वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 7
From जैनकोष
वण्णरस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे ।
णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुक्ति बंधादो ।।7।।
अन्वय―णिच्चया जीवे पंच वण्ण रस दो गंधा अट्ठ फासा णो संति तदो असुत्ति, ववहारा बंधादो मुत्ति ।
अर्थ―निश्चयनय से जीव में पांच वर्ण, 5 रस, दो गंध, 8 स्पर्श नहीं हैं, इसलिये जीव अमूर्त है । व्यवहारनय से कर्मबंध होने के कारण जीव मूर्तिक है ।
प्रश्न 1―वर्ण किसे कहते हैं?
उत्तर―वर्ण्यते अवलोक्यते चक्षुरिंद्रियेन य: स: वर्ण: । चक्षुरिंद्रिय के द्वारा जो देखा जाता है उसे वर्ण कहते हैं ।
प्रश्न 2―वर्ण द्रव्य है कि गुण है या पर्याय?
उत्तर―वर्ण द्रव्य नहीं है, वर्ण सामान्य गुण है । वर्ण गुण के परिणमन वर्ण पर्याय हैं ।
प्रश्न 3―वर्णगुण के कितने परिणमन हैं?
उत्तर―वर्णगुण की पर्यायें असंख्यात प्रकार की हैं, किंतु उन पर्यायों को सदृश जातियों में संक्षिप्त करके देखा जावे तो पांच पर्यायें हैं―(1) कृष्ण, (2) नील, (3) रक्त, (4) पीत और (5) श्वेत ।
प्रश्न 4―ये पांचों पर्यायें एक साथ एक द्रव्य में रह सकती हैं क्या?
उत्तर―एक द्रव्य में एक वर्ण पर्याय ही रह सकती है । एक वर्ण की ही बात नहीं प्रत्येक द्रव्य में जितने गुण होते हैं उनमें प्रत्येक गुण की एक-एक पर्याय ही एक समय में उस द्रव्य में होती है ।
प्रश्न 5―रस किसे कहते हैं?
उत्तर―रस्यते इति रस: । जो रसनाइंद्रिय के द्वारा स्वादा जाये उसे रस कहते हैं । यह रससामान्य तो गुण है और रसपरिणमन पर्याय हैं ।
प्रश्न 6―रस गुण के कितने परिणमन हैं?
उत्तर―संक्षेप में रस गुण के परिणमन पाँच हैं―(1) तिक्त, (2) कटु, (3) कषाय, (4) अम्ल याने खट्टा और (5) मधुर अर्थात् मीठा ।
प्रश्न 7―गंध किसे कहते हैं?
उत्तर―गंध्यते इति गंध: । घ्राणेंद्रिय के द्वारा जो सूंघा जाये सो गंध है । गंधसामांय तो गुण है और गंध गुण के परिणमन पर्याय हैं ।
प्रश्न 8―गंध गुण के कितने परिणमन हैं?
उत्तर―गंध गुण के परिणमन दो प्रकार के हैं―(1) सुगंध, (2) दुर्गंध ।
प्रश्न 9―स्पर्श किसे कहते हैं?
उत्तर―‘स्पृश्यते इति स्पर्श:’ इंद्रिय के द्वारा छुवा जाये उसे स्पर्श कहते हैं । स्पर्श सामान्य तो गुण है और स्पर्श गुण के परिणमन पर्यायें हैं ।
प्रश्न 10―स्पर्शगुण की कितनी पर्यायें हैं?
उत्तर―स्पर्श गुण की 8 पर्यायें है―(1) स्निग्ध, (2) रूक्ष, (3) शीत, (4) उष्ण, (5) गुरु, (6) लघु, (7) मृदु और (8) कठोर ।
प्रश्न 11―स्पर्श गुण की पर्याय एक समय में एक द्रव्य में एक ही रहती है या अनेक?
उत्तर―उक्त 8 पर्यायों में से 4 पर्यायें तो आपेक्षिक हैं―(1) गुरु, (2) लघु, (3) मृदु और (4) कठोर । ये स्कंध पर्यायों में ही पाये जाते हैं इनका आधारभूत द्रव्य में कोई गुण नहीं है, केवल स्पर्शनेंद्रिय के द्वारा ये समझ में आते हैं सो ये स्पर्शगुण की पर्यायें उपचार से कही जाती हैं । आदि की चार पर्यायों में गुण पर्यायपना है ।
प्रश्न 12―स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण क्या ये चारों पर्यायें एक द्रव्य में एक साथ रहती हैं या क्रम से?
उत्तर―एक द्रव्य में (1 परमाणु में) इन चार में से दो रहती हैं स्निग्ध रूक्ष में से एक व शीत उष्ण में से एक ।
प्रश्न 13―एक स्पर्शगुण की 2 पर्यायें एक साथ कैसे रह सकती हैं?
उत्तर―भेदविवक्षा से वास्तव में एक परमाणु द्रव्य में एतद्विषयक दो गुण हैं―एक गुण के परिणमन तो स्निग्ध, रूक्ष हैं और दूसरे गुण के परिणमन शीत, उष्ण हैं । परंतु ये पर्यायें एक स्पर्शनइंद्रिय के द्वारा जानी जाती हैं । अत: इन सबको एक स्पर्श गुणा के परिणमन कहा जाता है ।
प्रश्न 14―उन दोनों स्पर्श गुणों के नाम क्या हैं?
