वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 3
From जैनकोष
सम्मत्तविरहियाणं सुट्ठुवि उग्गं तव चरंताणं ।
ण लहंति बोहिलांह अवि वाससहस्सकोडीहिं ।। 3 ।।
(18) सम्यक्त्वरहित के बोधिलाभ का अभाव―जो जीव सम्यक्त्व से रहित हैं वे बड़े घोर तप भी करें तो भी वे बोध का लाभ नहीं प्राप्त कर सकते हैं । हजारों करोड़ों वर्ष भी उनके तपश्चरण में गुजर जायें फिर भी वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं कर सकते जो सम्यक्त्वरहित हैं वे सम्यक्चारित्र न पाल सकेंगे, क्योंकि चारित्र नाम है अपने आत्मा के स्वरूप में उपयोग को मग्न कर देने का । यह मग्न हो क्यों जाता है? अगर विषम चीज हो तो मग्न नहीं हो सकता । जो समान हो सो ही मग्न हो सकेगा । तो आत्मस्वरूप है ज्ञानमय और जिसको मग्न होना है वह भी ज्ञानस्वरूप है, याने स्वरूप में उपयोग को मग्न करना है । यद्यपि स्वरूप और उपयोग कोई भिन्न प्रदेश वाले नहीं हैं, जुदे-जुदे वस्तु नहीं हैं लेकिन यह जीव अनादि से अब तक इस स्वरूप से जुदा चल रहा है ना? यद्यपि उपयोग स्वरूप से अलग नहीं है, ज्ञानमय है, मगर ज्ञानमय का क्या करें? जो अपने को ज्ञानमय न समझता हो । तो जो ज्ञानमय नहीं समझ पाता उसको ही अज्ञान कहते हैं चाहे दुनियावी ज्ञान कितना ही बड़ा कर ले, बड़े-बड़े आविष्कार के ज्ञान कर लें, बड़ी-बड़ी ऊँची कलाओं के ज्ञान कर लें, मगर ज्ञान करने वाला यह ज्ञानमय हैं । और यह ज्ञानमय अपने ज्ञानस्वरूप का ही विलास है, यह जब तक ध्यान में नहीं है तब तक उपयोग अपने स्वरूप में मग्न नहीं हो सकता । यह कला अज्ञानी जनों ने नहीं पायी, इस कारण किसी प्रयोजन से, अपनी बुद्धि माफिक चाहे धर्म के प्रयोजन से हजारों, लाखों, करोड़ों वर्ष भी भीषण तप करें तो भी वे सम्यक्चारित्र को प्राप्त नहीं कर सकते । खुद में खुद समा जाये इसको कहते हैं सम्यक्चारित्र । जिस उपयोग के लक्ष्य में यह तत्त्व समाया हो कि यह मैं, मेरा स्रोतभूत यह मैं आत्मद्रव्य केवल सहज ज्ञानस्वरूप, चैतन्यस्वरूप, चैतन्यमात्र हूँ । स्वयं यह अपने आप विकार करने में असमर्थ है, यद्यपि उपाधि और निमित्त के सन्निधान में परिणमता यह जीव ही अकेला है विकाररूप, कहीं जीव के विकार रूप जीव और कर्म दोनों मिलकर नहीं परिणमते, कर्म अपने विकार रूप परिणमता है । परिणमता है यह अकेला ही मगर निमित्त सन्निधान बिना अकेला परिणम सके तो कहा जायेगा कि यह जीव स्वयं ही अकेला परिणम रहा है, पर ऐसा नहीं होता । अगर जीव स्वयं उपाधि बिना अकेला ही परिणम जाये तो फिर वह विकार कभी मिट नहीं सकता । विकार चूंकि नैमित्तिक हैं इस कारण ये टाले जा सकते हैं । तो ज्ञानी ने यह सब पहिचान लिया है । जितने विकार हैं वे सब परभाव हैं, उनमें लगने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं ।
