वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 8
From जैनकोष
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्चयदो ।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।।8।।
अन्वय―आदा ववहारदो पुग्गल कम्मादीणं कत्ता, दु णिच्चयदो चेदणकम्माण कत्ता । सुद्धणाया सुद्धभावाणं कत्ता ।
अर्थ-―आत्मा व्यवहारनय से पुद᳭गलकर्मादि का कर्ता है, परंतु निश्चयनय से चेतनकर्म का कर्ता है और शुद्धनय की अपेक्षा शुद्ध भावों का कर्ता है ।
प्रश्न 1―पुद᳭गलकर्म आदि में आदि शब्द से और किन-किन का ग्रहण करना चाहिये?
उत्तर―आदि शब्द से औदारिक, वैक्रियक, आहारक―इन तीन शरीर के योग्य नोकर्म और आहारादि 6 पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म रूप पुद्गल का ग्रहण करना तथा घट, पट, मकान आदि बाह्य पदार्थों का ग्रहण करना ।
प्रश्न 2―आत्मा पुद्गल कर्म का कर्ता किस व्यवहारनय से है ?
उत्तर―आत्मा ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्मों का कर्ता अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है । ज्ञानावरणादि कर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह संबंध है और जब तक संबंध है तब तक जहाँ आत्मा की गति हो वहीं उनकी गति है आदि । आत्मा जब कषायभाव करता है तब ये कर्मरूप परिणमते ही हैं । इन कारणों से यह कर्तृत्व अनुपचरित है । कर्म भिन्न पदार्थ हैं, अत: असद्भूत हैं । भिन्न पदार्थ के प्रति कर्तृत्व देखा जा रहा है सो व्यवहार है ।
प्रश्न 3―शरीर और पर्याप्त के योग्य पुद्गलों का कर्ता आत्मा किस नय से है ?
उत्तर―शरीरादि का भी कर्ता आत्मा अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है । ये पुद्गल भी आत्मा के एकक्षेत्रावगाह में है और जब तक इनका आत्मा से संबंध है तब तक आत्मा की गति आदि के साथ इनकी गति आदि है, अत: अनुपचरित कर्तृत्व है, भिन्न पदार्थ हैं, इसलिए असद्भूत कर्तृत्व है तथा भिन्न पदार्थों का कर्तृत्व देखा जा रहा है, अत: व्यवहार है ।
प्रश्न 4-घट-पट आदि का कर्ता आत्मा किस नय से है ?
उत्तर―आत्मा घट-पट आदि का कर्ता उपचरित असद᳭भूत व्यवहारनय से है । ये पदार्थ भिन्न क्षेत्र में हैं और बाह्यसंबंध से भी पुथक् हैं । हाँ, आत्मा की चेष्टा के निमित और निमित्त के निमित्त, उपनिमित्तों का निमित्त पाकर षट-पट आदि निमित्त हो जाते हैं, इसलिये इन बाह्म पदार्थों का कर्तृत्व उपचरित है । भिन्न पदार्थ हैं, सो इनका कर्तृत्व असद्भूत है । पृथक् द्रव्यों में कर्तृत्व बताया जा रहा है, इसलिये व्यवहार है ।
प्रश्न 5―जब ये पदार्थ भिन्न हैं तब इनके प्रति ऐसा भी कर्तृत्व क्यों बन गया ?
उत्तर―आत्मा निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से रहित होकर ही इन बाह्य पदार्थों का कर्ता बन जाता है।
प्रश्न 6―पुद्गल कर्म क्या वस्तु है ?
उत्तर―जगत् में अनंतानंत कार्माणवर्गणायें हैं और प्रत्येक संसारी जीव के साथ विस्रसोपचय के रूप में अनंत कार्माणवर्गणायें लगी हुई हैं । कार्माणवर्गणा का अर्थ है कर्मरूप बनने योग्य सूक्ष्म पुद्गल स्कंध । ये ही कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणत हो जाते हैं, जब जीव कषायभाव करता है ।
प्रश्न 7―जीव का कर्म के साथ तो गहरा संबंध है, फिर जीव को कर्म का असद्भूत व्यवहारनय से कर्ता क्यों कहा गया है ?
उत्तर―जीव का कर्म में अत्यंताभाव है । तीन काल में भी जीव का द्रव्य, प्रदेश, गुण और पर्याय कर्म में नहीं जा सकता और कर्म के द्रव्य प्रदेश, गुण और पर्याय जीव में नहीं जा सकते । हाँं, सहज निमित्तनैमित्तिक बात ही ऐसी हो जाती है कि जीव जब अपने कषायपरिणमन से परिणमता है तो कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं तो भी अत्यंताभाव के कारण असद᳭भूतपना ही ठीक है ।
प्रश्न 8―चेतन कर्मों का जीव किस नय से कर्ता है ?
