वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 7
From जैनकोष
जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोगगुणधारी ꠰
तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिंति ।। 7 ।।
(35) धर्मशील संतों के दोष निकालने वाले पुरुषों की भ्रष्टता―जो साधु धर्मशील हैं, सही हैं, जो अपना स्वरूप है सो धर्म है और उस स्वरूपधर्म पर जिनकी दृष्टि चल रही है वे पुरुष धर्मशील कहलाते, याने आत्मा का जो स्वभाव है उस ही स्वभाव की अभिमुखता जिनको रुचिकर है और स्वभाव के अभिमुख होने का यत्न भी रखते हैं वे पुरुष धर्मशील कहलाते हैं । जिन्हें अपने स्वभाव का परिचय नहीं वे पुरुष व्यवहार में कितना ही पूजन वंदन तपश्चरण कैसा ही कुछ करें फिर भी वे धर्मशील नहीं कहलाते । व्यवहार में उन्हें धर्मात्मा तो कह देंगे, लौकिकजन उन्हें पुकारेंगे कि ये धर्म करने वाले हैं, मगर उनका आत्मा धर्मशील नहीं है । धर्म की ओर ही जिनकी रुचि हो उन्हें धर्मशील कहते हैं । तो कोई साधुपुरुष धर्मशील है, यथार्थ है, अपने अनुभव बल से आत्मीय आनंद पाया है ऐसा कोई पुरुष है और उसका कोई लोग दोष बोलें, दोष लगायें तो दोष लगाने वाले लोग भ्रष्ट हैं और यह समझो कि अपना अभिमान पोषने के लिए धर्मात्मा पुरुष में वे दोष लगाते हैं । ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है कि जो विशुद्ध धर्मशील योगीजनों में भी दोष लगाते हैं । जो लोग दूसरे में दोष लगाते हैं उनको अपने आपमें कुछ अभिमान अवश्य है । अपने आप में गर्व हुए बिना मैं बहुत सही हूँ, ढंग से धर्मधारण करता हूँ, अन्य लोग कुछ नहीं ऐसा कुछ अभिमान बना नहीं सकते । दूसरों से अपनी उच्चता जताना वे ही पुरुष किया करते हैं जो दूसरों के दोष देखने के अभ्यासी होते हैं । तो जो पुरुष धर्मशील हैं, आत्मस्वभाव की ओर अभिमुख रहा करते हैं ऐसे पुरुषों के प्रति भी कोई लोग दोष की बात कहें तो वे स्वयं भ्रष्ट हैं । वे दोष कहने वाले लोग स्वयं अपने अभिमान से दूसरों के दोष बतला रहे हैं ।
(36) संयमी संतों के दोष निकालने वालों की धृष्टता―जो साधुजन इंद्रियजयी हैं अर्थात् इंद्रिय और मन का निग्रह करनहार हैं, जिन्होंने इंद्रिय को वश कर रखा है, जो जिह्वा के लपटी भी नहीं हैं । जो स्वाद की अभिलाषा भी नहीं रखते, भले ही चूंकि आहार लेना आवश्यक है जीवन की रक्षा के लिए, जीवन चाहिए संयम के लिए सो वे साधुजन आहार भी ग्रहण करते हैं मगर इंद्रिय पर बराबर निग्रह है । उनको किसी प्रकार के स्वाद में आशक्ति नहीं होती । तो जो साधु पुरुष पंचेंद्रिय के वश में नहीं हैं, मन के वश में नहीं हैं ऐसे पुरुष उच्च होते हैं । मन का विषय क्या है? कीर्ति ख्याति नामवरी अथवा विषयों का चिंतवन, निदान की आशा, ये स्वभाव मन के विषय कहलाते हैं । तो जो साधुजन मन पर भी नियंत्रण रखे हुए हैं, जैसे कहते हैं न―‘‘हम तो उन चरणन के दास जिन्होंने मन मार लिया’’, जिन्होंने