(19) अविकार सहज अंतस्तत्त्व की अनुभूति में परमात्मत्वलाभ की दिशा―विकारभावों में जुड़ना बस यही अनर्थ है, यही क्लेश है । जिनको सही ज्ञान हो गया कि ये विकार क्या हैं? कर्मविपाक की छाया है, और छाया है प्राणी में अज्ञान, उस अज्ञान के कारण उस छाया में आशक्त हो गया । जैसे ही यहाँ ज्ञान प्रकट होता है तो कर्मों में छाया में इसको अब रति नहीं रहती । मैं सहज शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ, यह उसकी प्रतीति में है, और जिसके ज्ञान में अपना सहज स्वरूप बसा है वह सहज ही अपने आपकी ओर ढलेगा और इस ही के अभ्यास होने के बल से कभी अपने आप में सदा के लिए मग्न हो सकेगा । लेकिन जिसने अपने सहज स्वरूप का अनुभव नहीं किया वह स्वरूप में मग्न नहीं हो सकता । अनुभव की महिमा सबसे ऊँची है । ज्ञान तो लोगों को बहुत से हो जाते हैं―अमेरिका यहाँ है, हम आप भी बोलते हैं जिन्होंने कभी अमेरिका, देखा ही नहीं कि कैसा है अमेरिका, वे भी चित्र देखकर अमेरिका के संबंध में बहुत कुछ बातें बताते हैं । और, तो जाने दो, जिन्होंने यही अपने भारत देश में किसी स्थान को नहीं देखा उसका भी वे ज्ञान करते हैं, अगर उस स्थान को वे आंखों से स्वयं देख लें तो वह कहलाता है सानुभव ज्ञान, अनुभव में उतरा हुआ ज्ञान । उसके पहले था कागजी ज्ञान, तो ऐसे ही जीव के बारे में कागजी ज्ञान हुए बिना भी काम न चलेगा, क्योंकि पहले ज्ञान होना आवश्यक है तब तो श्रद्धान बनेगा । मगर वह ज्ञान सम्यक् तब तक नहीं कहला पाता जब तक कि उसका अनुभव न बने । तो कोशिश यह होनी चाहिए कि जगत की सारी बातों को बेकार जानकर, अनर्थकारी जानकर उनमें दिलचस्पी न ले, उनमें दिमाग में भटकायें, उनके जाननहार बने रहने का प्रयत्न करें । उनमें जैसा जो होना था हुआ, वे पर पदार्थ हैं, दूसरे जीव हैं, उनकी जैसी कषाय है, जैसा भाव है वैसा वे परिणमते हैं । तेरा वे कुछ बिगाड़ते नहीं हैं । अचेतन पदार्थ जो हैं ये हैं और पड़े हैं यहाँ हैं, निकल जायें, अन्यत्र चले जाये, उनकी सत्ता नहीं मिटती । उनका स्थान परिवर्तन हुआ है, वे यही रहे तो क्या, अन्यत्र कहीं चले जायें तो क्या? उससे मेरा क्या? उससे मेरा क्या बिगाड़? मैं तो केवल एक अपनी सत्ता मात्र हूँ, अपने आपकी सत्ता में ही मेरा सब कुछ चल रहा । इससे बाहर मेरा कुछ अधिकार नहीं, कुछ संबंध नहीं, कुछ बात ही नहीं । इस तरह जिसने अपने स्वरूप का अवलोकन किया ऐसा पुरुष अपने स्वरूप में मग्न हो सकता है, चारित्र पा सकता है ।
(20) सम्यक्त्वरहितदशा में निरवाध आत्मप्रगति की अशक्यता―जो सम्यक्त्व से रहित हैं वे बहुत उग्र तप भी कर डालें तो भी इस समाधि भाव को प्राप्त नहीं हो सकते । यद्यपि मुनिव्रत में बहुत बड़ा माहात्म्य है । अगर वे सही रूप से द्रव्यत: भी व्रत पालें, समता परिणाम रखें, रागद्वेष न करें, जैसा जो कुछ मुनिव्रत में बताया है―निर्दोष चर्या करें, अपने को शांत परिणाम में रखें तो वे नवग्रैवेयक तक पैदा हो सकते हैं । और नवग्रैवयक क्या चीज है? स्वर्गों से ऊपर के विमान हैं, जहां हजारों वर्षों में भूख लगती है, कंठ से अमृत झड़ जाता है, अनेक पक्षों में श्वांस लेना होता है । जैसे-यहां आधा-आधा मिनट में श्वास लेना होता है वैसे ही वहाँ कई-कई पखवारों में श्वास लेना होता है । (सुख की बात कह रहे हैं) इसको ही लोग बैकुंठ कहा करते हैं । लोग कहते हैं कि वैकुंठ में जीव चला गया तो बहुत दिन वहाँ रहेगा, वही उसकी मुक्ति कहलाती है । मगर सदाशिव एक ईश्वर है जो कि सृष्टि करता है, बस उसके मन में जब आया तब वह वहाँ से ढकेल देता है । फिर उसे संसार में रुलना पड़ता है...., ऐसा अन्य लोग कहा करते हैं । यही बात वहाँ बैकुंठ में देखने को मिलती है । अज्ञानी जीव वैकुंठ से ऊपर नहीं जा सकते, ग्रीवा भी नाम कंठ का