिन्न जानकर उनका ख्याल छोड़ देते हैं । दूसरा कोई भी पदार्थ मेरे लिए हितकारी नहीं है । मुझसे सभी अत्यंत भिन्न हैं, उनको क्यों अपनाना? उनसे क्यों संबंध बढ़ाना? मरने पर तो अकेला ही जाना पड़ता है । तो इस जीवन में जिनका संयोग हुआ है उनमें मोह का अभ्यास किया, उनका लगाव बढाया तो इस समय भी दुःख रहा और अगले भव में भी दुःख ही मिलेगा, इसलिए अपने को दुःखी करने वाली बात से क्यों मोह बन रहा? वैराग्य और ज्ञान ये दो ही आनंद के कारण हैं ।
(29) विकार से प्रीति तजकर अविकारस्वरूप में रति करने का अनुरोध―राग अज्ञान ये नियम से आकुलता ही उत्पन्न करते हैं । स्वरूप ही उनका ऐसा है । जैसे कोयले का स्वरूप काला ही है । जहाँ कोयले का धरना उठाना अधिक चल रहा है वह स्थान स्वच्छ (सफेद) कैसे रह सकेगा? ऐसे ही जिस जीव में राग और अज्ञान चल रहा है वह जीव निराकुल और शांत कैसे रह सकता है? हिम्मत बनायें । जब संसार में हर तरह से कष्ट पाते हैं हम, तो वैराग्य और ज्ञान की दिशा में बढ़ने में अगर कोई कष्ट भी आये तो जहाँ हजारों कष्ट सहते हैं वहाँ जरा यह भी कष्ट सहकर देख लें । यह कष्ट तो केवल मानने भर का है, कल्पना का है । और सारे कष्ट भी कल्पना के हैं । कल्पना स्वयं दुःखरूप है । किंतु वैराग्य और ज्ञान में कोई मिथ्या कल्पना नहीं है इस कारण वैराग्य और ज्ञान स्वयं आनंदस्वरूप हैं । ज्ञान और वैराग्य का आदर करें, निर्णय रखें कि जो भी मुझमें राग चल रहा है वह नियम से अपवित्र ही है । औपाधिक है, परभाव है, कर्मविपाक की झांकी भर है, उससे मेरा कोई संबंध नहीं, वह मेरा स्वरूप नहीं । मैं तो उससे निराला केवल चैतन्य चमत्कारमात्र हूँ, ऐसे सहज चैतन्य चमत्कारमात्र अंतस्तत्त्व में यह मैं हूँ, अन्य कुछ नहीं, सही ईमानदारी से ऐसा अपने आप में दृढ़ निर्णय करके अपने आप में निरखेंगे तो नियम से कर्मबंधन टूटेंगे । खुद ही महान् बल है । खुद ही अपने आपका गुरु है, खुद ही अपने आपका देवता है । खुद ही यह शास्त्र स्वरूप है अपने आपके सहज स्वभाव रूप में अपने आपको निरखे, फिर इस जीव को कोई संकट सता नहीं सकता । संकटों के अगर नाम लेकर परीक्षा करें तो आपको केवल कल्पना और अपने आपका भोंदूपन ही नजर आयेगा? । बताओ―अगर यह भींत गिर गई तो क्या आपका अमूर्त आत्मा गिर गया? उसका क्यों कष्ट माना जा रहा? वह तो बेवकूफी है । बिल्कुल अज्ञान भरी बात है । व्यर्थ ही उसकी ओर इतना लगाव बढ़ा रखा है । अरे रहना है उस जगह तो कर्तव्य कर लो, गुजारा करना है, जैसे बने वैसे गुजारा हो जायेगा, मगर उसका अफसोस करना यह महान अज्ञान है । बाह्य पदार्थ कैसे के कैसे ही परिणम जायें, उससे मेरी कुछ हानि नहीं, किंतु मेरा किसी पर पदार्थ में लगाव और मोह रहता है तो उससे तत्काल अनर्थ हो रहा है । इस अनर्थ का फल दूसरा कोई भोगने न आयगा खुद को ही भोगना पड़ेगा । ये सब बातें जानकर अपने को शांत जीवन बिताना चाहिए, कलुषताओं से दूर रहना चाहिए, जो सही आत्मस्वरूप है उसकी ओर ही लगकर अपने में संतोष पायें, बस यह ही एक निर्णय बने । इस आधार से जीवन चले तो हम आप निकट काल में सर्व संकट से छूटकर केवलज्ञानी बन सकेंगे ।