अपने मन को वश में किया है, जो किसी इंद्रिय विषय की चाह नहीं करते, जगत के जीवों में जो अपने आपकी ख्याति नहीं चाहते, ऐसा जिन्होंने मन पर भी निग्रह किया है वे कहलाते हैं संयमी जन । ऐसे संयमी जनों के प्रति भी जो दोष की बात कहते हैं, दोष तो उनमें हैं नहीं, पर बनाये जाते हैं । तो वे दोष कहने वाले पुरुष स्वयं भ्रष्ट हैं, पर अपनी उच्चता बताने के लिए चाहे वे संयम रंच भी न पालें, प्रकट रूप में भी असंयमी हैं, पर ऐसा जताने के लिए कि संयमी जनों से भी हमारा आचरण अच्छा है, या कुछ भी बात अभिमान पोषने के लिए संयमी जनों में लोग दोष के कहने वाले लोग स्वयं भ्रष्ट हैं और इसी कारण वे दूसरों में भ्रष्टता का आरोप करते हैं ।
(37) तपस्वी संतों के दोष निकालने वालों की भ्रष्टता―जो पुरुष अंतरंग बहिरंग तपश्चरण में सावधान हैं, तपश्चरण भलीभांति करते हैं वे पुरुष तपस्वी कहलाते हैं । (1) अनशनतप आहार का त्याग करना, उपवास करना । भोजन का त्याग करके अपने आपके आत्मा में निवास करना, उसे कहते हैं अनशन । (2) ऊनोदर, ऊन मायने कम उदर मायने पेट याने पेट में जितनी भूख हो उससे कम खाना । कोई-कोई लोग तो कहते हैं कि अनशन करना तो सरल है पर ऊनोदर करना कठिन है, क्योंकि भोजन का प्रसंग मिला है, सामने आहार हाजिर है, खा रहे और खाते समय आधा पेट ही खाकर छोड़ दिया, यह लोग कुछ कठिन मानते हैं लेकिन जिनको अपने आत्मतत्त्व की उपासना की धुन लगी है वे तो जितना भी खा लिया आधा पेट या पाव पेट बस उतना ही उनके लिए बहुत है । जैसे खेल खेलने के शौकीन बालक को मां जबरदस्ती पकड़कर उसे खाना खिलाती है पर उसका ध्यान उस खेल में होने से बड़ी जल्दी-जल्दी में बस थोड़ा सा ही खाकर वह भग जाता है, और खेल खेलने लगता है, उसे खेल खेलने की इतनी धुन होती कि वह भरपेट भोजन नहीं कर पाता । तो ऐसी ही जिनको अपने आत्मा की उपासना की धुन लगी है उनके तो यह बहुत कुछ संभव है कि कोई भली प्रकार भरपेट भोजन कर लें । थोड़ा सा आहार होना और उसे छोड़कर चल देना यह ऊनोदर तप है । (3) वृत्तपरसंख्यान जो मुनि आहार मिलने की अपेक्षा आहार न मिलने में बड़ी प्रसन्नता रखने के अभ्यासी हैं वे अटपट प्रतिज्ञायें लिया करते हैं भोजन के समय में । मुझे आहार न मिले, यह विचार कर लिया कोई अटपट नियम, जैसे आज हम अमुक गली में से चर्या के लिए निकलेंगे, अगर वहाँ इतने चौके छोड़कर आहार मिलेगा तो लूंगा नहीं तो न लूंगा, एक साधु ने तो यह भी नियम लिया था कि आहार चर्या के समय मुझे कोई बैल ऐसा दिख जाये कि जिसकी सींग में गुड़ की भेली भिदी हुई हो, यदि ऐसा दिख जाता है तो मैं आहार लूंगा नहीं तो न लूंगा । ऐसा नियम उस साधु ने इसलिए लिया कि ऐसा योग तो मिलना बहुत कठिन है और मैं आहार लेने के झंझट से बच जाऊँगा । यद्यपि उनको भूख लगेगी, आहार चर्या के लिए भी निकलेंगे, मगर वहाँ उनका अधिक अभिप्राय यह है कि बिना आहार किए मेरे कई दिन बीते तो मेरे ध्यान