उत्तर―इन दोनों स्पर्श गुणों के नाम उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी एक गुण की एक ही पर्याय होती है । इस अकाट्य नियम के कारण दो गुण सिद्ध ही हैं । जैसे एक चैतन्य गुण के दो परिणमन है―(1) ज्ञानोपयोग, (2) दर्शनोपयोग । ये दोनों उपयोग एक साथ होते हैं, अत: दो गुण सिद्ध होते हैं । एक गुण का नाम है ज्ञान और दूसरे गुण का नाम है दर्शन । चेतनकार्य दोनों का होने से इन दोनों गुणों का एक अभेद नाम चैतन्य है । ‘इसी प्रकार स्पर्श गुण का भी दो प्रकार परिणमन जानना ।’
प्रश्न 15―ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग छद्मस्थों में तो क्रम से होता है, फिर ये दो गुणों के परिणमन कैसे हुए?
उत्तर―छद्मस्थों में यद्यपि इनका उपयोग एक साथ नहीं है तो भी ज्ञानगुण और दर्शनगुण दोनों का परिणमन सदैव होता रहता है । हाँं छद्मस्थ उपयोग क्रम से लगा पाता है ।
प्रश्न 16―उक्त बीसों पर्याय निश्चय से आत्मा में क्यों नहीं हैं?
उत्तर―इन बीसों पर्यायों का और उनके आधारभूत चारों गुणों का व्याप्यव्यापक भाव पुद्गल द्रव्य के साथ है, आत्मा के साथ नहीं । इस कारण आत्मा में निश्चय से ये वर्ण, रस, गंध, स्पर्श नहीं हैं ।
प्रश्न 17―वर्ण, गंध, रस, स्पर्श न होने से आत्मा अमूर्त क्यों है ?
उत्तर―वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का नाम मूर्त है । यह मूर्त जहाँ नहीं, वह अमूर्त है ।
प्रश्न 18―यदि आत्मा अमूर्त है तो उसके कर्मबंध कैसे होता है ?
उत्तर―संसारी आत्मा व्यवहारनय से मूर्त है, अत: इस मूर्त आत्मा के कर्मबंध हो जाता है ।
प्रश्न 19―संसारी आत्मा किस कारण से मूर्त है ?
उत्तर―अनादि परंपरा से चले आये कर्मों के बंधन के कारण आत्मा मूर्त है ।
प्रश्न 20―यदि आत्मा व्यवहारनय से मूर्त है तो कर्मबंध भी व्यवहार से ही होगा, निश्चय से नहीं होगा ?
उत्तर―ठीक है । कर्मबंध भी व्यवहार से है, निश्चय से नहीं है । निश्चयनय तो केवल एक द्रव्य को या एक शुद्ध स्वभाव को देखता है ।
प्रश्न 21―यदि कर्मबंध व्यवहार से है तो उसका फल दुःख भी व्यवहार से होता होगा ?
उत्तर―यह भी ठीक है । आत्मा के दुःख भी व्यवहार से हैं । निश्चयनय से तो आत्मा सुख दुःख के विकल्प से रहित शुद्ध ज्ञायकभावरूप जाना जाता है ।
प्रश्न 22―यदि दुःख भी व्यवहार से है तो कर्मबंध के दूर करने का उद्यम क्यों करना चाहियें ?
उत्तर―जिसे व्यवहार का दुःख नहीं चाहिये उसे व्यवहार का कर्मबंधन हटाने का उद्यम करना ही चाहिये । हाँ, जिसे व्यवहार का दुःख इष्ट हो वह व्यवहार का कर्मबंध न हटाये । ऐसे जीव तो संसार में अब भी अनंतानंत हैं ।
प्रश्न 23―किस व्यवहारनय से आत्मा मूर्तिक है ?
उत्तर―अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा मूर्तिक है । ऐसी मूर्तिकता अनादि परंपरा से है अत: अनुपचरित है, मूर्तिकता स्वरूप में नहीं है इसलिये असद᳭भूत है और इसमें कर्मसंयोग की अपेक्षा है इसलिये व्यवहार है ।
प्रश्न 24―तब संसार अवस्था में जीव को मूर्त ही माना जावे, अमूर्त नहीं मानना चाहिये ।
उत्तर―संसार अवस्था में यह जीव कथंचित् मूर्त है और कथंचित् अमूर्त है । बंध के प्रति एकत्व होने से यह व्यवहारनय से मूर्त है और अपने स्वरूप से अमूर्त है । निश्चय से आत्मा चैतन्यमात्र है, इसमें वर्ण, रस, गंध व स्पर्श नहीं हैं, इसलिये अमूर्त है ।
प्रश्न 25―आत्मा कथंचित् मूर्त व अमूर्त है ऐसा जानकर हमें क्या करना चाहिये ?
उत्तर―इस अमूर्तस्वरूप आत्मा की दृष्टि उपलब्धि के न होने से यह आत्मा मूर्त बनकर चतुर्गति के दुःखों को भोगता है । अत: मूर्त विषयों का त्याग करके, पर्यायबुद्धि को छोड़कर शुद्धचैतन्यस्वभावमात्र अमूर्त आत्मा का ध्यान करना चाहिये ।
इस प्रकार “जीव अमूर्त है” इस अर्थ के व्याख्यान का अधिकार समाप्त करके “जीव कर्ता है” इसका वर्णन करते हैं―