वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 8
From जैनकोष
जह मूलम्मि विणट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परवड्ढी ।
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति ।। 8 ।।
(40) जिनदर्शनभ्रष्ट पुरुषों के सिद्धि का अभाव―जैसे वृक्ष की जड़ नष्ट हो जाये तो शाखा, पत्र, फूल आदिक की वृद्धि नहीं होती उसी तरह जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं याने जिनेंद्र शासन से जो भ्रष्ट है वे मूल से विनष्ट है वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते । सम्यग्दर्शन से जो रहित हैं वे मोक्षमार्ग नहीं हैं, यह बात तो स्पष्ट है मगर भ्रष्ट से भृष्ट कौन है उसकी बात यहाँ चल रही है । जो व्यवहार में भी भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट कहलाते हैं । एक साधु व्यवहार व्रतों का तो भली भांति पालन कर रहा है, महाव्रत, समिति, गुप्ति तप सबका विधिवत् पालन कर रहा हैं मगर सम्यग्दर्शन नहीं है तो उसको कहते हैं भृष्ट । मोक्ष मार्ग से वह भ्रष्ट हैं । भले ही वह तपश्चरण कर रहा, व्रत पालन कर रहा मगर सम्यग्दर्शन नहीं है इस कारण भ्रष्ट है । और जिसके सम्यग्दर्शन नहीं और बाहरी आचरण भी ठीक नहीं, व्यवहार धर्म से भी गिरा हुआ है वह तो भ्रष्ट से भी भ्रष्ट कहलाता है । उसकी चर्या कह रहे हैं कि वह पुरुष मूल से ही नष्ट है, उनको मोक्षफल की सिद्धि नहीं होती । जैसे पेड़ की जड़ कट जाये, नष्ट हो जाये तो अब फूल, पत्र, पौधा आदिक ये नहीं ठहर सकते, क्योंकि उन फूल, पत्र, शाखाओं का तो आहार, खुराक, पुष्टि जड़ से मिलती थी । जब जड़ ही न रही तो फिर शाखा, फूल, फल आदिक में वृद्धि नहीं हो सकती । वृक्ष की जड़ नीचे रहती है और मनुष्य की जड़ ऊपर रहती है । यह मनुष्य जब शीर्षासन करता है उस समय वह सीधा वृक्ष है, नीचे जड़ है और ऊपर शाखायें हैं हाथ पैर की । वृक्ष जड़ से भोजन करते हैं तो यह मनुष्य भी जड़ से ही भोजन करता है । यदि मनुष्य की जड़ खतम हो जाये याने सिरभंग हो जाये तो फिर उसके पैर आदिक की वृद्धि नहीं हो सकती, ऐसे ही पेड़ की जड़ खतम हो जाये तो उसके शाखा, फूल, पत्र, ये वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते । इसी प्रकार जो जिन दर्शन से भ्रष्ट हैं, भगवान जिनेंद्र का जो मत है उस मत से जो बहिर्भूत हैं, उनके व्यवहार सम्यक्त्व भी नहीं, व्यवहार चारित्र भी नहीं और अपने को साधु पना जतायें, नग्न दिगंबर भेष धारण है, पिछी कमंडल धारण है अथवा और समितियों का पालन है, यह तो सब व्यवहार धर्म की रक्षा है । जिसके यह व्यवहार धर्म भी नहीं, 7 तत्त्व, 6 द्रव्य, 9 पदार्थ जो मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत हैं उनका यथार्थ श्रद्धान नहीं, वह कहलाता है जिनदर्शन से भ्रष्ट तो जो जीव जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं वे कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते ।
(41) मूलगुणविहीन गृहस्थों के धर्मपालन की अपात्रता―श्रावकों के 8 मूल गुण बताये गए और उन 8 मूल गुणों में भी निम्न श्रेणी के 8 मूल गुण मद्य मांस मधु का त्याग और पंच उदंबर फलों का त्याग । ये निम्न से निम्न श्रेणी के 8 मूल गुण हैं, इनका ही जिनके पालन नहीं है वे मनुष्य तो मूल से विनष्ट हैं, वे कुछ भी धर्मप्रवृत्ति नहीं कर सकते । अब इन आठों में देखो तो मधु के त्याग की बात । उच्च कुल में उत्पन्न हुए भी अनेक लोग ऐसे मिलेंगे कि कटोरी में शहद रखकर उसका भक्षण करते होंगे । मदिरा पान करने वाले भी बहुत मिलेंगे । और, किसी न किसी प्रकार लुक छिपकर या अंडे को सब्जी बताकर, कोई बहाना कर मांस का सेवन करने वाले भी बहुत मिलेंगे, तो उनका उच्च कुल में जन्म लेने का कुछ अर्थ ही न रहा, क्योंकि मद्य, मांस, मधु का सेवन करने वाले के हृदय में आत्मदृष्टि की योग्यता ही नहीं रहती । इससे जिनदर्शन में सर्वप्रथम अष्ट मूलगुण बताये गए । और, ये निम्न श्रेणी के हैं । इन्हीं का कोई पालन कर ले तो वह धर्मधारण का पात्र तो है कम से कम । और, अगर निरतिचार अष्ट मूल गुणों को पाले तो उसकी और भी विशेष प्रगति है । तो जो जिनदर्शन से भ्रष्ट है वह मूल से ही विनष्ट है, ऐसे जीव मुक्ति को प्राप्त नहीं करते ।