में विशेषता आवे, मुझमें कोई प्रमाद न रहे । सो साधु ने वैसा नियम लिया, कुछ दिन बिना आहार के बीत गए । चर्या ही न बने । अचानक एक योग ऐसा जुड़ा कि जिस समय वह साधु चर्या को जा रहे थे उसी समय एक बैल आकर गुड वाले की दुकान में गुड़ खाने लगा । उस दुकानदार ने बैल को भगाया तो जल्दी-जल्दी में बैल का मुख कुछ ऊँचा नीचा टेढ़ा मेढ़ा होने से उसकी सींग में गुड़ की भेली भिद गई । साधु को वह दृश्य उस समय दिख गया, उसका नियम पूरा हुआ तब आहार ग्रहण किया । तो व्रतपरसंख्यान भी बड़ा कठिन तप है । (4) रसपरित्याग―दो रस, चार रस का त्याग कर देना, छहों रसों का त्याग कर देना, नीरस आहार लेना, यह सब रसपरित्याग कहलाता है । (5) विविक्त शय्यासन―एकांत स्थान में ही सोना, बैठना, ध्यान लगाना जहाँ कि कोई पुरुष ही नहीं है, निर्जन वन, वह विविक्त शय्यासन है, ऐसा भली प्रकार जो मुनि तपश्चरण कर रहे हैं तो मुनियों में भी कोई लोग दोष लगाये तो वे दोष कहने वाले लोग स्वयं भ्रष्ट हैं । और वे अपने अभिमान के कारण साधु संतों में दोष की बात कहा करते हैं । (6) कायक्लेश―ये 6 बाह्य तप हुए ।
( 38) अंतस्तपस्वी संतों में दोष निकालने वालों की भ्रष्टता―6 हैं अंतरंग तप―वे और भी अधिक विशेष अतिशय रखते हैं ― (1) प्रायश्चित्त―कोई दोष लग गया साधु में तो उस दोष पर उसे बड़ा पछतावा हो रहा । उस दोष निवारण के लिए कोई प्रायश्चित्त ले रहे, उन्हें निभा रहे, वह प्रायश्चित्त तप है । अज्ञानीजन तो मोह किए जा रहे हैं निरंतर दनादन पर उन्हें किसी भी दिन पछतावा नहीं आता कि मैं क्यों व्यर्थ में मोह ही मोह में रहकर अपना जीवन बिता रहा हूँ । पछतावा में तो बड़ी विशुद्धि जगती है । कर्मोदय आया, कोई दोष लग गया, मगर उस दोष के बाद उसके प्रति बड़ा पछतावा होता है । कहां तो मेरा ज्ञानानंदस्वभाव और कहां ऐसी खोटी क्रिया भावना हुई । ज्ञानानंदस्वभाव को निरंतर तकता हुआ अपनी क्रिया पर पछता रहा है । यह प्रायश्चित्त तप है । (2) विनय तप सभी जीवों को अपने समान स्वरूप वाला निरखना यह सभी जीवों के प्रति विनय है । जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के धारी हैं उनके मन, वचन, काय का अभिवादन करना, वंदन करना, प्रशंसा करना उस रत्नत्रय पर दृष्टि रखना ये सब विनयतप कहलाते हैं । अपने आपके स्वभाव को निरखकर, धन्य है यह स्वरूप अविकार है । स्वयं में सहज कोई विकार नहीं है, ऐसे अपने अविकार स्वरूप को देखकर प्रमोद करना, उस स्वरूप के माहात्म्य को समझना यह आत्मविनय है । विनय भी एक तप है । (3) वैयावृत्ति अपने आपको धर्ममार्ग में लगाये रखना, दूसरे धर्मात्मा जनों की सेवा सुश्रुषा करना, कोई बीमार हो, असक्त हो उसकी हर प्रकार सेवा करना, थक गये हों तो पैर दबाना और और प्रकार योग्य रीति से उनकी सेवा करना ये सब वैयावृत्ति तप कहलाते हैं । (4) स्वाध्याय तप―शास्त्रों का अध्ययन इस पद्धति से हो कि जिसमें स्व का