उत्तर―जीव अशुद्धनिश्चयनय से चेतनकर्मों का कर्ता है ।
प्रश्न 9―चेतनकर्म तो जीव की परिणति है, फिर उसका कर्ता जीव अशुद्धनय से क्यों है ?
उत्तर―चेतनकर्म का तात्पर्य है पुद्गल कर्म उपाधि को निमित्त पाकर रागादि विभाव रूप परिणमने वाला जीव का विभावपरिणमन । ये रागादिभाव जीव में स्वयं अर्थात् स्वभाव के निमित्त से नहीं होते, परद्रव्य के निमित्त से होते हैं, अतएव ये क्षणिक और विपरीत भाव याने अशुद्ध भाव हैं, किंतु हैं ये जीव की ही पर्याय । इसी कारण जीव इन चेतनकर्मों का अशुद्ध निश्चयनय से कर्ता है ।
प्रश्न 10―रागादि भाव जब आत्मा के स्वभाव नहीं हैं तब जीव इन्हें करता क्यों है ?
उत्तर―आत्मा का स्वभाव निष्क्रिय अभेद चैतन्य है । इस निजस्वभाव की दृष्टि, उपलब्धि से रहित होकर यह जीव रागादि भावकर्मों का कर्ता होता है ।
प्रश्न 11―जिन कर्मों के उदय को निमित्त पाकर यह भावकर्म हुआ वे द्रव्यकर्म कैसे बने ?
उत्तर―पूर्व के भावकर्मों को निमित्त पाकर द्रव्यकर्म की रचना हुई ।
प्रश्न 12―इस तरह तो इतरेतराश्रय दोष आ जावेगा, क्योंकि जब द्रव्यकर्म हो तो भावकर्म बने और जब भावकर्म हो तो द्रव्यकर्म बने ?
उत्तर―इसमें इतरेतराश्रय दोष नहीं आता, क्योंकि पूर्व का भावकर्म पूर्वबद्ध द्रव्यकर्म के उदय से होता है और वह द्रव्यकर्म भी पूर्व के भावकर्म के निमित्त से बंधता है । इस तरह भावकर्म और द्रव्यकर्म में बीज वृक्ष की तरह या पितापरंपरा की तरह अनादि परंपरा संबंध है ।
प्रश्न 13―शुद्ध भावों का कर्ता जीव किस शुद्धनय से है ?
उत्तर―शुद्धनिश्चयनय से जीव शुद्ध भावों का कर्ता है ।
प्रश्न 14―शुद्ध भाव से यहां क्या तात्पर्य है ?
उत्तर―मलिनता से रहित अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य आदि शुद्ध भाव हैं ।
प्रश्न 15―इन शुद्ध भावों का कर्ता कौन जीव है ?
उत्तर―शुद्ध भावों का कर्ता पूर्ण शुद्धनिश्चयनय से तो मुक्त जीव याने अरहंत और सिद्धप्रभु है । भावनारूप एकदेश शुद्धनिश्चयनय से छद्मस्थावस्था में अंतरात्मा शुद्ध भावों का कर्ता है ।
प्रश्न 16―शुद्ध भावों का कर्ता जीव शुद्ध निश्चयनय से क्यों है ?
उत्तर―अनंतज्ञानादि शुद्ध पर्यायें कर्म उपाधि के अभाव में होती हैं और स्वभाव के अनुरूप है, अत: इनका कर्तृत्व शुद्ध है और जीव की ही परिणति है, अत: निश्चय से इनका कर्तृत्व है । इस प्रकार जीव अनंतज्ञानादि शुद्ध भावों का शुद्धनिश्चयनय से कर्ता है ।
प्रश्न 17―परमशुद्धनिश्चयनय से जीव किसका कर्ता है ?
उत्तर―परमशुद्धनिश्चयनय से जीव अकर्ता है । इस नय के अभिप्राय में निज में भी कर्ताकर्म भेद नहीं है । समस्त भेद, विकल्प, पर्याय की दृष्टि से रहित अखंड विषय परमशुद्ध निश्चयनय का है ।
प्रश्न 18―इस कर्तृत्व के प्रकरण से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिये ?
उत्तर―निरंजन, निष्क्रिय निज शुद्ध चैतन्य की भावना के अवलंबन से तो शुद्ध भावों का कर्ता बन जाता है जिसका फल अनंत सुख है और इस निज शुद्ध चैतन्य की भावना से रहित होकर रागादि विभावों का कर्ता होता है, जिसका फल घोर दुःख है । सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिये शुद्ध चैतन्यस्वभाव का अवलंबन लेना चाहिए ।
इस प्रकार “जीव कर्ता है” इस अर्थ के व्याख्यान का अधिकार समाप्त करके “जीव भोक्ता है” इसका वर्णन करते हैं―