है और कंठ नाम भी कंठ का है । ग्रैवेयक कहो चाहे वैकुंठ कहो, दोनों का एक ही अर्थ है । तो ये अज्ञानी जीव मुनिव्रत धारण कर शुक्ललेश्या के बल से, कुछ शुभोपयोग के बल से नवग्रैवेयक तक पैदा हो जाते हैं, और जब उनकी आयु समाप्त होती है तो सदामुक्त परमेश्वर अर्थात् यह आत्मस्वरूप याने अपने ही आत्मा का बस एक आर्डर हुआ कि वहाँ से चय करके यहाँ मनुष्य बनते हैं, फिर जन्ममरण चलता रहता है जन्ममरण तो चल ही रहा है । वह भी जन्म मरण था, उनकी आयु 30―31 सागर तक की होती है । एक सागर में असंख्याते वर्ष गुजर जाते हैं । इतने लंबे काल तक वे वहाँ रहते हैं । वहाँ पर भी मंद कषाय है, शुक्ल लेश्या है । उनमें आपस में वादविवाद नहीं होता, परस्पर में कभी झगड़ा नहीं होता, उनको कभी ताव नहीं आता, वे बड़े अच्छे ढंग से शांतिपूर्वक रहते हैं । ये सब बातें वहाँ चलती हैं मगर एक अपने स्वभाव की सुलझ न होने से इतने ऊँचे चढ़कर भी आखिर वे नीचे आते हैं । तो अब आप जानें कि सम्यक्त्व की और आत्मज्ञान की कितनी महिमा है, कितनी लागत है । तीनों लोक का वैभव भी मिले और एक सम्यग्दर्शन न हुआ तो वह वैभव भी तुच्छ तृणवत् है । उससे इस आत्मा को क्या मिलना जुलना? आत्मा तो स्वयं अपने आप आनंदमग्न है, उसका इन बाह्य पदार्थों से कोई संबंध नहीं है । तो ऐसे सर्व बाह्य पदार्थों से पृथक्, विकारभावों से पृथक् अपने आपका जो सहज चैतन्यमात्र स्वरूप है उस स्वरूप में मग्नता सम्यग्दृष्टि ही कर सकेगा, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि उस स्वरूप मग्नता को नहीं पा सकते ।
(21) अज्ञान में आत्मसिद्धि की असंभवता―कहते हैं कि अज्ञानी पुरुष करोड़ों वर्षों में जितने कर्म काटते हैं उतने कर्मों को ज्ञानी जीव गुप्तिबल से क्षणमात्र में काट देते हैं । यह तो तुलना में बताया है कि अज्ञानी के करोड़ों वर्षों में कटने वाले कर्म और ज्ञानी के क्षणमात्र में कटने वाले कर्म, उनकी जो एक समानता बतायी है कि उतने कट जाते हैं, वह एक अंदाजा देने के लिए बताया है । अज्ञानियों के तो कर्म कटते ही कहां हैं? मगर कर्म कट रहे हैं और जो नवीन कर्म आ रहे हैं अज्ञानियों के उन पर ध्यान न दें और जो कर्म दूर हो रहे हैं उपक्रम से अनुपक्रम से उनकी संख्या समझ लें, उसके साथ तुलना की है, किंतु वस्तुत: अज्ञानियों के तो सम्वर है ही नहीं । संवरपूर्वक निर्जरा का वहाँ अवकाश ही नहीं, फिर तुलना कैसे? पर साधारण जनों को अंदाजा कराने के लिए ऐसी कई तुलनायें दी जाती है जैसे एक तुलना यह दी जाती है कि सिद्ध भगवान का या उत्कृष्ट मुनिराज का आनंद कितना है ऐसा समझने के लिए तुलना की जाती है कि तीनों लोक के जितने जीव हैं और इंद्रादिक जो बड़े-बड़े पुण्यवान जीव हैं उन सब जीवों का सांसारिक सुख मन में इकट्ठा कर लो और भूतकाल में जितना सुख मिला है सांसारिक और आगे जितना मिलेगा वह सारा सुख इकट्ठा कर लो, उससे भी कई गुना सुख है अरहंत भगवान के, सिद्ध भगवान के या एक समाधिस्थ मुनिराज के, वीतराग साधु के । तो क्या परमेष्ठी का सुख लौकिक सुख से कुछ गुना है? अरे गुना क्या? लौकिक सुख तो सुख है ही नहीं । संसार में इंद्र देव, भोगभूमिया, धनी, राजा, सबका सुख मिला ले तो भी उनसे दो का भी गुना नहीं कर सकते । गुना के लायक वह चीज ही नहीं है । जैसे 0 (शून्य) में 2 (दो) का गुना करने से क्या फायदा? केवल 0 (शून्य) है । कुछ है ही नहीं, ऐसे ही सांसारिक सुख भोग जुदा चीज है, उससे भगवान के या सम्यग्दृष्टि के आत्मानुभव के आनंद की तुलना करना बेकार है । यह तो भिन्न जाति का आनंद है । तो इसी तरह यहाँ भी एक तुलना रूप में कह दिया गया है कि करोड़ों वर्ष भी कोई अज्ञान जीव तपश्चरण करें, उनके जितने कर्म झड़ेंगे उतने कर्म ज्ञानी के क्षणमात्र में झड़ जाते हैं । केवल एक अंदाजा किया गया है । ज्ञानी के सचमुच में क्षणमात्र में त्रिगुप्ति के बल से अनंत कर्म झड़ जाते हैं । तो जो सम्यक्त्वसहित हैं वे ही अपने स्वरूप को निरखकर मग्न होते हैं ।
(22) सहज आनंद का पौरुष करने का अनुरोध―अहो, जिन्हें अपने धाम का पता ही नहीं वे अपने धाम में कैसे प्रवेश करेंगे? जिनको अपने घर का पता नहीं वे दूसरे के घर में जहाँ जहां भी जायेंगे वहां-वहां से निकाले ही तो जायेंगे । तो ऐसे अज्ञानी जीव, इनको अपने आनंद धाम अंतस्तत्त्व का पता नहीं है अतएव जिन-जिन परद्रव्यों में, इन पर घरों में जाते हैं, वहाँं टिक नहीं पाते । उपयोग भी नहीं टिक पाता मगर मूल में आदत ऐसी पड़ी है कि यह उपयोगी उन्हीं विषय कषायों में जायेगा जिनकी ओर से इनको धक्का लगता है, चोट पहुंचती रहती है; कष्ट होता रहता है, उपयोग वहाँ ही बार-बार जाता है, यह सब अज्ञान की महिमा है । तो सम्यग्दर्शन ही एक ऊँचा वैभव है, इसको रत्न कहते हैं―सम्यक्त्वरत्न । रत्न मायने पत्थर नहीं । जो-जो जिस जाति में उत्कृष्ट है वह-वह उस जाति का रत्न कहलाता । रत्न की परिभाषा यह ही है । तो संसार के अनेक समागम मिला करते हैं, उन समागमों को महत्त्व मत दो । वैभव जुड़ रहा, परिग्रह जुड़ रहा तो उसकी कुछ महिमा मत समझो, वह महिमा के लायक नहीं है, वे सब बाह्य पदार्थ हैं, उनकी सत्ता उनमें है । वे यहाँ रहे तो क्या, कहीं रहे तो क्या, उससे इस आत्मा का उद्धार नहीं होता । अपने आत्मा का स्वरूप समझे बिना यह जीव चतुर्गति में ही भटकता आया है, और जब तक समझ न बनेगी अपने स्वरूप की तब तक यह जीव भटकता ही चला जायेगा । क्या ऐसा ही भटकना पसंद है । मरे के बाद फिर आगे दुर्गतियों में जन्म मरण करते रहना पसंद है क्या? अपने आत्मा से पूछो । अपने लिये अपना आत्मा ही प्रेय है । इस प्रिय आत्मा से पूछो कि तुम्हें आगे भटकना ही पसंद है क्या? अगर नहीं भटकना पसंद है तो जो इस मनुष्यभव का थोड़ा सा जीवन शेष रहा है उसको ठीक ढंग से बितायें । कपटरहित, कषाय मंद करते हुए, अपने आत्मस्वरूप की महिमा जानते हुए जो तीन लोक तीन काल के ज्ञान का स्वभाव रख रहा है, जो अनंत आनंद के लाभ का स्वभाव रख रहा है उसकी महिमा जानें और वहाँ ही अपने उपयोग को रमाने का पौरुष बनायें, यही है सत्य पुरुषार्थ और बाकी जो इन विनश्वर परपदार्थों की ओर लगाव रहता है, यह अपने भगवान आत्मा पर अन्याय करना है । जब किसी व्यक्ति पर अन्याय करे तो उसका खोटा फल भोगना पड़ता है तब फिर जो भगवान आत्मा पर अन्याय करे तो उसको तो नरक निगोद में, तिर्यंच भवों में जन्म मरण का दंड भोगना ही पड़ेगा इस निज भगवान अंतस्तत्त्व को अधिकाधिक जानें और जो अपना आनंदमय अविकार स्वरूप है उसकी महिमा जानकर, वहाँ ही रमकर अपने आपको संतुष्ट बनायें । यह अभ्यास इस दुर्लभ मानवजीवन में चलना चाहिए ।