अध्ययन चलता रहे । मैं आत्मा क्या हूँ, मैं आत्मा क्या बन गया हूँ, मुझ आत्मा को क्या होना चाहिए था, इन सब बातों का जिनके यथार्थ विचार है ऐसे मनन पूर्वक शास्त्रों का स्वाध्याय करना स्वाध्याय तप है । (5) कायोत्सर्ग शरीर में ममत्व का त्याग शरीर में कोई ममता नहीं, जिनकी दृष्टि में यह ज्ञानस्वभावी आत्मा स्पष्ट अविकार स्वभावी दिख रहा है । आनंदस्वरूप नजर में आया है, सर्व पदार्थों से अत्यंत विविक्त विदित हुआ है उनको शरीर में ममता क्यों होगी? और इसी कारण कायोत्सर्ग करने में रंच भी संकोच नहीं होता ꠰ शरीर में ममता का त्याग करने का नाम है कायोत्सर्ग । शरीर में प्रीति न रहे, ऐसी ज्ञान भावना करता हुआ रहे तो वह कहलाता है कायोत्सर्ग । (6) वेदनाप्रभव सो ऐसे आभ्यंतर तपों के जो तपस्वी है, शुद्ध तपश्चरण करते हैं ऐसे पुरुषों में भी जो लोग दोष लगाते हैं वे पुरुष स्वयं भ्रष्ट हैं और अपनी भ्रष्टता छिपाने के लिए, अपनी उच्चता जाहिर करने के लिए वे ऐसे तपस्वी जनों में भी दोष लगाया करते हैं ।
(39) आवश्यक नियमों के पालनहार संतों में दोष लगाने वालों की भ्रष्टता―जो साधु अपने आवश्यक नियमों का भली भांति पालन करते हैं । जैसे गृहस्थों के 6 आवश्यक है, रोज-रोज जरूरी ही करने के काम हैं―(1) देवपूजा, (2) गुरूपासना, (3) स्वाध्याय, (4) संयम (5) तप और (6) दान, ऐसे ही साधुवों के भी 6 आवश्यक है―(1) समता (2) वंदना (3) स्तुति (4) प्रतिक्रमण (5) कायोत्सर्ग और (6) स्वाध्याय । साधुजन अपने 6 आवश्यकों में बड़े सावधान हैं ꠰ समय पर जो आवश्यक किए जाने चाहिए, बराबर चल रहे हैं, प्रमाद नहीं है, ऐसे वे नियम के पक्के हैं तिस पर भी जो लोग उनमें दोष निकालें, उनमें दोष बतायें वे स्वयं भ्रष्ट हैं और अपना अभिमान जताने के लिए वे दोष लगाया करते हैं, ऐसे ही जो साधु योग का सही पालन करते हैं, समाधि में रहते हैं, ध्यान में रहते हैं, वर्षाकाल में जो चर्या करना चाहिए वही चर्या करते हैं ऐसे बड़े योग के पालनहार पुरुष अभिवंदनीय हैं ꠰ शीतकाल में जंगल में रहना, नदी के तट में रहना । कहीं भी हैं, उससे विचलित नहीं होते और ज्ञानस्वभाव की आराधना में बराबर लगे हुए हैं ꠰ गर्मी के दिनों में खुली जगह पड़े पहाड़ पर भी बैठे अपना ध्यान बना रहे, तो ऐसी जो योग की धारा है उन साधुवों में भी जो लोग दोष लगाते हैं वे स्वयं भ्रष्ट हैं और अपने अभिमानवश उनमें दोष लगाते हैं । इस प्रकार मूल गुण उत्तरगुण के जो धारणहार हैं, साधुवों के मूल गुण हैं 28 और उत्तरगुण हैं अनेक । मूल गुण में भी जो सावधान हैं और उत्तरगुणों का जो पालन करते हैं ऐसे साधुजनों में जो लोग दोष लगाया करते हैं वे लोग स्वयं भ्रष्ट हैं न और जान बूझकर दोष लगाते हैं अपने अभिमानवश और अपनी उच्चता बताने के लिए । तो ऐसे दोष कहने वाले भ्रष्ट पुरुष स्वयं अपने आपको पतित करते हैं और संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं ।